गुरुवार, फ़रवरी 18, 2010

गये दिनों का सुराग़ लेकर

गये दिनों का सुराग़ लेकर किधर से आया किधर गया वो
अजीब मानूस अजनबी था मुझे तो हैरान कर गया वो



ख़ुशी की रुत हो के ग़म का मौसम नज़र उसे ढूँढती है हर दम
वो बू-ए-गुल था के नग़्मा-ए-जान मेरे तो दिल में उतर गया वो



वो मयकदे को जगानेवाला वो रात की नींद उड़ानेवाला
न जाने क्या उस के जी में आई कि शाम होते ही घर गया वो



कुछ अब संभलने लगी है जाँ भी बदल चला रंग-ए-आस्माँ भी
जो रात भारी थी टल गई है जो दिन कड़ा था गुज़र गया वो



शिकस्त पा राह में खड़ा हूँ गये दिनों को बुला रहा हूँ
जो क़ाफ़िला मेरा हमसफ़र था मिस्ल-ए-गर्द-ए-सफ़र गया वो



बस एक मंज़िल है बुलहवस की हज़ार रास्ते हैं अहल-ए-दिल के
ये ही तो है फ़र्क़ मुझ में उस में गुज़र गया मैं ठहर गया वो



वो जिस के शाने पे हाथ रख कर सफ़र किया तूने मंज़िलों का
तेरी गली से न जाने क्यूँ आज सर झुकाये गुज़र गया वो



वो हिज्र कि रात का सितारा वो हमनफ़स हमसुख़न हमारा
सदा रहे उस का नाम प्यारा सुना है कल रात मर गया वो



बस एक मोती सी छब दिखाकर बस एक मीठी सी धुन सुना कर
सितारा-ए-शाम बन के आया बरंग-ए-ख़याल-ए-सहर गया वो



न अब वो यादों का चढ़ता दरिया न फ़ुर्सतों की उदास बरखा
यूँ ही ज़रा सी कसक है दिल में जो ज़ख़्म गहरा था भर गया वो



वो रात का बेनवा मुसाफ़िर वो तेरा शायर वो तेरा "नासिर"
तेरी गली तक तो हम ने देखा फिर न जाने किधर गया वो

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