अगर आप चाहते है कि आपका बच्चा सचिन तेंदुलकर जैसा बल्लेबाज बने या शाहरुख़ खान जैसा अभिनेता बने या फिर अब्दुल कलम जैसा जीनियस साइंटिस्ट, तो अब ये सब संभव है| अब आप अपने बच्चों का भविष्य अपने हाथों से लिख सकते है। आप जैसा चाहें वैसा बच्चा पैदा कर सकते हैं| वैसे तो सुनने में ये नामुमकिन लगता है लेकिन गांधीनगर में शुरू हुई super child university के प्रयास ने इस नामुमकिन को मुमकिन करने की ठान ली है|
एक समय था जब माता पिता अपने बच्चों को उत्तम शिक्षा देकर उन्हें कामयाबी के शिखर पर पहुचांने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ते थे, लेकिन अब गांधीनगर की एक संस्था नवपरिणित युगलों को जन्म से ही सुपर चाइल्ड देने का वादा कर रही है | पश्चिम में सुप्रजनन शास्त्र ( यूजेनिक्स ) की शुरुआत अठारवीं सदी में हुई थी। भारत में सुप्रजनन के सिद्धांत प्राचीन काल से अस्तित्व में थे | इसकी जानकारी धर्म शास्त्र , काम शास्त्र और आयुर्वेद में मिलती है। भारत में सुप्रजनन शास्त्र को अखंड एवं स्वतंत्र शास्त्र के रूप में आज तक विकसित नहीं किया गया है |
ये तो सबको पता है कि अभिमन्यु ने अपनी माता के पेट में ही कृष्ण से ज्ञान ग्रहण किया था और महाभारत के युद्ध के समय अपने मामा से लिए इसी ज्ञान के आधार पर चक्रव्यूह का भेदन किया था | इस बात को हमने सिर्फ कहानी का किस्सा समझा था लेकिन ये सत्य है कि भारत में प्राचीन काल में गर्भ विज्ञान विकसित था। उस समय भारत समग्र विश्व में जगतगुरु के रूप में स्थापित था | लेकिन समय के चलते भारत में सुप्रजनन विद्या विस्मृत हो गयी और आज लगभग सब उसे भुला चुके हैं |
सुप्रजनन वह शास्त्र है , जिस पर यदि संपूर्ण ध्यान दिया जाए तो भारत में पुनः स्वर्णयुग प्रारंभ हो सकता है | इस शास्त्र में इतनी जबरदस्त संभावनाए है कि आगामी बीस सालों में ये समग्र भारत की कायापलट कर सकता है | गांधीनगर स्थित विश्व कल्याण संस्था ने maharshee prahlad super child university की स्थापना कर ऐसा ही एक प्रयास किया है | आज के जमाने में बच्चों को जन्म के बाद ही शिक्षा दी जाती है लेकिन super child university में नवविवाहित जोड़े की शादी के तुंरत बाद ही सुपर चाइल्ड पाने के लिए ट्रेनिंग दी जाती है | यहां दी जाने वाली ये ट्रेनिंग प्राचीन भारतीय ज्ञान और आधुनिक विज्ञान के आधार पर दी जाती है |
इस संस्था के शुरू होने से पहेले Charak sahita, Shrushut sahita, Astang Hriday और अन्य Ayurvedic साहित्य और latest genetic science का गहन अध्ययन किया गया है | यहां दी जाने वाली ट्रेनिंग प्राचीन भारतीय ज्ञान और आधुनिक विज्ञान के आधार पर दी जाती है। जिससे अगर एक couple चाहे तो एक असाधारण गुणों के साथ कोई बच्चा दुनिया में आ सकता है |
यहां पर नवदम्पतियों को श्रेष्ठ बालक प्राप्त करने के लिए गर्भाधान से पहले ,गर्भाधान के दौरान और संतान प्राप्ति के बाद ऐसे तीन हिस्सों में विशिष्ट पद्धति से प्रशिक्षित किया जाता है | सुपर चाइल्ड के इच्छुक जोडों को संस्था में एक हफ्ते के लिए रहना पड़ता है। पहले उनसे पूछा जाता है कि वो किस तरह का बच्चा चाहते है ,उसके बाद उन्हें आगे बढ़ने के लिए मार्गदर्शन दिया जाता है| एक हफ्ते के दौरान दी गई ट्रेनिंग के मुताबिक घर जाकर प्रैक्टिस करनी पड़ती है | गर्भ रहने के कुछ समय बाद फिर उन्हें यहां एक हफ्ते के लिए बुलाया जाता है और माता के गर्भ में शिशु को किस तरह की शिक्षा देना चाहिए उसकी ट्रेनिंग दी जाती है| ये पता है कि कि गर्भ में शिशु बाहरी दुनिया का ज्ञान लेने के लिए ग्रहणशील होता है और वो अपने आप सीखना शुरू कर देता है, इसलिए यहां पर इन जोडों को गर्भावस्था के दौरान बच्चे को ज्ञान देना जारी रखने के लिए कहा जाता है | बच्चे के जन्म के बाद तय उम्र पर उसके सर्वांगी विकास के लिए classes ली जाती है |
साथ ही इस isntitute में Genome Development and Research Centre (GDRC) को भी डेवलप किया जा रहा है जहाँ couples का सुपर चाइल्ड देने के उदेश्य से संशोधन किया जायेगा | यहां पर निर्मित लेटेस्ट जेनेटिक लैब पुरुष बिज तथा स्त्री बिज में निहित अशुद्धियों ,अवगुणों और अपूर्णताओं को दूर कर अतिशुद्ध ,परिशुद्ध पुरुष बिज एवं स्त्री बिज बनाएगी जिससे नव दंपति वैज्ञानिक पद्धति से श्रेष्ठ संतान प्राप्त कर सके | तो दूसरी तरफ नवदम्पतियों के लिए अद्यतन आश्रम का भी निर्माण किया जा रहा है |
हर कोई चाहता है की उनका बच्चा सुपर चाइल्ड हो , और यहां पर एक हफ्ते तक ट्रेनिंग ले चुके लोगों को लगता है कि उनका बच्चा सुपर चाइल्ड होगा | हालांकि इस इंस्टिट्यूट के शुरू होने से पहले शायद उन्हें ये संभव नहीं लगता था | यहां उन्हें सिखाया जाता है कि अगर वो एक सुपर चाइल्ड चाहते हैं तो उन्हें दैनिक जीवन में क्या बदलाव लाने होंगे , उन्हें क्या खाना चाहिए , क्या पीना चाहिए, यहाँ तक कि उन्हें क्या सोचना चाहिए|
super child university का ये प्रयास अगर सफल रहा तो हो सकता है की अगले कुछ सालों में भारत अमेरिका और जापान से भी आगे निकल जाएगा। हर माता पिता अपनी इच्छा के अनुसार सुपर चाइल्ड को जन्म दे पाएंगे| महाभारत ,रामायण जैसे पौराणिक महाकाव्यों या ऐतिहासिक ग्रंथो और कहानियों में सुने और पढ़े हुए किस्से अब सच बनकर सामने आएंगे। कुंती की तरह अब हर मां अपनी इच्छा के अनुसार एक सुपर चाइल्ड को जन्म दे पाएगी |
--
शनिवार, दिसंबर 05, 2009
भारत में 'सुपर चाइल्ड यूनिवर्सिटी' सचिन, शाह रुख़, कलाम जैसे बच्चे पैदा करें...
