शनिवार, मई 16, 2009

तू कभी देख तो रोते हुए आकर मुझको

तू कभी देख तो रोते हुए आकर मुझको
रोकना पड़ता है आँखों से समुन्दर मुझको

इसमे आवारा मिज़ाजी का कोई दख़्ल नहीं
दश्त-ओ-सहरा में फिराता है मुक़द्दर मुझको

एक टूटी हुई कश्ती का मुसाफ़िर हूँ मैं
हाँ निगल जाएगा एक रोज़ समुन्दर मुझको

इससे बढ़कर मेरी तौहीन -ए-अना क्या होगी
अब गदागर भी समझते हैं गदागर मुझको

ज़ख़्म चेहरे पे, लहू आँखों में, सीना छलनी,
ज़िन्दगी अब तो ओढ़ा दे कोई चादर मुझको

मेरी आँखों को वो बीनाई अता कर मौला
एक आँसू भी नज़र आए समुन्दर मुझको

कोई इस बात को माने कि न माने लेकिन
चाँद लगता है तेरे माथे का झूमर मुझको

दुख तो ये है मेरा दुश्मन ही नहीं है कोई
ये मेरी भाई हैं कहते हैं जो बाबर मुझको

मुझसे आँगन का अँधेरा भी नहीं मिट पाया
और दुनिया है कि कहती है ‘मुनव्वर’ मुझको

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