गुरुवार, मार्च 11, 2010

कब किधर जाती है रात

रफ़्ता-रफ़्ता द्वार से यों ही गुज़र जाती है रात
मैंने देखा झील पर जाकर बिखर जाती है रात।

मैं मिलूँगा कल सुबह इस रात से जाकर ज़रूर
जानता हूँ बन-सँवर कर कब किधर जाती है रात।

हर कदम पर तीरगी है, हर तरफ़ एक शोर है
हर सुबह एकाध रहबर कत्ल कर जाती है रात।

जैसे बिल्ली चुपके-चुपके सीढ़ियाँ उतरे कहीं
आसमाँ से ज़िंदगी में यों उतर जाती है रात।

एक चिड़िया कुछ दिनों से पूछती है 'अश्वघोष'
सिर्फ़ इक आहट को सुनके क्यों सिहर जाती है रात।

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