अगर ऐसे ही रहे तो हम नहीं "चोर होंगे कामयाब"
क्या ये मुमकिन है कि कोई आदमी ATM मशीन से पैसे चोरी का ले और किसी को पता तक न चले , शायद किसी भी नजरिये से नहीं, लेकिन इस नामुमकिन काम को अहमदाबाद के एक चोर ने मुमकिन कर दिखाया | उसकी चोरी ने latest technology और सिक्योरिटी के इन्तजाम को chalange किया। स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया की ATM से 9 लाख 18 हजार रुपये की चोरी हो गई और बैंक को इसका पता तक नहीं। उस शक्श के बारे में बैंक के पास कोई जानकारी भी नहीं मिली। मिलती भी कैसे ATM में लगा CCTV कैमरा जो छ: महीने से बंद था|चोरी के बारे में तब पता चला जब इस ATM मशीन का बैलेंस शून्य दिखने लगा लेकिन तब तक चोर क्यों रुकता, वो तो कब का फरार हो चुका था| ATM में लगे सिक्योरिटी इन्तजाम से बैंक प्रशासन अक्सर रिलेक्स हो जाता है लेकिन जब सिक्योरिटी सिस्टम बिगड़ गया तो उसकी ओर किसी का ध्यान नहीं गया।इसी का फायदा उठाकर हादसों को अंजाम देकर चोर आसानी से फरार हो गया।
तहकीकात कर रही पुलिस टीम ने चोरी में STAFFER की मिलीभगत बताया। ATM से पैसे निकालना किसी आम आदमी के लिए मुमकिन नहीं है| अगर कोई मशीन खोल भी ले तो पैसे नहीं निकाल सकता|मशीन में पैसे फीड करने या निकाले जाने का तरीका पूरी तरह से पासवर्ड प्रोटेक्टेड होता है | एक PETICULAR कंपनी को पैसे फीड करने का CONTRACT दिया जाता है। इस कम्पनी के आदमी जब ATM मशीन में पैसे फीड करने जाते है तब उस बैंक के हेड ऑफिस को इस बात की जानकारी रहती है | ATM से सिक्योरिटी कम्पनी का मैनेजर पासवर्ड डालता है और उसके बाद हेड ऑफिस में बैठा हुआ मैनेजर पासवर्ड एंटर करता है। इन दोनों पासवर्ड की मैचिंग से ही मशीन का वो हिस्सा खुलता है जहां पर पैसे रखे जाते है |
इस पूरी घटना ने पुलिस और बैंक दोनों को चैलेंज किया है क्योंकि चोरी के समय वहां लोगों की आवाजाही जारी थी। WEEKEND होने की वजह से ज्यादा TRAFFIC भी था| पुलिस का कहना है कि चोरी का सच तो पुलिस जांच और चोर के पकडे जाने के बाद ही पता चल पायेगा लेकिन हकीकत यही है कि अगर हमारी सुरक्षा व्यवस्था और प्रशासन ऐसे ही काम करता रहा तो हम नहीं "चोर होंगे कामयाब"
बुधवार, नवंबर 25, 2009
भोलाराम का जीव - हरिशंकर परसाई
ऐसा कभी नहीं हुआ था।
धर्मराज लाखों वर्षो से असंख्य आदमियों को कर्म और सिफारिश के आधार पर स्वर्ग और नरक में निवास-स्थान अलाट करते आ रहे थे। पर ऐसा कभी नहीं हुआ था।
सामने बैठे चित्रगुप्त बार-बार चश्मा पोंछ, बार-बार थूक से पन्ने पलट, रजिस्टर देख रहे थे। गलती पकड में ही नहीं आरही थी। आखिर उन्होंने खीझकर रजिस्टर इतनी ज़ोरों से बन्द किया कि मख्खी चपेट में आगई। उसे निकालते हुए वे बोले, ''महाराज, रिकार्ड सब ठीक है। भोलाराम के जीव ने पांच दिन पहले देह त्यागी और यमदूत के साथ इस लोक के लिए रवाना हुआ, पर अभी तक यहां नहीं पहुंचा।''
धर्मराज ने पूछा, ''और वह दूत कहां है?''
''महाराज, वह भी लापता है।''
इसी समय द्वार खुले और एक यमदूत बडा बदहवास-सा वहां आया। उसका मौलिक कुरूप चेहरा परिश्रम, परेशानी और भय के कारण और भी विकृत होगया था। उसे देखते ही चित्रगुप्त चिल्ला उठे, ''अरे तू कहां रहा इतने दिन? भोलाराम का जीव कहां है?''
यमदूत हाथ जोडक़र बोला, ''दयानिधान, मैं कैसे बतलाऊं कि क्या हो गया। आज तक मैने धोखा नहीं खाया था, पर इस बार भोलाराम का जीव मुझे चकमा दे गया। पांच दिन पहले जब जीव ने भोलाराम की देह को त्यागा, तब मैंने उसे पकडा और इस लोक की यात्रा आरम्भ की। नगर के बाहर ज्योंही मैं इसे लेकर एक तीव्र वायु-तरंग पर सवार हुआ त्योंही वह मेरे चंगुल से छूटकर न जाने कहां गायब होगया। इन पांच दिनों में मैने सारा ब्रह्यांड छान डाला, पर उसका पता नहीं चला।''
धर्मराज क्रोध से बोले, ''मूर्ख, जीवों को लाते-लाते बूडा हो गया, फिर एक मामूली आदमी ने चकमा दे दिया।''
दूत ने सिर झुकाकर कहा, ''महाराज, मेरी सावधानी में बिलकुल कसर नहीं थी। मेरे अभ्यस्त हाथों से अच्छे-अच्छे वकील भी नहीं छूट सके, पर इस बार तो कोई इन्द्रजाल ही हो गया।''
चित्रगुप्त ने कहा, ''महाराज, आजकल पृथ्वी पर इसका व्यापार बहुत चला है। लोग दोस्तों को फल भेजते है, और वे रास्ते में ही रेलवे वाले उडा देते हैं। होज़री के पार्सलों के मोज़े रेलवे आफिसर पहनते हैं। मालगाडी क़े डब्बे के डब्बे रास्ते में कट जाते हैं। एक बात और हो रही है। राजनैतिक दलों के नेता विरोधी नेता को उडा कर कहीं बन्द कर देते हैं। कहीं भोलाराम के जीव को भी किसी विरोधी ने, मरने के बाद, खराबी करने के लिए नहीं उडा दिया?''
धर्मराज ने व्यंग्य से चित्रगुप्त की ओर देखते हुए कहा, ''तुम्हारी भी रिटायर होने की उम्र आ गई। भला, भोलाराम जैसे दीन आदमी को किसी से क्या लेना-देना?''
इसी समय कहीं से घूमते-घामते नारद मुनि वहां आ गए। धर्मराज को गुमसुम बैठे देख बोले, ''क्यों धर्मराज, कैसे चिंतित बेठे हैं? क्या नरक में निवास-स्थान की समस्या अभी हल नहीं हुई?''
