मंगलवार, मार्च 09, 2010

लफ़्ज़ झूठे अदाकारियाँ ख़ूब थीं

लफ़्ज़ झूठे अदाकारियाँ ख़ूब थीं
हुक़्मरानों की अठखेलियाँ ख़ूब थीं

तूने पिंजरे में दीं मुझको आज़ादियाँ
ज़ीस्त ! तेरी मेहरबानियाँ खूब थीं

धूप के साथ करती रहीं दोस्ती
नासमझ बर्फ़ की सिल्लियाँ खूब थीं

मेरी आँखों के सपने चुराते रहे-
दोस्तों की हुनरमन्दियाँ ख़ूब थीं

बेतकल्लुफ़ कोई भी नहीं था वहाँ
हर किसी में शहरदारियाँ खूब थीं

जून में हमको शीशे के तम्बू मिले
बारिशों में फटी छतरियाँ ख़ूब थीं

तुम छुपाते रहे जिस्म के घाव को
इसलिए आपकी वर्दियाँ ख़ूब थीं .

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