मानो तो ख़ुदा की इबादत का साज़ है नज़्म
बेबस खामोशी की आवाज है नज़्म
किसी कब्र में सिसकती मोहब्बत की निगार[1] है नज़्म
आशिकों की रूह से निकली पुकार है नज़्म
हवाओं का भी रुख मोड़ दे वो तूफ़ान है नज़्म
दिल में छुपे दर्द की ज़ुबान है नज़्म
बेंध दे सीना पत्थरों का वो औज़ार है नज़्म
शायर और आशिकों की मज़ार है नज़्म
चट्टानों पर लिखा इश्क का पैगाम है नज़्म
न भूले सदियों तक 'हकीर' वो इलहाम[2] है नज़्म
शब्दार्थ:
↑ प्रतिमा, मूर्ति
↑ देववाणी
गुरुवार, मार्च 11, 2010
मोहब्बत का निग़ार है नज़्म.....
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