धर्मराज ने कहा, ''वह समस्या तो कभी की हल हो गई। नरक में पिछले सालों से बडे ग़ुणी कारीगर आ गए हैं। कई इमारतों के ठेकेदार हैं, जिन्होंने पूरे पैसे लेकर रद्दी इमारतें बनाई। बडे-बडे इंजीनियर भी आ गए हैं जिन्होंने ठेकेदारों से मिलकर भारत की पंचवर्षीय योजनाओं का पैसा खाया। ओवरसीयर हैं, जिन्होंने उन मज़दूरों की हाज़री भरकर पैसा हडपा, जो कभी काम पर गए ही नहीं। इन्होंने बहुत जल्दी नरक में कई इमारतें तान दी हैं। वह समस्या तो हल हो गई, पर एक विकट उलझन आगई है। भोलाराम के नाम के आदमी की पांच दिन पहले मृत्यु हुई। उसके जीव को यमदूत यहां ला रहा था, कि जीव इसे रास्ते में चकमा देकर भाग गया। इसने सारा ब्रह्यांड छान डाला, पर वह कहीं नहीं मिला। अगर ऐसा होने लगा, तो पाप-पुण्य का भेद ही मिट जाएगा।''
नारद ने पूछा, ''उस पर इनकम टैक्स तो बकाया नहीं था? हो सकता है, उन लोगों ने उसे रोक लिया हो।''
चित्रगुप्त ने कहा, ''इनकम होती तो टैक्स होता। भुखमरा था।''
नारद बोले, ''मामला बडा दिलचस्प है। अच्छा, मुझे उसका नाम, पता बतलाओ। मैं पृथ्वी पर जाता हूं।''
चित्रगुप्त ने रजिस्टर देखकर बतलाया - ''भोलाराम नाम था उसका। जबलपुर शहर के घमापुर मुहल्ले में नाले के किनारे एक डेढ क़मरे के टूटे-फूटे मकान पर वह परिवार समेत रहता था। उसकी एक स्त्री थी, दो लडक़े और एक लडक़ी। उम्र लगभग 60 वर्ष। सरकारी नौकर था। पांच साल पहले रिटायर हो गया था, मकान का उस ने एक साल से किराया नहीं दिया था इसलिए मकान-मालिक उसे निकालना चाहता था। इतने मे भोलाराम ने संसार ही छोड दिया। आज पांचवां दिन है। बहुत संभव है कि, अगर मकान-मालिक वास्तविक मकान-मालिक है, तो उसने भोलाराम के मरते ही, उसके परिवार को निकाल दिया होगा। इसलिए आपको परिवार की तलाश में घूमना होगा।''
मां बेटी के सम्मिलित क्रंदन से ही नारद भोलाराम का मकान पहिचान गए।
द्वार पर जाकर उन्होंने आवाज़ लगाई, ''नारायण नारायण !'' लडक़ी ने देखकर कहा, ''आगे जाओ महाराज।''
नारद ने कहा, ''मुझे भिक्षा नहीं चाहिए, मुझे भोलाराम के बारे में कुछ पूछताछ करनी है। अपनी मां को ज़रा बाहर भेजो बेटी।''
भोलाराम की पत्नी बाहर आई। नारद ने कहा, ''माता, भोलाराम को क्या बिमारी थी?
''क्या बताऊं? गरीबी की बिमारी थी। पांच साल हो गए पैन्शन पर बैठे थे, पर पेन्शन अभी तक नहीं मिली। हर 10-15 दिन में दरख्वास्त देते थे, पर वहां से जवाब नहीं आता था और आता तो यही कि तुम्हारी पेन्शन के मामले पर विचार हो रहा है। इन पांच सालों में सब गहने बेचकर हम लोग खा गए। फिर बर्तन बिके। अब कुछ नहीं बचा। फाके होने लगे थे। चिन्ता मे घुलते-घुलते और भूखे मरते-मरते उन्होंने दम तोड दिया।''
नारद ने कहा, ''क्या करोगी मां? उनकी इतनी ही उम्र थी।''
''ऐसा मत कहो, महाराज। उम्र तो बहुत थी। 50-60 रूपया महीना पेन्शन मिलती तो कुछ और काम कहीं करके गुज़ारा हो जाता। पर क्या करें? पांच साल नौकरी से बैठे हो गए और अभी तक एक कौडी नहीं मिली।''
दुख की कथा सुनने की फुरसत नारद को थी नहीं। वे अपने मुद्दे पर आए, ''मां, यह बताओ कि यहां किसी से उनका विषेश प्रेम था, जिसमें उनका जी लगा हो?''
पत्नी बोली, ''लगाव तो महाराज, बाल-बच्चों से होता है।''
''नहीं, परिवार के बाहर भी हो सकता है। मेरा मतलब है, कोई स्त्री?''
स्त्री ने गुर्राकर नारद की ओर देखा। बोली, ''बको मत महाराज ! साधु हो, कोई लुच्चे-लफंगे नहीं हो। जिन्दगी भर उन्होंने किसी दूसरी स्त्री को आंख उठाकर नहीं देखा।''
नारद हंस कर बोले, ''हां, तुम्हारा सोचना भी ठीक है। यही भ्रम अच्छी गृहस्थी का आधार है। अच्छा माता, मैं चला।'' व्यंग्य समझने की असमर्थता ने नारद को सती के क्रोध की ज्वाला ने बचा लिया।
स्त्री ने कहा, ''महाराज, आप तो साधु हैं, सिध्द पुरूष हैं। कुछ ऐसा नहीं कर सकते कि उनकी रूकी पेन्शन मिल जाय। इन बच्चों का पेट कुछ दिन भर जाए?''
नारद को दया आ गई। वे कहने लगे, ''साधुओं की बात कौन मानता है? मेरा यहां कोई मठ तो है नहीं? फिर भी सरकारी दफ्तर में जाऊंगा और कोशिश करूंगा।''
वहां से चलकर नारद सरकारी दफ्तर में पहुंचे। वहां पहले कमरे में बैठे बाबू से भोलाराम के केस के बारे में बातें की। उस बाबू ने उन्हें ध्यानपूर्वक देखा और बोला, ''भोलाराम ने दरखास्तें तो भेजी थीं, पर उनपर वज़न नहीं रखा था, इसलिए कहीं उड ग़ई होंगी।''
नारद ने कहा, ''भई, ये पेपरवेट तो रखे हैं, इन्हें क्यों नहीं रख दिया?''
बाबू हंसा, ''आप साधु हैं, आपको दुनियादारी समझ में नहीं आती। दरखास्तें पेपरवेट से नहीं दबती। खैर, आप उस कमरे में बैठे बाबू से मिलिए।''
नारद उस बाबू के पास गये। उसने तीसरे के पास भेजा, चौथे ने पांचवें के पास। जब नारद 25-30 बाबुओं और अफसरों के पास घूम आए तब एक चपरासी ने कहा, '' महाराज, आप क्यों इस झंझट में पड ग़ए। आप यहां साल-भर भी चक्कर लगाते रहें, तो भी काम नहीं होगा। आप तो सीधा बडे साहब से मिलिए। उन्हें खुश कर लिया, तो अभी काम हो जाएगा।''
नारद बडे साहब के कमरे में पहुंचे। बाहर चपरासी ऊंघ रहे थे, इसलिए उन्हें किसी ने छेडा नहीं। उन्हें एकदम विजिटिंग कार्ड के बिना आया देख साहब बडे नाराज़ हुए।बोले, इसे कोई मन्दिर-वन्दिर समझ लिया है क्या? धडधडाते चले आए ! चिट क्यों नहीं भेजी?''
