लोग सन्देह करते रहे
कल्पनाओं में मरते रहे
झंडा-बरदार के हाथ में
झंडा बनकर फहरते रहे
दौड़ना उनको आया नहीं
हर क़दम पर ठहरते रहे
रोज महफ़िल सजाते हुए
रिक्तत्ताओं को भरते रहे
जिसको छू भी न पाए कभी
उसको सपनों में वरते रहे
दरपनों से डरे भे बहुत
दर्पनों से सँवरते रहे
उम्र भर उस कथा प्रेत-से
बाँस चढ़ते-उतरते रहे
शनिवार, फ़रवरी 20, 2010
लोग सन्देह करते रहे
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