किसी ज़ईफ़ शहर की उदास छाया है
वो अपने गाँव से जिसको उठाके लाया है
हरेक मोड़ पे लगता है टोल-टैक्स यहाँ
कि इस शहर को किसी सेठ ने बसाया है
मुझे ये इल्म नहीं था कि रो पड़ेगा वो
जिसे हँसाने की कोशिश में गदगुदाया है
भटकता फिरता रहा राम भी तो जंगल में
कि ज़िदगी में यहाँ किसने चैन पाया है
वो एक अब्र जो रोता रहा मेरी छत पे
लगा कि कि दर्द का उत्सव मनाने आया है
ये बात मेरे पिता को ज़रा ख़राब लगी
कि मैंने घर से अलग-अलग घर बनाया है
मंगलवार, मार्च 09, 2010
किसी ज़ईफ़ शहर की उदास छाया है
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