नारद ने कहा, ''कैसे भेजता, चपरासी सो रहा है।''
''क्या काम है?'' साहब ने रौब से पूछा।
नारद ने भोलाराम का पेन्शन-केस बतलाया।
साहब बोले, ''आप हैं बैरागी। दफ्तरों के रीत-रिवाज नहीं जानते। असल मे भोलाराम ने गलती की। भई, यह भी मन्दिर है। यहां भी दान-पुण्य करना पडता है, भेंट चढानी पडती है। आप भोलाराम के आत्मीय मालूम होते हैं। भोलाराम की दरख्वास्तें उड रही हैं, उन पर वज़न रखिए।''
नारद ने सोचा कि फिर यहां वज़न की समस्या खडी हो गई। साहब बोले, ''भई, सरकारी पैसे का मामला है। पेन्शन का केस बीसों दफ्तरों में जाता है। देर लग जाती है। हज़ारों बार एक ही बात को हज़ारों बार लिखना पडता है, तब पक्की होती है। हां, जल्दी भी हो सकती है, मगर '' साहब रूके।
नारद ने कहा, ''मगर क्या?''
साहब ने कुटिल मुस्कान के साथ कहा, ''मगर वज़न चाहिए। आप समझे नहीं। जैसे आप की यह सुन्दर वीणा है, इसका भी वज़न भोलाराम की दरख्वास्त पर रखा जा सकता है। मेरी लडक़ी गाना सीखती है। यह मैं उसे दे दूंगा। साधु-संतों की वीणा के अच्छे स्वर निकलते हैं। लडक़ी जल्दी संगीत सीख गई तो शादी हो जाएगी।''
नारद अपनी वीणा छिनते देख ज़रा घबराए। पर फिर संभलकर उन्होंने वीणा टेबिल पर रखकर कहा, ''लीजिए। अब ज़रा जल्दी उसकी पेन्शन का आर्डर निकाल दीजिए।''
साहब ने प्रसन्नता से उन्हें कुर्सी दी, वीणा को एक कोने में रखा और घंटी बजाई। चपरासी हाजिर हुआ।
साहब ने हुक्म दिया, ''बडे बाबू से भोलाराम के केस की फाइल लाओ।''
थोडी देर बाद चपरासी भोलाराम की फाइल लेकर आया। उसमें पेन्शन के कागज़ भी थे। साहब ने फाइल पर नाम देखा और निश्चित करने के लिए पूछा, ''क्या नाम बताया साधुजी आपने!''
नारद समझे कि ऊंचा सुनता है। इसलिए ज़ोर से बोले, ''भोलाराम।''
सहसा फाइल में से आवाज़ आई, ''कौन पुकार रहा है मुझे? पोस्टमैन है क्या? पेन्शन का आर्डर आ गया क्या?''
साहब डरकर कुर्सी से लुढक़ गए। नारद भी चौंके। पर दूसरे क्षण समझ गए। बोले, ''भोलाराम, तुम क्या भोलाराम के जीव हो?''
''हां।'' आवाज़ आई।
नारद ने कहा, ''मैं नारद हूं। मैं तुम्हें लेने आया हूं। स्वर्ग में तुम्हारा इन्तजार हो रहा है।''
आवाज़ आई, ''मुझे नहीं जाना। मैं तो पेन्शन की दरखास्तों में अटका हूं। वहीं मेरा मन लगा है। मैं दरखास्तों को छोडक़र नहीं आ सकता।''
हाय मेरे नितम्ब!
कामिनी को कमनीय काया की कामना न हो, तो कामिनी ही कैसी? आप जानते ही होंगे कि आदम और हव्वा को ज़मीन पर इसीलिये ढकेला गया था कि आदम महाशय हव्वा की क़यामती काया को देखकर ऐसे बदहवास हो गये थे कि फ़रिश्ते की मुमानियत का ख़याल भूलकर उसे कौरिया लिया था। तब से आज तक हव्वा की हर बेटी को अपने को अपार खूबसूरत दिखने का शौक जुनून की हद तक रहता है। बेटियां चलने फिरने लायक हुईं कि मॉ को अपनी ड्रेसिंग टेबिल पर रखी लिप-स्टिक, बिंदी, और क्रीम पाउडर की हिफ़ाज़त करना प्रारम्भ कर देना पड़ता है। जिन दिनों बेटों में नकली बंदूक से धांय धांय करने का शौक जागता है, बेटियां कंघी से आडे-तिरछे बाल संवार कर शीशे में अपने चेहरा निहारना शुरू कर देतीं हैं। और जवानी का रंग चढ़ते चढ़ते तो कन्यायें अपनी सुंदरता पर ऐसी आत्मविभोर हो जातीं हैं जैसे सावन के अंधे को हर सिम्त हरा हरा ही सूझता है।
यह बात दीगर हैं कि अब बराबरी का ज़माना आ गया है और आदमियों को भी यह ज़नाना शौक चर्रोने लगा है। एक मेरे लड़कपन का वक्त था कि जवानी की दहलीज़ पर कदम रखने वाले मेरे एक पहलवानछाप दोस्त ने जब एक हमउम्र हव्वा को आंख मारकर उसका दिल दहला दिया था, तो हव्वा की शिकायत बड़े बूढ़ों ने यह कहकर खारिज़ कर दी थी कि 'वह /मेरा दोस्त/ ऐसा कर ही नहीं सकता है क्योंकि वह सिर घुटाकर रहता है और पतलून तो क्या कभी सुथन्ना /पाजामा/ भी नहीं पहिनता है।' उन बूढ़ों की समझ में अपनी खूबसूरती के प्रति बेख़बर सिर सफाचट रखने वाला और धोती-कुर्ता पहिनने वाला लड़का भीष्म-प्रतिज्ञ ब्रह्मचारी के अलावा और हो ही क्या सकता था? जब कि सच यह था कि मेरे दोस्त मोशाय सूरत के जितने भोले थे, सीरत के उतने ही मनचले थे, और मौका हाथ आते ही इधर उधर मुंह मार लेते थे। उन दिनों मैं भी अच्छा बच्चा समझे जाने के चक्कर में सिर पर एक लम्बी और मोटी चोटी रखता था और बेखौफ़ लुकाछिपी कर लेता था। पर आज ज़माना बदल गया है और खुला खेल फरक्काबादी खेला जाने लगा है। अब तो कल-के-छोकरे न सिर्फ बालों की लहरदार कुल्लियां रखाये घूमते हैं बल्कि हर घंटे, आध-धंटे में बडों के सामने बेझिझक उन पर कंघी भी फिराते रहते हैं। आज के लड़कों के मुंह से तोतले बोल भी डिज़ाइनर टी-शर्ट और लिवाइज़ जीन्स की फ़रमाइश के साथ ही निकलते हैं। और वे ऐसा क्यों न करें जब उनके बापों को खुले आम ब्यूटी पार्लर में नमूदार होते और वहां से होठों पर लिप-स्टिक लगवा कर और गालों पर पाउडर क्रीम चुपड़वाकर निकलते देखा जाता है? जब बाप छुलकां मूतते हैं तो बेटे चकरघिन्नी की तरह घूम - घूम कर मूतेंगे ही।
