गुरुवार, मार्च 11, 2010

एक छप्पर भी नहीं है सर छिपाने के लिए

एक छप्पर भी नहीं है सर छिपाने के लिए
हम बने है दूसरों के घर बनाने के लिए

बन चुकी पूरी इमारत आपका कब्ज़ा हुआ
हम तरसते ही रहे बस आशियाने के लिए

जेब मे रखकर वो चेहरे को हमारे चल दिए
जानते है, जा रहे है फिर न आने के लिए

बिजलियाँ चमकें, गिरें, हमको नहीं परवाह अब
नींव तो रख जाएँगे हम आशियाने के लिए

उसने एक दीपक जलाया, ये भी तो कुछ कम नहीं
कुछ तो कोशिश की अन्धेरे को मिटाने के लिए

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