कहाँ रोना है मुझको दीदा-ए-पुरनम समझता है
मैं मौसम को समझता हूँ मुझे मौसम समझता है
ज़बाँ दो चाहने वालों को शायद दूर कर देगी
मैं बँगला कम समझता हूँ वो उर्दू कम समझता है
हमारे हाल से सब चाहने वाले हैं नावाक़िफ़
मगर एक बेवफ़ा है जो हमारा ग़म समझता है
मुहब्बत करने वाला जान की परवा नहीं करता
वह अपने पाँव की ज़ंजीर को रेशम समझता है
कहाँ तक झील में पानी रहे आँखें समझती हैँ
कहाँ तक ज़ख़्म को भरना है यह मरहम समझता है
शनिवार, मई 16, 2009
कहाँ रोना है मुझको दीदा-ए-पुरनम समझता है
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