गुरुवार, मार्च 11, 2010

हथेली पे उगा सच.....

फ़िर एक गीला शब्द
हथेली पे
अकस्मात उग आया है
मुट्ठी में पिघलता यथार्थ
घुसपैठी लहरों से
सीपियों सा
टूटने लगा है
फरेबी बादल
उड़ेल देता है
ढेर सारी स्याही
आकाश में ......


मस्तिष्क
पिशाचनी के
पंजों में सा जकड़ा
कसमसा उठता है
समय की खोह में
कहीं गुम हुआ मन
दरारों भरे आईने से
कई - कई सूरतों में
बंटकर
उड़ाता है हंसीं ......


किसी
सूफियाना कलाम की
करुण आवाज़
गूंजती है कानों में
रात खिड़की पर खड़ी
बढ़ाती है हाथ
मैं चुपचाप शिकारे में
जा बैठती हूँ


बूढ़ा मल्लाह मुखातिब होता है
" कहाँ जाना है बीबी "
मैं हिम शिखरों की ओर
इशारा करती हूँ
शफ्फाक़ हवाएं
चीड़ की गंध लिए
मुझे हैरानी से
देखती हैं .....


तभी ......
मेरे भीतर का भंवर
छाती पर नली रख
गोली दाग देता है
सामने .....
सच खड़ा है
मुंह चिढ़ाता हुआ
और मैं राख़ हुई
पत्थर सी
जड़ हो जाती हूँ .......!!

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