मंगलवार, मार्च 09, 2010

मौसम मेरे शहर का चालाक हो गया था

मौसम मेरे शहर का चालाक हो गया था
बादल ख़रीदकर वो बरसात बेचता था

जलते रहे जो शब भर फ़ानूस थे तुम्हारे
जो बुझ गया था मेरी दहलीज़ का दिया था

वो डायरी भी अब तो गुम हो गई है मुझसे
ऐ दोस्त,जिसमे तेरे घर का पता लिखा था

आकाश की थी हसरत उस गेंद को वो छू ले
नन्हा-सा एक बालक जिसको उछालता था

बारिश के वक़्त सारी बस्ती के लोग ख़ुश थे
काग़ज़ का शामियाना सहमा हुआ खड़ा था

जब लौट कर मैं आया तो हो चुका था गूँगा
पत्थर के देवता से हासिल भी क्या हुआ था.

1 टिप्पणियाँ:

sonal ने कहा…

वो डायरी भी अब तो गुम हो गई है मुझसे
ऐ दोस्त,जिसमे तेरे घर का पता लिखा था
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बहुत खूब अच्छी रचना