गुरुवार, मार्च 11, 2010

गीत चिता के

मैंने तसब्‍बुर में तराशकर
रंगों से था इक बुत बनाया
मुकद्‌दर की चिंगारी इक दिन
उसमें आग लगा बैठी

न जाने उदासी का इक दरिया
कहाँ से कश्‍ती में आ बैठा
खा़मोशी में कैद नज़्म
आँखों से शबनम बहा बैठी

मेरी देह के कागचों को
ये किसने शाप दे दिया
न लिखी किसी ने गजल
मैं उम्र गँवा बैठी

झाड़ती रही जिस्‍म से
ताउम्र दर्द के जो पत्‍ते
उन्‍हीं पत्‍तों से मैं
घर अपना सजा बैठी

मौत को अपनी जिंदगी के
सुनहरे टुकडे़ देकर
गीत अपनी चिता के
मैं गा बैठी !

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