शनिवार, मई 16, 2009

माँ / भाग 26 (बहू)

उसे जली हुई लाशें नज़र नहीं आतीं

मगर वो सूई से धागा गुज़ार देता है


वो पहरों बैठ कर तोते से बातें करता रहता है

चलो अच्छा है अब नज़रें बदलना सीख जायेगा


उसे हालात ने रोका मुझे मेरे मसाएल ने

वफ़ा की राह में दुश्वारियाँ दोनों तरफ़ से हैं


तुझसे बिछड़ा तो पसंद आ गई बेतरतीबी

इससे पहले मेरा कमरा भी ग़ज़ल जैसा था


कहाँ की हिजरतें, कैसा सफ़र, कैसा जुदा होना

किसी की चाह पैरों में दुपट्टा डाल देती है


ग़ज़ल वो सिन्फ़—ए—नाज़ुक़ है जिसे अपनी रफ़ाक़त से

वो महबूबा बना लेता है मैं बेटी बनाता हूँ


वो एक गुड़िया जो मेले में कल दुकान पे थी

दिनों की बात है पहले मेरे मकान पे थी


लड़कपन में किए वादे की क़ीमत कुछ नहीं होती

अँगूठी हाथ में रहती है मंगनी टूट जाती है


वि जिसके वास्ते परदेस जा रहा हूँ मैं

बिछड़ते वक़्त उसी की तरफ़ नहीं देखा.

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