जब से तेरे प्यार में पागल रहा हूं मैं।
शहर भर की तबसे हलचल रहा हूं मैं।
मेरी भाषा अब ये समंदर क्या जाने,
कि नदी में बहती हुई कल-कल रहा हूं मैं,
बर्फ हूं मेरे नाम से ठिठुरते हैं सभी,
पहाडों पर लेकिन बिछा कंबल रहा हूं मैं।
आग आरियां,तूफान, बारिश, साजिशें सब बौनी हुई,
लहलहाता हुआ मगर जंगल रहा हूं मैं।
होकर माला-माल शून्य कई लौट गए,
भूल गये कि उनका एक हासिल रहा हूं मैं।
डाकू तो रह रहे सब संसद की शरण में,
बस नाम का ही अब चंबल रहा हूं मैं।
शनिवार, मई 16, 2009
जब से तेरे प्यार में पागल रहा हूं मैं
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