गुरुवार, मार्च 11, 2010

रब्बा! यह कैसा सच है तेरा.....

रब्बा !
यह कैसा इंसाफ है तेरा
आज जब एक सतायी हुई औरत
मुर्दा आंखों में
अन्तिम सांसें ले रही थी
तब भी तुम वहीं
ख़ामोश खड़े थे
उसकी देह की निचुड़ी दीवारें
अपने अन्दर
दफ़्न कर ले गईं थीं
वे सारे सवालात
जो अब मेरे सीने में
धधक रहे हैं

जानती हूँ ;
धीरे-धीरे कैसे टूटी थी वो
कई बार जब हम मिलते
मैं पूछती : "...कैसी हो तुम ? "
वह हंस देती "....जैसी तुम हो ! "
हम दोनों मुस्कुरा जातीं


मुखालिफ़* स्थितियों से लड़ना
परिस्थितियों से समझौता करना
जिसमें न जाने कितनी बार
धराशायी होकर गिरी थी वह
क्रूर झोंका जब भ्रम तोड़ता
उसकी किरचें
संभाले नहीं संभलती
हर क्षण उसके अन्दर
जैसे कुछ दरक जाता


ज़िन्दगी के
कितने ही पैने रूप
देखे थे उसने
नित छलनी कर देने वाली
भाषा के सलीबों पे चढ़ती
बड़ी बड़ी इमारतों सी
ढह जाती


रात भर

करवटें बदलती
पीड़ा से कराहती
आंखों में उगी वितृष्णा
रिक्तता , अकेलापन
उसे भीतर तक
खोखला कर जाता
एक गहरी अकूबत
सीने में भरभरा उठती


और इक दिन
हथियार डाल दिए थे उसने
उसने नहीं देह ने
कभी ज्वर
कभी थकावट
कभी सर दर्द
कभी उल्टी
कभी.......!
वह तिल- तिल कर
मिटने लगी


और फ़िर
एक दिन पता चला
उसे कैंसर है
ब्रेन कैंसर
वह भी अन्तिम स्टेज पर
वह खुश थी
बेहद खुश
उसकी उखड़ी सांसों में
इक सुकून सा घुल गया था


रब्बा !
औरत को दर्द देते वक्त
लोहे सी शक्ति
और फौलाद सा
दिल भी दिया कर
नहीं तो वह यूँ ही मग्लूब* हो
समिधा बन महाकुंड में
धुआं-धुआं सी
ज़बह होती रहेगीं ......!!

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