मंगलवार, मार्च 09, 2010

दोस्तो ! अब मुझे इस बात का डर लगता है

दोस्तो ! अब मुझे इस बात का डर लगता है
किसी दुकान की तरह मेरा घर लगता है

वो अगर जुगनू छुपाता तो तो न होता बेचैन
मुझको उस शख़्स कि मुठ्ठी में शरर लगता है

जान-पहचान नहीं मेरी यहाँ पर फिर भी
आपका शहर मुझे अपना शहर लगता है

इस तरफ़ आप चले आए न जाने कैसे-
अब तो मेला भी बहुत दूर, उधर लगता है

सबके अन्दर हैं कई वक़्त की मारी चीज़ें
म्यूज़ियम की तरह हर एक बशर लगता है

रेलगाड़ी भी नहीं जाती है इसके आगे
दोस्तो! अब तो मेरा ख़त्म सफ़र लगता है !

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