दुख के सितम हज़ार मगर मुस्कुरा के देख
तू अपनी अज़मतों को ज़रा आज़मा के देख
शायद तुझे उड़ान की दे जाए दावतें-
इक दिन किसी उक़ाब को छत पर बुला के देख
तूने हथेलियों पे उठाए कई पहाड़
पानी पे जो हुबाब हैं इनको उठा के देख !
जब मैं हुआ उदास तो बच्चों ने यह कहा-
‘काग़ज़ की कश्तियाँ या घरोंदे बना के देख’
मैंने ये सब चराग़ हवा से जलाए हैं-
तूफ़ान ! तेरी ज़िद है तो इनको बुझा के देख !
मेरा तो है यक़ीन कि निकलेगी रोशनी-
आँसू को तू चराग की तरह जला के देख.
मंगलवार, मार्च 09, 2010
दुख के सितम हज़ार मगर मुस्कुरा के देख
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