दस बरसों के फासले में
जिन्दगी बस अंगुलियाँ काटती रही
समूची दानवता
मेरे आंगन की मिट्टी में
गीत लिखती रही
और मैं
रेत में सरकते रिस्तों को
घूँट घूँट पीती रही
हम दोंनो की बीच की हवा का
यूँ अचानक खा़मोश हो जाना
और फिर दरारों में बदल जाना
मेरे लिए
कोई अनहोनी बात न थी
न मैं टूटी थी
बस एक और अध्याय
जुड गया था नज्म़ में
धुँए का एक गुब्बार सा उठा
और ज़हरीली परछाइयाँ सी छोड गया
पन्नों पर
कई बार हमारी बेबुनियादी बहस
मेरी सोच में पिसती रहती
देह में काँच की किरचें सी चुभती
न जाने कितने जख़्मों के पुल
मैं चुपचाप लाँघ जाती
एक अशुभ क्षण
स्मृतियों को
दहकती सलाखों सा साल जाता
जब बरसों पहले
हसीं गजरे के फूलों से रूठी थी
जब बरसों पहले
उम्र के गीतों में पैरहन लगे थे
मेरा सब्र कश्तियों में डूबने लगा था
मैं ऊँचे चबूतरे पे खडी
देर रात आसमां के
टूटते तारों में
किस्मत की लकीरें ढूंढा करती
और फिर थके कदमों से लौट
सडे-गले मुल्यों और मान्यताओं की
दीवारों में टूटते
घुंघरुओं को देखती रहती
हमारे बीच की हवा
तब भी खा़मोश थी
शायद तब मेरे लिए यह
अनहोनी बात थी
मेरे आंगन के दरख्तों के पत्ते
सूखकर झडने लगे थे
हवा सांसों में कराहती
जब बरसों पहले
हसीं गजरे के फूलों से रूठी थी
हमारे बीच की हवा
तब भी खा़मोश थी
शायद तब मेरे लिए यह
अनहोनी बात थी
मेरे आंगन के दरख्तों के पत्ते
सूखकर झडने लगे थे
हवा सांसों में कराहती
लफ्ज़ तालों में दम तोड देते
मैं रात गये चाँद को खत लिखती
सितारों से मोहब्बत की नेमतें माँगती
बादलों को सिसकती मिट्टी का वेरवा* देती
अक्षर बोलते मगर कलम खा़मोश रहती
दो बूंद लहू आँखों के रस्ते से चुपचाप
बह उठता,पर-
मौत पास आकर रूठ जाती
हमारे बीच की हवा
तब भी खा़मोश थी
और फिर इक दिन
तेज साँसों ने कसकर मेरा हाथ पकडा
और उतार ले गई थी सीढियाँ
मैं लाँघ आई थी दीवारें
कटघरे में खडी होकर
बँद मुठ्ठी खोल दी थी
बरसों के इतिहास में उस दिन तुम
पहली बार
मेरे लिए सुर्ख गुलाब लेकर आए थे
झुठ,फरेब और मक्कारी से सना
वह गुलाब, जिसमें तुम
अपने चेहरे का सारा खौ़फ
छिपा देना चाहते थे
कितना बेगैरत हो गया था उस दिन
मेरे लहू में क़हक़हे का
इक उबाल सा उठा
और ज़मीर ने
बगावत की कै कर दी
मैं अपनी होंद के
बचे हुए टुकडे समेटकर
जिस्म़ से रस्सियाँ खोलने लगी!
गुरुवार, मार्च 11, 2010
जख़्मों के दस्तावेज़
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