मुखालिफ़ सफ़ भी ख़ुश होती है लोहा मान लेती है
ग़ज़ल का शेर अच्छा हो तो दुनिया मान लेती है
शरीफ़ औरत तो फूलों को भी गहना मान लेती है
मगर दुनिया इसे भी एक तमाशा मान लेती है
ये संसद है यहाँ आदाब थोड़े मुख़तलिफ़ होंगे
यहाँ जम्हूरियत झूठे को सच्चामान लेती है
फिर उसको मर के भी ख़ुद से जुदा होने नहीं देता
ये मिट्टी जब किसी को अपना बेटा मान लेती है
मुहब्बत करते जाओ बस यही सच्ची इबादत है
मुहब्बत माँ को भी मक्का-मदीना मान लेती है
अमीर-ए-शहर का रिश्ते में कोई कुछ नहीं लगता
ग़रीबी चाँद को भी अपना मामा मान लेती है
शनिवार, मई 16, 2009
मुख़ालिफ़ सफ़ भी ख़ुश होती है लोहा मान लेती है
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