शनिवार, मई 16, 2009

घरौंदे तोड़ कर साहिल से यूँ पानी पलटता है

घरौंदे तोड़ कर साहिल से यूँ पानी पलटता है
कि जैसे मुफ़लिसी से खेल कर ज़ानी पलटता है

किसी को देखकर रोते हुए हँसना नहीं अच्छा
ये वो आँसू हैं जिनसे तख़्त-ए-सुलतानी पलटता है


कहीं हम सरफ़रोशों को सलाख़ें रोक सकती हैं
कहो ज़िल्ले इलाही से कि ज़िन्दानी पलटता है

सिपाही मोर्चे से उम्र भर पीछे नहीं हटता
सियासतदाँ ज़बाँ दे कर बआसानी पलटता है

तुम्हारा ग़म लहू का एक-एक क़तरा निचोड़ेगा
हमेशा सूद लेकर ही ये अफ़ग़ानी पलटता है

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