गुरुवार, मार्च 11, 2010

इस दर्द को कैसे अलग करूँ.....

नहीं ......
इस बार मैं अपने चेहरे का दर्द
नहीं पिरोऊंगी शब्दों में
मैं आईने के पास आ खड़ी होती हूँ
और फिर जोर से हंस पड़ती हूँ
तुझे तो लोगों से सिर्फ सहानुभूति चाहिए
चेहरा पूछता है .....
क्या यही सच्चाई है ...?
तभी आईने में बचपन का एक
डरा , सहमा चेहरा उभर आता है
वह मासूम सी भयभीत खड़ी है
शायद तब वह बलात्कार जैसे शब्द से
परिचित नहीं थी .......
तभी वह शख्स पास आता है ....
देखो .... तुम किसी से कुछ नहीं कहोगी
नहीं कहोगी न....?

हाँ ...!
मैं किसी से कुछ नहीं कहूँगी
मुझे किसी से सहानुभूति नहीं चाहिए
मष्तिष्क में घटनाएँ तेजी से बदलने लगतीं हैं ....
आतिशबाजी ,शोर,धुआं ,चीख जैसे
एक साथ हजारों मिसाइलें सी चलने लगीं हों ....
आँखें खौफ से फ़ैल जाती हैं
एक कंपकंपी पूरे वजूद में सरसरा जाती है
अन्दर का सच नंगा होकर बाहर आना चाहता है
पर यह सब तो संस्कारों के खिलाफ हो जायेगा
ओह .....! ये संस्कार .....! !

सुनो.....
कमजोर और ज़ज्बाती मत बनो
अपने हक के लिए लड़ना सीखो
पर वह खुद जुल्म सहते - सहते
मौत से न लड़ पाई....
वह ब्रेन कैंसर मर गई ...

तभी वह जोर से चिल्लाई .....
हाँ ...मैं डायन हूँ ....
मैं सब को मार डालूंगी ....
खून पी जाउंगी सब का...
लोग उसे डायन कह कर पीट रहे थे
पर वह डायन नहीं थी
वह सदमें से पागल हो गई थी
उसका पति ...
रोज शराब पीकर उसी के सामने
एक नई औरत के साथ सोता था
विरोध किया तो डायन हो गई

मष्तिष्क में फिर अंधाधुंध
गोलियाँ सी चलने लगीं थीं
आँखों में दर्द नाच उठा
पुतलियाँ फ्रिज सी हो गयीं ....
धुआं-धुआं से दृश्य गुम होने लगे
सामने कुछ शब्द बिखरे पड़े थे
हजारों जालों में लिपटे
मैं साफ करने लगती हूँ ....
दीदी है ....
आग में जलती हुई ....
मैं चीखती हूँ, चिल्लाती हूँ , पूछती हूँ ...
' दीदी ऐसा क्यों किया...? '
पर वह मौन है , कुछ नहीं कहती
बिलकुल मौन ,पथराई आँखों में
मेरे सारे सवालों के जवाब बंद हैं

" शब्दों का हूनर " ,
" दर्द का ब्रांड "," संस्कार "
मुझे वो सारी टिप्पणियाँ
स्मरण हो आती हैं ......
सोचती हूँ ....
इस दर्द को ख़ुद से कैसे अलग करूँ
कैसे अलग करूँ ....!!

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