गुरुवार, मार्च 11, 2010

अतीत का कोहरा ......

ख़राशीदा[1] शाम
कंदील रोशनी में
एहसास की धरती पर
उगाती है पौधे
कसैले बीजों के.....

वक्‍़त की इक आह
नहीं बन पायी कभी आकाश
ज़ब्‍त करती रही भावनाएं,
उत्‍तेजनाएं,अपना प्‍यार
और सौन्‍दर्य
इक तल्‍ख़[2]मुस्‍कान लिए.....

सपनो के चाँद पर
उड़ते रहे वहशी बादल
इक खुशनुमा रंगीन जी़स्‍त[3]
बिनती है बीज दर्‌द के
मन के पानी में
तैर जाती हैं कई ...
खुरदरी, पथरीली,नुकीली,
बदहवास,हताश
परछाइयाँ.....

आँखें अतीत का कोहरा लिए
छाँटती हैं अंधेरे
स्‍मृतियों की आकृति में
गढ़ उठते हैं
कई लंबे संवाद
कटु उक्‍तियाँ.....

कठोर वर्जनाएं
आँखों की बौछार में
मांगती हैं जवाब
प्रश्‍न लगाते हैं ठहाके
कानून उड़ने लगता है
पन्‍नों से.....

आदिम युग की रिवायतें[4]
स्‍त्री यंत्रणाएं
समाज की नीतियाँ
विद्रूपताएँ
वर्तमान युग में सन्‍निहित
मेरे भीतर की स्‍त्री को
झकझोर देती हैं...

जानती हूँ
आज की रात
फ़लक से उतर आया ये चाँद
फिर कई रातों तक
जगायेगा मुझे.....

शब्दार्थ:

↑ खरोंच लगी
↑ कटु
↑ जिंदगी
↑ परम्‍पराएं

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