हिरनी को जब याद सताती है अपने मृग-छौने की
एक हूक-उठती है तब आँसू से मुँह धोने की
क्या देंगे सम्मान उसे वो जो उपहास उड़ाते हैं
औसत क़द वालों ने कब पीड़ा समझी है बौने की
अँधियारा घिरते ही वो तन की दूकान सजाती है
इसीलिए वो बाट जोहती है अंधियारा होने की
और कब तलक मन के अन्दर पीड़ा रख कर मुस्काएँ
कभी-कभी इच्छा होने लगती है खुल कर रोने की
जीवन है अनमोल इसे उत्साह सहित जीना सीखें
आप आदमी हो कर भी बातें करते हैं ढोने की
थक कर चूर बदन को पत्थर का बिस्तर भी काफ़ी है
वर्ना सिलवट भी चुभने लगती है नर्म बिछौने की
बात ज़रा-सी है लेकिन इसपर विचार आवश्यक है
जगमग कमरे ने कब चिन्ता की अँधियारे कोने की
शनिवार, फ़रवरी 20, 2010
हिरनी को जब याद सताती है अपने मृग-छौने की
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