झूठ की है कोठियाँ ही कोठियाँ
एक कमरा तक नहीं सच का यहाँ
और कितने दिन रुलाएँगी बता
आदमी की ज़ात को ये रोटियाँ
कौन कितना आसमाँ देखेगा अब
फ़ैसला इसका करेंगी खिड़कियाँ
बन्दरों ने बाँट ली दौलत सभी
देखती रह गई सब बिल्लियाँ
कुम मिलाकर ये मिला इस दौर में
भय, थकन, कुंठा, निराशा, सिसकियाँ
गुरुवार, मार्च 11, 2010
झूठ की है कोठियाँ ही कोठियाँ
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