मंगलवार, मार्च 09, 2010

घर बाहर निकलती आवाज़ें

घर बाहर निकलती आवाज़ें
वक़्त के साथ चलती आवाज़ें

सुबह से शाम तक वही मंज़र
सिर्फ़ कपड़े बदलती आवाज़ें

एक बूढ़ा -सा रेडियो घर में
खरखराती निकलती आवाज़ें

एक बच्चे की तरह बिस्तर पे
अल-सुबह आँख मलती आवाज़ें

धूप के डालकर कर नए जूते-
दिन की सड़कों पे चलती आवाज़ें

क्या पता चाँद कोई उतरा हो
मेरी छत पर टहलती आवाज़ें

आरती के दीये में बैठी हैं
प्रार्थनाओं की जलती आवाज़ें.

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