जो उसके हाथ मैं टूट जाता
वो पलकों से मेरी किरचें उठाता
अगर मुझमें कोई होता समन्दर
तो फिर मैं कश्तियों के घर बनाता
अदावत से तो क्या होना था हासिल
मुझे तू दोस्त बन के आज़माता
खड़ा हूँ साइकिल लेके पुरानी -
नए बाज़ार में डरता-डराता
मुझे तू देखके हँसता न बेशक
मिला तो था ज़रा-सा मुस्कुराता
जो होती ज़िन्दगी ख़ामोश कमरा
तो मैं आवाज़ के बूटे उगाता.
मंगलवार, मार्च 09, 2010
जो उसके हाथ मैं टूट जाता
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