तमाम रात मैं
अधमुंदी आंखों से
तारों की लौ में
टूटे शब्दों पर टंगी
अपनी नज़म
ढूंढती रही .....
मुस्कानों का खून कर
ज़िन्दगी भी जैसे
चलते - चलते
ख़ुद अपने ही कन्धों पर
सर रख
रो लेना चाहती है ....
मैंने
रात के आगोश में डूबते
सूरज से पुछा
चाँद तारों से पुछा
अंगडाई लेती
बहारों से पुछा
सभी ने
अंधेरे में रिस्ते
मेरे ज़ख्मों को
और कुरेदना चाहा ....
मैंने अधमुंदी पलकें
खोल दीं
गर्द का गुब्बार
झाड़ दिया
और अपनी
बिखरी नज्मों को
समेटकर
सीने से लगा लिया ....
यही तो है
मेरे दर्द की दवा
मैंने उन्हें चूमा
और अपने जिस्म का
सारा सुलगता लावा
उसमें भर दिया ....!!
गुरुवार, मार्च 11, 2010
दर्द की दवा........
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
0 टिप्पणियाँ:
एक टिप्पणी भेजें