आज फ़िर
रात के साये बहुत गहरे हैं
मन की तहों में छिपी
बेपनाह मोहब्बत ....
अपने आप को क़त्ल करती
खामोश हो गई है....
आँखें ....
एक गहरी साँस लेती हैं
इक खामोश आवाज़
कट कर गिरती है
पंखे से.....
रब्बा....!
मैं तुलसी के नीचे
जलते दीये सी पाक़
कितनी खोखली हो गई हूँ आज
कि अब ....
इन बनते- बिगड़ते लफ़्जों में
अपने ही जन्म का पल
बेमानी लगने लगा है ...
आह....!
न जाने क्यों यह परिंदा
रोता है रातों में ....
कहीं यह भी किसी वहशतजदा
रूह का कज़्फ़1 तो नहीं ....?
सामने कागज़ पर
मेरा कटा बाजू पड़ा है
और वहशत है कि क़र्ज़ख्वाह2 सी
चिखती रही सीढियों से .......
आज फ़िर शब्दों ने
अपने आप को
क़त्ल किया है ....
कुछ सच्चाइयां नग्न खडी थीं
पर वहशत ने यूँ परदा डाला
के बदन ....
हैरत की गठरी बन गया ...
ज़ज्बात ...
भीगते रहे बूंदों में
वजूद मिट्टी के बर्तन सा
तिड़कता गया
बस .....
दर्द मुस्काता रहा आंखों में
तसल्ली देता रहा
देख कलाइयों को
जहाँ लहू का एक कतरा
अपना तवाजुन3
खो बैठा था ....
वह तुम्हीं तो थे
जो दर्द में भी
तहजीब सिखलाते रहे थे जीने की
पर खुदा से दुआ मांगते वक्त
वह तेरा नाम ही था
जो गिर गया था
हाथों से ....!!!
1 कज़्फ़ - दुराचार का आरोप लगाना
2 कर्जख्वाह -ऋण इच्छुक
3 तवाजुन -संतुलन
गुरुवार, मार्च 11, 2010
वह तेरा ही नाम था जो गिर गया था हाथों से
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1 टिप्पणियाँ:
मगर
मन ही मन
ना जाने कितने
राज़ खोलती हैं"
ख़ामोशी की भाषा बहुत भायी - हार्दिक बधाई
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