मंगलवार, मार्च 09, 2010

छटपटाता हुआ धरती पे पड़ा हूँ लोगो

छटपटाता हुआ धरती पे पड़ा हूँ लोगो
अपनी औक़ात से कुछ ऊँचा उड़ा हूँ लोगो

कोई ग़फ़लत से मुझे ऊँचा समझ ले शायद
अजनबी शहर में दो दिन से खड़ा हूँ लोगो

मुझको ये ज़ीस्त भी लगती है अँगूठी जैसी
दर्द के नग की तरह इसमें जड़ा हूँ लोगो

आश्वासन का कभी इसमें भरा था पानी
अब तो मैं ख़ाली बहानों का घड़ा हूँ लोगो

कल जहाँ लाश जलाई गई नैतिकता की
उस समाधि पे दीया ले के खड़ा हूँ लोगो.

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