सफ़र-ए-मन्ज़िल-ए-शब याद नहीं
लोग रुख़्सत हुये कब याद नहीं
दिल में हर वक़्त चुभन रहती थी
थी मुझे किस की तलब याद नहीं
वो सितारा थी के शबनम थी के फूल
इक सूरत थी अजब याद नहीं
ऐसा उलझा हूँ ग़म-ए-दुनिया में
एक भी ख़्वाब-ए-तरब याद नहीं
भूलते जाते हैं माज़ी के दयार
याद आयें भी तो सब याद नहीं
ये हक़ीक़त है के अहबाब को हम
याद ही कब थे के अब याद नहीं
याद है सैर-ए-चराग़ाँ "नासिर"
दी के बुझने का सबब याद नहीं
गुरुवार, फ़रवरी 18, 2010
सफ़र-ए-मन्ज़िल-ए-शब याद नहीं
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