गुरुवार, मार्च 11, 2010

काटने से पर

काटने से पर परिन्दों के समस्या हल न हो
देख तो इनके परों में फिर नया जंगल न हो

मैं पहाड़ो तक गया था दोस्तो ये देखने
घूमता प्यासा वहाँ मेरी तरह बादल न हो

तू जिसे आँसू समझकर हँस रहा है व्यर्थ में
देख तो उसके ज़िगर में जज़्ब गंगाजल न को

उसकी मुठ्ठी बन्द है अहसास पत्थर का न कर
क्या खबर उसमें कहीं इक छटपटाता पल न हो

हादसा जब हो चुका तो लाज़मी थीं चुप्पियाँ
क्योंकि शासन चाहता था शहर में हलचल न हो

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