गुरुवार, फ़रवरी 18, 2010

हमेशा द्वंद्व का ठंडा बुखार ठीक नहीं

हमेशा द्वंद्व का ठंडा बुखार ठीक नहीं

मैं सोचता हूँ कि मन में गुबार ठीक नहीं


शिकार करने को जंगल भी कम नहीं होते

खुद अपने घर में ही छिप कर शिकार ठीक नहीं


कभी कुठार को खुद पे चला के देख जरा

हमेशा वृक्षों के तन पर कुठार ठीक नहीं


वे रोज़ रात को सो कर भी सो नहीं पाते

ये स्वप्न नींद के अंदर जगार ठीक नहीं


मैं जूझता हूँ सदा एकमुश्त आँधी से

अनेक किश्तों में आँधी पे वार ठीक नहीं


तुम्हारे बारे में, हम भी तो सोचते होंगे

स्वयं के मुँह से स्वयं का प्रचार ठीक नहीं

0 टिप्पणियाँ: