गुरुवार, मार्च 11, 2010

तखरीव का बादल

कोलतार सी पसरी रात
उम्‍मीदों के लहू में लिथडी़
बुदबुदा के कहती है
कोई दो घूंट पीला दे
दर्द का जा़म

दबोच रहा है
जैसे कोई गला
खराशें पड़ने लगीं हैं
सासों में
पथराई आँखों में है यथावत
इक मर्माहत प्‍यास

सूखे गलों में
अटकी पडी़ हैं
अधजली आवाजें
विश्‍वासों की जमीं
खिसकने लगी है
आक्रोश में पनपे
जहर के अंगारे
थिरकने लगे हैं
बाँध घुंघरू पैरों में

लील गया है सन्‍नाटा
स्‍वभाविक स्‍वाद
शब्‍द अटके पडे़ हैं
अधरों में
अवसाद और प्रताड़ना की
कातिल अभिव्‍यक्‍ति
है सडा़ध सिसकते
शयनकक्षों में

खौ़फ और दहशत
है अपने साये की
जु़म्‍बिश का
फूलों की ख्‍वाहिशें
डूब गई हैं
गिरते बुर्जों में
तखरीव का बादल
बरस रहा है
दर्द की बूँद लिए.

१.तखरीव- विनाश

0 टिप्पणियाँ: