एक पागल भीड़ के हिंसक स्वरों के बीच
फँस गया है काँच का घर पत्थरों के बीच
दिन दिहाड़े रेप, हत्या, रहजनी , डाके
हादसा है जिन्दगी इन मंजरों के बीच
है बहुत मशहूर बन्दर-बाँट रोटी की
आप कैसे फँस गए इन बन्दरों के बीच !
हाँ सियासत रोज ही पंछी उड़ाती है
किन्तु रख देती है टाइम-बम परों के बीच
लोग कपड़े की तरह बुनने लगे गज़लें
क्योंकि गजलें आ फँसी हैं बुनकरों के बीच
शनिवार, फ़रवरी 20, 2010
एक पागल भीड़ के हिंसक स्वरों के बीच
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