ऐसे माहौल में ब्यूटी पार्लर वालों की पांचो उंगलियां घी में हो गईं हैं। अगर आप बेकार हैं और बेकाम के आदमी /या औरत/ हैं तो एक कमरे के दरवाजे पर 'मेल ब्यूटी पार्लर' या 'लेडीज़ ब्यूटी पार्लर' या सिर्फ़ 'ब्यूटी पार्लर' का बोर्ड जड़ दीजिये और उसके दाहिने कोने पर पेंटर से शहनाज़ हुसेन का एक गहरा रंगा-पुता चित्र बनवा दीजिये। फिर चाहे वह चित्र टुनटुन जैसा ही क्यों न दिखता हो, आप पायेंगे कि उस दरवाजे क़ी शामें रोज़ ज्यादा से ज्यादा खुशनुमा हो रहीं हैं और आप की तिजोरी की सेहत दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ रही है।
रूप और रुपयों की यह बरसात देखकर डाक्टरों का माथा भी ठनका है और उन्होंने सोचा है कि वे भी क्यों न इस बहती गंगा में हाथ धो लें? सो उन्होंने फ़िगर सुधारने के 'भरोसेमंद' शॉर्ट कट्स निकालने शुरू कर दिये हैं। उन्हीं में एक को नाम दिया है लिपो सक्शन जिसका हिंदी तर्जुमा होता है कि अगर आप के शरीर का कोई अंग जैसे पेट, जांधें आदि हिप्पो जैसा मोटा है तो वे उसकी चर्बी को खींच कर उसे लिपा हुआ सा पतला बना देंगे। लिपो सक्शन के ईजाद होने की खबर जैसे ही धनी महिलाओं में फैली कि चारों ओर हड़बडी मच गई। कौन नहीं जानता है कि बेमुरौव्वत चर्बी को महिलाओं के पेट से बेपनाह उन्सियत होती है- जहां किसी 36.24.36 की कमनीय काया को मातृत्व की गरिमा प्राप्त हुई, तो अविलम्ब 24 की मध्य-संख्या 36 की गुरुता को प्राप्त करने को उतावली होने लगती है। हाल में रोमानिया की एक माडल के बच्चा पैदा होने पर उसके साथ भी यही हादसा हुआ और वह अपने पेट की चर्बी से काफी ग़मगीन रहनें लगी। हालांकि उसके नितम्ब एवं वक्ष पर भी कुछ चर्बी आ गई थी, परंतु देखने वालों ने उस चर्बी से उसकी सुंदरता में चार चांद लगने की बात कही थी- बस पेट की चर्बी ही चांद पर ग्रहण लगा रही थी। वह माडल एक मशहूर कौस्मेटिक सर्जन का नाम सुनकर उनके पास पेट की चर्बी कम कराने गई। मोटा ग्राहक फंसते देखकर सर्जन साहब के चेहरे पर रौनक आ गई और वह फटाफट बोले,'अरे, यह तो मिनटों का काम है।', और फिर अपनी व्यस्तता दिखाने हेतु डायरी देखते हुए लिपो सक्शन हेतु दूर की एक तारीख़ निश्चित कर दी। वह तारीख़ आते आते सर्जन साहब यह भूल गये कि लिपो सक्शन कहां का होना है, और जब आपरेशन थियेटर में एनिस्थीसिया के नशे में वह माडल अपनी कमर के पुन: पुरुष-संहारक हो जाने का स्वप्न देख रही थी तब उन्होंने सक्शन यंत्र उसके नितम्ब में लगाकर उन्हें निचोड़ दिया। जब माडल की मोहनिद्रा खुली और उसने अपने बदन को टटोला तो वह यह जानकर हतप्रभ रह गई कि उसका पेट यथापूर्व मोटा था और उसके नितम्ब निचुड़ गये थे जिससे उसका बदन ऐसा हो गया था जैसे बांस की खपाचों पर गेहूं से भरा बोरा रख दिया गया हो।
यह देखकर विषादपूर्ण आश्चर्य से उसके मुख से बस तीन शब्द निकले, ''हाय मेरे नितम्ब!''
विलासिता का दुख
जब कभी भी किसी विकसित देश में उपलब्ध आम जनसुविधओं के बारे में सुनता या पढ़ता हूं तो हृदय से हूक उठ जाती है। अब इसका अर्थ आप यह कदापि ग्रहण न करें कि मैं उनकी सुविधा-सम्पन्नता से जल उठता हूं। बिना किसी आत्म प्रवंचना के कहूं तो मुझे यह उनकी विपन्नता ही नजर आती है। सुख-सुविधाओं का जो मायाजाल अपने देश में निहित है वह कहीं ओर कहां हो सकता है। अब आप ही बताइए वो सुविधा किस काम की जो आप को बांध कर ही रख दे। सुना है अमेरिका में बिजली कटौती न के बराबर है। यदि ऐसा है तो वहां के घरों में रहने वाले लोग इक्का-दुक्का मौकों पर ही एक-साथ घर से बाहर निकलते होंगे। अब अपने यहां देखिए दिन में दसियों घंटों तक तो बिजली गुल रहती है, बिजली होती भी है तो जल देवता नदारद मिलते हैं। इन दोनों ही अवसरों पर जमावड़ा चौक पर होता है। दिन में 24 घंटों में से 16 घंटे तक रौनक घर के बाहर ही होती है और ऐसे अवसरों पर जो मुख और श्रवण सुख मनुष्येन्द्रियों को प्राप्त होता है, वह भला उन पाश्चात्य देशों में रहने वाले लोगों को कहा मिलता होगा। अपने यहां की महिलाएं एवं पुरुष दोनों ही इस अवसर का लाभ अपने दिल की भड़ास निकालने के लिए बखूबी करते हैं। दूसरों की बुराइयां करने में जो सुख मिलता है वो भला 5 सितारा होटलों में अब बताइएं यह किस काम की विकसिता। ट्रेफिक नियमों के संबंध में भी वहां फैली विषयता झलकती है। बी.एम.