गुरुवार, मार्च 11, 2010

ख़त

यह ख़त,ख़त नहीं है तेरा
मेरी बरसों की तपस्‍या का फल है
बरसों पहले इक दिन
तारों से गर्म राख़ झडी़ थी
उस दिन
इक आग अमृता के सीने में लगी
और इक मेरे
जलते अक्षरों को
बरसों सीने से चिपकाये हम
कोरे कागज़ की सतरों को
शापमुक्‍त करती रहीं...

शायद
यह कागज़ के टुकडे़ न होते
तो दुनियाँ के कितने ही किस्‍से
हवा में यूँ ही बह जाते
और औरत
आँखों में दर्द का कफ़न ओढे़
चुपचाप
अर्थियों में सजती रहती...

इमरोज़
यह ख़त, ख़त नहीं है तेरा
देख मेरी इन आँखों में
इन आँखों में
मौत से पहले का वह सकूं है
जिसे बीस वर्षो से तलाशती मैं
जिंदगी को
अपने ही कंधों पर ढोती आई हूँ...


यह ख़त
उस पाक रूह से निकले अल्‍फाज़ हैं
जो मुहब्बत की खातिर
बरसों आग में तपी थी
आज तेरे इन लफ्‍जों के स्‍पर्श से
मैं रुई सी हल्‍की हो गई हूँ
देख ,मैंने आसमां की ओर
बाँहें फैला दी हैं
मैं उड़ने लगी हूँ
और वह देख
मेरी खुशी में
बादल भी छलक पडे़ हैं
मैं
बरसात में भीगी
कली से फूल बन गई हूँ
जैसे बीस बरस बाद अमृता
एक पाक रूह के स्‍पर्श से
कली से फूल बन गई थी...

इमरोज़!
तुमने कहा है-
कवि, कलाकार 'हकी़र' नहीं होते,
तुम तो खुद एक दुनियाँ हो,
शमां भी हो और रोशनी भी
तुम्‍हारे इन शब्‍दों ने आज मुझे
अर्थ दे दिया है
भले ही मैं सारी उम्र
आसमान पर
न लिख सकी
कि ज़िंदगी सुख भी है
पर आज धरती के
एक क़ब्र जितने टुकडे़ पर तो
लिख ही लूंगी
कि ज़िंदगी सुख भी थी

हाँ इमरोज़!

लो आज मैं कहती हूँ
ज़िंदगी सुख भी थी …

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