मैं कभी उड़ता नहीं था ‘पर’ लगा
वो विचारों से बहुत संकीर्ण था
साँस लेना भी वहाँ दूभर लगा
हाथ में उसके नहीं जादू कोई
वो मुझे बातों का जादूगर लगा
जिसकी छत ने मुझको अपनापन दिया
वो अपरचित घर भी अपना घर लगा
मैं कभी उसको समझ पाया नहीं
वो कभी धरती कभी अंबर लगा
वर्ना तेरी बात ख़ाली जाएगी
कोई बंधन मत हवाओं पर लगा
याद आया वो कमल का फूल है
जल में रह कर, जल से ऊपर लगा
शनिवार, फ़रवरी 20, 2010
ख़ूबसूरत ‘तितलियों’ से डर लगा
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