डब्ल्यू, मर्सिडीज आदि जैसी अनेक हाई क्लास भारी-भरकम गाड़ियां भी अदनी-सी रेड लाइट के इशारे पर नाचती हैं, अपने यहां तो लखटकिया वाली छकड़ा गाड़ी भी काले धुंए का गुबार उड़ाती हुई फर्राटे से ट्रैफिक नियमों को धत्ता बताकर रख देती है। बड़ी-बड़ी गाड़ीवालों का तो कहना ही क्या! वो तो जब तक जी चाहा रोड पर, नहीं तो फुटपाथ पर दौड़ पड़ती हैं विदेशों में मॉडर्न ऑर्ट की मांग बहुत हो, परन्तु वहां पर इस कार्य के लिए कोई प्रोत्साहन नहीं दिया जाता। अपने यहां तो लोग मुंह में कूची लेकर घूमते रहते हैं। जहां दिल किया पच्च... पिचकारी मारी और दीवार पर मॉडर्न ऑर्ट तैयार। जबकि विदेशों में तो सड़क पर थूकने पर ही जुर्माने का प्रावधान है। अब आप ही बताइए यह कहा का इंसाफ है कि मनुश्य को सोने के पिंजरे में कैद करके रखा जाए। संभवत: यह सारी कमियां वहां के प्रशासन की देन है। हम अपने विकास के पाषाणयुग को भी नहीं भूलते बल्कि उसका यदा-कदा प्रदर्शन सांसद में कर उसका सीध प्रसारण देश भर में करवा देते हैं ताकि हमारी वास्तविक पहचान छोटे-छोटे बच्चों तक के हृदय में स्थायी बनी रहे। हम अपनी शारीरिक क्षमता एवं धाराप्रवाह बोलने की दक्षता का सटीक अवलोकन संसद में माइक, कुर्सी, मेज तोड़कर तथा धरने के दौरान चीख-पुकार कर दर्शा देते हैं। हमारे मन में जब भी भड़ास उत्पन्न होती है, तो उसे सरकारी वस्तुओं यथा बस, ट्रेन के शीशे, खंभे, ग्रिलों आदि पर इत्मीनान से निकाल देते हैं। अब आप ही कहें, ऐसा क्या वहां संभव है। वहां के लोग घरों के अंदर दुबक कर सोते हैं। अपने यहां तो आम आदमी रात को चने चबाकर पानी का घूंट मारकर तसल्ली से ग्रहों से विचार-विमर्श कर सोता है। वहां पर लोग विकेंड सिस्टम से चलते हैं परन्तु अपने सरकारी कर्मचारी तो कार्यालय में रहकर भी विकेंड मनाते हैं। ऐसी विसंगतियों के चलते यदि वह यह भ्रम मन में पाल कर बैठें हैं कि वह विकसित है, तो मैं इस पर सिर्फ खिसयानी हंसी ही हंस सकता हूं।
उर्वशी : पुरुष अध्यात्म का रूमान
उर्वशी की भूमिका में दिनकर ने मनु, इड़ा और पुरुरवा, उर्वशी के मिथक की तुलना करते हुए कहा है− ÷÷मनु और इड़ा तथा पुरुरवा और उर्वशी, ये दोनों ही कथाएं एक ही विषय को व्यंजित करती हैं। सृष्टि विकास की जिस प्रक्रिया के कर्त्तव्य पक्ष का प्रतीक मनु और इड़ा का आख्यान है, उसी प्रक्रिया का भावना पक्ष पुरुरवा और उर्वशी की कथा में कहा गया है।'' एक काव्यनाटक के रूप में उर्वशी का उद्देश्य क्या रहा होगा, इसे समझने में यह कथन मदद करता है। ÷आधुनिकता' की भारतीय परियोजना उन पश्चिमी उपकरणों की मोहताज रही जो तर्कबुद्धि की महत्ता से आक्रांत थे। इनके द्वारा मांजी गयी हमारी ÷आधुनिक' चेतना मानुष्यिक संघटन के भावनात्मक पक्ष को नजरअंदाज करती गयी। यहां स्पष्ट करना जरूरी है कि हमारा ध्येय यह नहीं होना चाहिए कि तर्कबुद्धिवाद की दार्शनिक उपलब्धियों को कठघरे में खड़ा कर दिया जाए। बात सिर्फ इतनी है कि तर्कबुद्धि पर अंधी आस्था यांत्रिाकता और स्थूलता की प्रवृत्ति को जन्म देती है, जो स्वयं तार्किकता की दार्शनिक जड़ों में मठ्ठा डालने का काम करती है। कला और साहित्य के क्षेत्र में जब यह प्रवृत्ति आलोचनात्मक व्यसन बन जाती है तब किसी रचना की शक्ति और कमजोरी का सही आकलन करना असम्भव हो जाता है। हिन्दी में यह प्रवृत्ति हमेशा विद्यमान रही है और कई रचनाकार इसके शिकार हुए। दिनकर इन्हीं रचनाकारों में से एक हैं। यह बात अलग है कि वह ताकतवर नहीं, बल्कि कमजोर शिकार हैं क्योंकि वह नशे के नहीं, खुमार के कवि हैं।
दिनकर को छायावादी ÷हैंगओवर', खुमार का कवि माना जाता है। खुमार सिर्फ उस नशे को ही व्यंजित नहीं करता जो कभी सर चढ़ कर बोला था। वह उस नशे की ढलान, उसके खत्म होते असर को भी व्यंजित करता है। खुद दिनकर के काव्य के भीतर छायावाद की यह ढलान, उसका खत्म होता असर विद्यमान है। दिनकर की रचनाओं के साथ समस्या यह रही कि वे छायावाद के प्रेमियों और विरोधियों के बीच नूराकुश्ती का सबब बनी। प्रेमियों ने जहां जम कर सराहा, वहीं विरोधियों ने बुरी तरह कोसा। यानि संज्ञा तो दी गयी खुमार, मगर बर्ताव ऐसे किया गया मानो साक्षात नशा हो।
÷उर्वशी' का प्रकाशन हिन्दी आलोचना के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। जिसे आज ÷उर्वशी विवाद' के नाम से जाना जाता है, वह आलोचना में लोकतांत्रिाकता की बड़ी मिसाल बना। आजादी के बाद पहली बार बड़े स्तर पर विभिन्न पीढ़ियों और विचारों के लेखकों की भागीदारी और टकराव देखने को मिला। निःसंदेह इस विवाद ने हिन्दी आलोचना को एक नयी धार दी,उसे सकारात्मक दिशा में प्रवृत्त किया, और काव्य के बदलते मूल्यों एवं प्रतिमानों को परखने की नयी दृष्टि प्रदान की। आज ÷उर्वशी विवाद' साहित्येतिहास के पन्नों में दफ्न हो चुका है। लगभग पचास वर्ष बाद इस विवाद से फूटी आलोचना की प्रखर किरण का हश्र क्या हुआ, इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है।
÷उर्वशी' का नायक पुरुरवा है− रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द से मिलने वाले सुखों से उद्वेलित मनुष्य। उर्वशी चक्षु, रसना, घ्राण, त्वक तथा श्रोत्र की कामनाओं का प्रतीक है। इस प्रकार ÷उर्वशी' का नायक ऐन्द्रीय सुख पर निसार होने वाला मनुष्य है। वह देह का तिरस्कार नहीं करता। ÷उर्वशी' की विषयवस्तु का केन्द्रीय तत्व काम है। देवत्व और मनुष्यत्व को काम के निकष पर जिस साहस के साथ यहां कसा गया है, वह अन्यत्र दुर्लभ है :
भू को जो आनंद सुलभ है, नहीं प्राप्त अम्बर को।
हम भी कितने विवश! गंध पीकर ही रह जाते हैं,
स्वाद व्यंजनों का न कभी रसना से ले पाते हैं।
