तेज़ चाकू कर लिए चमका के रख लीं लाठियाँ
धार्मिक उत्सव की सारी हो चुकी तैयारियाँ
लोग आएँगे तमाशा देखने ये सोच कर
उसने तपती रेत पे रख दी हैं ज़िन्दा मछलियाँ
तंगदस्ती के वो दिन भी क्या ग़ज़ब थे दोस्तो
भूख लगती जब मुझे तो माँ सुनाती लोरियाँ
मैंने तो उसके महज़ हालात पूछॆ दोस्तो,
उसने मेरे पास रख दीं आँसुओं की अर्ज़ियाँ
बाप की उँगली पकड़ कर गाँव जाता था कभी
याद आती हैं मुझे वो गर्मियों की छुट्टियाँ
ऐ गुज़िश्ता वक़्त तूने क्या नहीं बख़्शा मुझे
मुफ़लिसी, चश्मे का नम्बर, और कुछ तन्हाइयाँ
देख कर अँगूठियाँ वो रो पड़ा दूकान पर
हाथ उसके थे सलामत पर नहीं थीं उँगलियाँ
कर्ज़ की उम्मीद लेकर मैं गया था जिसके पास
फ़ीस-माफ़ी के लिए वो लिख रहा था अर्ज़ियाँ.
मंगलवार, मार्च 09, 2010
तेज़ चाकू कर लिए चमका के रख लीं लाठियाँ
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1 टिप्पणियाँ:
अभी तक पहुँचा क्यों नहीं था यहाँ तक, सोच कर अफसोस रहा हूँ !
खूबसूरत ब्लॉग ! आभार ।
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