वो इक दरख़्त है दोपहर में झुलसता हुआ
खड़ा हुआ है नमस्कार फिर भी करता हुआ
मैं अपने आपसे आया हूँ इस तरह बाहर
कि जैसे चोर दबे-पाँव हो निकलता हुआ
वो आसमन का टूटा हुआ सितारा था
जो आ पड़ा है मेरी जेब में उछलता हुआ
मैं जा रहा हूँ हमेशा के वास्ते घर से
पता नहीं मुझे लगता है कुछ उजड़ता हुआ
वो कोई और नहीं दोस्तो अँधेरा है
दीयासिलाई जला कर खड़ा है हँसता हुआ..
मंगलवार, मार्च 09, 2010
वो इक दरख़्त है दोपहर में झुलसता हुआ
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