लुटी-लुटी हैं सरहदें
धुआं - धुआं है आसमां
डरी - डरी हैं बस्तियां
डरा-डरा सा है समां
फूल दीखते नहीं किसी शजर पे
ज़ख्म उगे हैं हर शाख़ पे
ये कैसी जमीं है जहां
उगती हैं फसल के बदले गोलियाँ
डरी-डरी है .............
सहमी-सहमी सी है सबा
चाँद का भी रंग उड़ा
ये कौन लिए जा रहा है
मेरे शहर की रौशनियाँ
डरी- डरी हैं...........
धमकी , धमाके , लूट ,कत्ल ,अपहरण
है चारो ओर अम्नो-चैन की बर्बादियाँ
बेखौफ फिरते हैं आतताई लिए हाथों में खंजर
है मेरे हाथों में खूं से सनी रोटियाँ
डरी-डरी हैं.............
ज़र , ज़मीं , मज़हब, सिहासत , मस्लहत
इन मजहबों के झगड़े में
खुदा भी हुआ है लहू-लुहाँ
बता मैं कैसे मनाऊँ
ज़श्ने-आज़ादी ऐ 'हक़ीर '
रोता है दिल देख ...
उन लुटे घरों की तन्हाईयाँ
डरी- डरी हैं ............
लुटी-लुटी हैं ............!!!
गुरुवार, मार्च 11, 2010
धुआँ धुआँ है आसमाँ.....
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