हो जाते हैं तृप्त पान कर स्वर−माधुरी श्रवण से,
रूप भोगते हैं मन से या तृष्णा भरे नयन से।
पर, जब कोई ज्वार रूप को देख उमड़ आता है,
किसी अनिर्वचनीय क्षुधा में जीवन पड़ जाता है,
उस पीड़ा से बचने की तब राह नहीं मिलती है,
उठती जो वेदना यहां, खुल कर न कभी खिलती है।
किन्तु, मर्त्य जीवन पर ऐसा कोई बंध नहीं है,
रुके गंध तक, वहां प्रेम पर यह प्रतिबंध नहीं है॥
देवत्व ÷गंध' की सीमा में कैद है। इस कैद से मुक्त होना ही मनुष्य होना है :
पर, सोचो तो, मर्त्य मनुज कितना मधु रस पीता है।
दो दिन ही हो, पर, कैसे वह धधक धधक जीता है।
इन ज्वलंत वेगों के आगे मलिन शांति सारी है,
क्षण भर की उन्मद तरंग पर चिरता बलिहारी है।
काम का यह निकष देवों को हीन और मनुष्यों को श्रेष्ठ साबित करता है। प्रतिबंध रहित प्रेम नश्वरता का वरदान है। इसी वरदान को प्राप्त करने के लिए उर्वशी अमरत्व की ऊंचाई से उतर कर नश्वरता के धरातल पर कदम रखती है। उसकी यह यात्रा एक ढलान है-स्वर्ग से धरती की ओर, शिखर से धरातल की ओर, ऊंचाई से नीचे की ओर। ऊपर से नीचे की ओर आना हमेशा पतन की व्यंजना नहीं करता। ढलान में एक किस्म की गरिमा हो सकती है, यह संदेश उर्वशी देती है। छायावाद के प्रभुत्व वाले दौर में ढलान की इस गरिमा को पहचानना असम्भव था। छायावाद की महत्वपूर्ण रचनाएं (कहने की जरूरत नहीं कि निराला की रचनाएं अपवाद हैं) धरती से स्वर्ग की ओर, धरातल से शिखर की ओर और नीचे से ऊपर की ओर मनुष्य की उठान को महिमामंडित करती हैं। जिस हद तक दिनकर ढलान की गरिमा को अभिव्यक्त करने में सफल होते हैं, उस हद तक ÷उर्वशी' नयी चेतना का काव्य बन कर उभरता है।
किन्तु दिनकर की भाषा में छायावादी सौन्दर्यबोध की धारा प्रत्यक्षतः प्रवाहित होती है। ÷उर्वशी' के प्रकृति चित्रण में यह सौन्दर्य दृष्टि सर्वाधिक प्रखर है :
मही सुप्त, निश्चेत गगन है,
आलिंगन में मौन, मगन है।
ऐसे में नभ से अशंक अवनी पर आओ जाओ री।
यह रात रुपहली आयी।
मुदित चांद की अलकें चूमो,
तारों की गलियों में घूमो,
झूलो गगन हिंडोरे पर, किरणों के तार बढ़ाओ री!
यह रात रुपहली आयी।
÷उर्वशी' की कथा जैसे जैसे आगे बढ़ती है, नयी चेतना का आवेग गहराता जाता है। मगर उसकी छायावादी सौन्दर्य दृष्टि जब धरती को स्वर्ग से बड़ा दर्जा देने वाली नयी चेतना के इस गहराते आवेग से टकराती है, उससे उलझती है तो अपनी धार खो बैठती है। परिणाम यह होता है कि कविता जिस नयी चेतना का वाहक बनना चाहती है, उसकी भाषा लगातार उससे दूर भागती है। नयी चेतना, नयी भाषा की मांग करती है। कवि इस नयी भाषा को कविता की परम्परागत भाषा में तोड़फोड़ करके प्राप्त करते हैं। मगर दिनकर को यह तोड़फोड़ मंजूर नहीं। हां, वह भाषा में कुछ ठोंकपीट अवश्य करते हैं, उसे विषयानुकूल बनाने के लिए। यह ठोंकपीट कहीं कहीं सफल भी हो जाती है। रानी औशीनरी की व्यथा को अभिव्यक्त करने वाली भाषा इसका उदाहरण है :
कितना विलक्षण न्याय है!
कोई न पास उपाय है!
अवलम्ब है सबको, मगर, नारी बहुत असहाय है।
दुख दर्द जतलाओ नहीं,
मन की व्यथा गाओ नहीं,
नारी! उठे जो हूक मन में, जीभ पर लाओ नहीं।
मगर इस ठोंकठाक से काम ज्यादा चल नहीं पाता। काव्य की संरचनागत समग्रता खंडित हो जाती है। ÷उर्वशी' की भाषा और उसकी अंतर्वस्तु के बीच फांक पड़ जाती है। इस फांक को छिपाने के लिए कविता चमत्कारपूर्ण उक्तियों, वाग्जाल और शब्दाडम्बर का सहारा लेती है, जो अंततः उसे और कमजोर करते हैं। ÷उर्वशी' के तीसरे अंक को उसका सार भाग माना जाता है। मगर इस अंक की आरम्भिक पंक्तियां ही चमत्कारिक उक्ति और शब्दाडम्बर से ग्रस्त हैं :
जब से हम तुम मिले, न जानें, कितने अभिसारों में
रजनी कर श्रृंगार सितासित नभ में घूम चुकी है;
जाने कितनी बार चंद्रमा को, बारी बारी से,
अमा चुरा ले गयी और फिर ज्योत्सना ले आयी है।
÷उर्वशी' में धरती और स्वर्ग, देह और आत्मा, मही और आकाश, देव और मनुज, मातृ सुख से वंचित अप्सरा नारी और मातृ सुख को भोगने वाली साधारण नारी के द्वंद्व को उकेरा गया है। मूलतः यह द्वंद्व काम और योग का द्वंद्व है। तमाम शब्दाडम्बर के बावजूद यह द्वंद्व तीसरे अंक में सर्वाधिक तीक्ष्ण है। पुरुरवा की इन पंक्तियों में यह द्वंद्व साकार रूप ग्रहण करता है :
मैं मनुष्य, कामना वायु मेरे भीतर बहती है
कभी मंद गति से प्राणों में सिहरन पुलक जगा कर;
कभी डालियों को मरोड़ झंझा की दारुण गति से
मन का दीपक बुझा, बना कर तिमिराच्छन्न हृदय को।
किन्तु पुरुष क्या कभी मानता है तम के शासन को?
फिर होता संघर्ष, तिमिर में दीपक फिर जलते हैं।
नहीं इतर इच्छाओं तक ही अनासक्ति सीमित है,
उसका किंचित स्पर्श प्रणय को भी पवित्र करता है।
इस पर आश्चर्यग्रस्त उर्वशी प्रश्न करती है :
यह मैं क्या सुन रही? देवताओं के जग से चल कर
फिर मैं क्या फंस गयी किसी सुर के बाहु वलय में?
अंधकार की मैं प्रतिमा हूं? जब तक हृदय तुम्हारा
तिमिरग्रस्त है, तब तक ही मैं उस पर राज करूंगी?
