शनिवार, मार्च 13, 2010

चंद रुबाइयात

सारे आलम में किया तुझ को तलाश।
तू ही बतला है रगेगरदन कहाँ ?
खूब था सहरा, पर ऐ ज़ौके़-जुनूँ।
फाड़ने को नित नये दामन कहाँ ?

वो लज़्ज़ते-सितम का जो ख़ूगर समझ गये।
अब ज़ुल्म मुझपै है कि सितम गाह-गाह का॥
शीशे में मौजे-मय को यह क्या देखते हैं आप।
इसमें जवाब है उसी बर्के़- निगाह का॥

मेरी वहशत पै बहस-आराइयाँ अच्छी नहीं नासेह!
बहुत-से बाँध रक्खे हैं गरेबाँ मैंने दामन में॥
इलाही कौन समझे मेरी आशुफ़्ता मिज़ाजी को।
क़फ़स में चैन आता है, न राहत है नशेमन में॥

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