गुरुवार, मार्च 11, 2010

धुआँ धुआँ है आसमाँ.....

लुटी-लुटी हैं सरहदें

धुआं - धुआं है आसमां

डरी - डरी हैं बस्तियां

डरा-डरा सा है समां


फूल दीखते नहीं किसी शजर पे

ज़ख्म उगे हैं हर शाख़ पे

ये कैसी जमीं है जहां

उगती हैं फसल के बदले गोलियाँ

डरी-डरी है .............


सहमी-सहमी सी है सबा

चाँद का भी रंग उड़ा

ये कौन लिए जा रहा है

मेरे शहर की रौशनियाँ

डरी- डरी हैं...........


धमकी , धमाके , लूट ,कत्ल ,अपहरण

है चारो ओर अम्नो-चैन की बर्बादियाँ

बेखौफ फिरते हैं आतताई लिए हाथों में खंजर

है मेरे हाथों में खूं से सनी रोटियाँ

डरी-डरी हैं.............


ज़र , ज़मीं , मज़हब, सिहासत , मस्लहत

इन मजहबों के झगड़े में

खुदा भी हुआ है लहू-लुहाँ

बता मैं कैसे मनाऊँ

ज़श्ने-आज़ादी ऐ 'हक़ीर '

रोता है दिल देख ...

उन लुटे घरों की तन्हाईयाँ

डरी- डरी हैं ............

लुटी-लुटी हैं ............!!!

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