जिसमें कैफ़ेग़म नहीं, बाज़ आये ऐसे दिल से हम।
यह भी देना है कोई? मय तो न दी, साग़र दिया॥
‘आरज़ू’ इक रोज़ ढा देता मुझे मेरा ही ज़ोर।
यह भी उसकी कारसाज़ी दिल में जिसने डर दिया॥
एक दिल में ग़म ज़माने भर का, क्योंकर भर दिया।
ख़ूए-हमदर्दी ने कूज़े में समन्दर भर दिया॥
आँख थी साक़ी की जानिब, हाथ में जामेतिही।
मय तो किस्मत में कहाँ, अश्कों ने साग़र भर दिया॥
शनिवार, मार्च 13, 2010
जिसमें कैफ़ेग़म नहीं, बाज़ आये ऐसे दिल से हम
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