शनिवार, मई 16, 2009

माँ / भाग 25 (बहू)

किसी भी मोड़ पर तुमसे वफ़ादारी नहीं होगी

हमें मालूम है तुमको ये बीमारी नहीं होगी


नीम का पेड़ था बरसात थी और झूला था

गाँव में गुज़रा ज़माना भी ग़ज़ल जैसा था


हम कुछ ऐसे तेरे दीदार में खो जाते हैं

जैसे बच्चे भरे बाज़ार में खो जाते हैं


तुझे अकेले पढ़ूँ कोई हम सबक न रहे

मैं चाहता हूँ कि तुझ पर किसी का हक़ न रहे


वो अपने काँधों पे कुन्बे का बोझ रखता है

इसी लिए तो क़दम सोच कर उठाता है


आँखें तो उसको घर से निकलने नहीं देतीं

आँसू हैं कि सामान—ए—सफ़र बाँधे हुए हैं


सफ़ेदी आ गई बालों में उसके

वो बाइज़्ज़त घराना चाहता था


न जाने कौन सी मजबूरियाँ परदेस लाई थीं

वह जितनी देर तक ज़िन्दा रहा घर याद करता था


तलाश करते हैं उनको ज़रूरतों वाले

कहाँ गये वो पुराने शराफ़तों वाले


वो ख़ुश है कि बाज़ार में गाली मुझे दे दी

मैं ख़ुश हूँ एहसान की क़ीमत निकल आई

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