और जलाओगे जिस दिन बुझे हुए दीपक को,
मुझे त्याग दोगे प्रभात में रजनी की माला सी?
उर्वशी स्वर्ग की अप्सरा है, मगर इन प्रश्नों में धरती का नारीत्व गूंज रहा है। धरती और नारी जननी हैं। उर्वशी अपनी कसी हुई देहयष्टि का त्याग कर माता बनने को तैयार है। मां बनने पर उसका सौन्दर्य ढल जाएगा। मगर वह जानती है कि यह ढलान गरिमामय है। उर्वशी के मुख से फूटे इन प्रश्नों में नारीत्व की गरिमा छिपी है। ये प्रश्न पुरुरवा को देह के अधिकारों के प्रति सचेत करते हैं :
÷÷पर, न जानें, बात क्या है!
इन्द्र का आयुध पुरुष जो झेल सकता है,
सिंह से बाहें मिला कर खेल सकता है,
फूल के आगे वही असहाय हो जाता,
शक्ति के रहते हुए निरुपाय हो जाता।
मैं तुम्हारे हाथ का लीला कमल हूं,
प्राण के सर में उतरना चाहता हूं।
कौन कहता है,
तुम्हें मैं छोड़ कर आकाश में विचरण करूंगा?''
उर्वशी मानवीय भावना के उद्दाम आवेगों का प्रतिनिधित्व करती है। वह दृढ़ है कि ÷रक्त बुद्धि से अधिक बली है और अधिक ज्ञानी भी' क्योंकि ÷निरी बुद्धि की निर्मितियां निष्प्राण हुआ करती हैं।' पुरुरवा का पुरुष भी ÷रक्त' को ÷बुद्धि' से अधिक बलशाली मानता है, मगर एकदम विपरीत
अर्थ में :
रक्त बुद्धि से अधिक बली है, अधिक समर्थ, तभी तो
निज उद्गम की ओर सहज हम लौट नही पाते हैं।
यह भावना नहीं, बल्कि अनासक्ति का तर्क है। पुरुरवा काम के आवेग में डूबना चाहता है, मगर अनासक्ति का तर्क उसे बार बार ऊपर खींच लाता है। पुरुरवा उर्वशी के प्रणय सम्वाद से निर्मित तृतीय अंक ÷उर्वशी' का सबसे लम्बा भाग है। मूल द्वंद्व शुरू के सात आठ पृष्ठों में ही मुखर हो उठता है। आगे इस द्वंद्व का दोहराव भर है, हालांकि शब्द बदले हुए हैं। यहां द्वंद्व का विस्तार नहीं, बल्कि पर्यायवाची आशय है जो इस अंक को बोझिल और निस्सार बना देता है। अनावश्यक स्फीति उर्वशी पुरुरवा सम्वाद की मार्मिकता और ताजगी को नष्ट कर देती है। फिर भी अंत की ओर बढ़ने पर ये पंक्तियां ताजा हवा के झोंके की तरह आती हैं :
कुसुम और कामिनी, बहुत सुंदर दोनों होते हैं,
पर, तब भी नारियां श्रेष्ठ हैं कहीं कांत कुसुमों से,
क्योंकि पुष्प हैं मूक और रूपसी बोल सकती है।
सुमन मूल सौन्दर्य और नारियां सवाक सुमन हैं।
÷उर्वशी' की भूमिका में दिनकर लिखते हैं : ÷÷भावना और तर्क, हृदय और मस्तिष्क, कला और विज्ञान अथवा निरुद्देश्य आनंद और सोद्देश्य साधना, मानवीय गुणों के ये जोड़े नवीन मनुष्य को भी दिखायी देते हैं और वे प्राचीन मानव को भी दिखाई पड़े थे। मनु और इड़ा का आख्यान तर्क, मस्तिष्क, विज्ञान और जीवन की सोद्देश्य साधना का आख्यान है; वह पुरुषार्थ के अर्थ पक्ष को महत्व देता है। किन्तु पुरुरवा उर्वशी का आख्यान भावना, हृदय, कला और निरुद्देश्य आनंद की महिमा का आख्यान है; वह पुरुषार्थ के काम पक्ष का माहात्म्य बताता है।'' ÷उर्वशी' में पुरुषार्थ के काम पक्ष के माहात्म्य का बोध किस तरह किया गया है इसका गवाह तृतीय अंक का यह संदेश है :
चिन्तन की लहरों के समान सौन्दर्य लहर में भी है बल,
सातों अम्बर तक उड़ता है रूपसी नारि का स्वर्णांचल।
÷उर्वशी' यह संदेश देती है, मगर आगे बढ़ कर नहीं, बल्कि पीछे हटकर। उर्वशी आरम्भ में धरती और देह के अधिकारों का प्रतिनिधित्व करती है। मगर अब वह ÷सौन्दर्य लहर' के बल द्वारा पुरुरवा को दीक्षित करने के क्रम में देह को भ्रम के रूप में निरूपित करने लगती है :
÷÷मैं अदेह कल्पना, मुझे तुम देह मान बैठे हो :
मैं अदृश्य, तुम दृश्य देख कर मुझको समझ रहे हो
सागर की आत्मजा, मानसिक तनया नारायण की।''
यहां दिनकर के साहित्य बोध पर दृष्टिपात करना तस्वीर को कुछ और साफ करने में सहायक होगा। संयोग से इसके लिए ज्यादा दूर जाने की आवश्यकता नहीं है, भूमिका के कुछ अंश को एक बार फिर उद्वृत करना होगा : ÷÷कला, साहित्य और विशेषतः काव्य में भौतिक सौन्दर्य की महिमा अखंड है। फिर भी, श्रेष्ठ कविता, बराबर, भौतिक से परे भौतिकोत्तर सौन्दर्य का संकेत देती है, ÷फिजिकल' को लांघ कर ÷मेटा फिजिकल' हो जाती है।'' इस तरह दिनकर की काव्य चेतना जिसे महत्वपूर्ण मानती है, वह ÷फिजिकल' नहीं, बल्कि ÷मेटा फिजिकल' है। अतः दिनकर की सौन्दर्य लहर, जिसकी श्रेष्ठता का बखान उर्वशी करती है, पाठक को बहा कर वहीं ले जाती है, जहां पुरुष अध्यात्म की चिन्तन लहर पहुंचती है। ये वेदांत से निःसृत पुरातन मूल्य हैं, जिन्हें आजादी के बाद सत्ता की बागडोर संभालने वाले भारत के तथाकथित नीति निर्माताओं ने परम्परा की संज्ञा दी और उन पर उदारता का मुलम्मा चढ़ाया। दिनकर भारतीय परम्परा की इसी शासकीय व्याख्या के अलम्बरदार थे। ÷उर्वशी' की रचनात्मक गत्वरता को जो शक्ति नियंत्रिात कर रही है, उसे ÷संस्कृति के चार अध्याय' में बिना किसी लागलपेट के देखा जा सकता है। दिनकर का वेदांती मन रामकृष्ण परमहंस के संदर्भ में भारतीय महापुरुष की व्याख्या इस तरह करता है : ÷÷किन्तु रामकृष्ण ने नारी की ऐसी निन्दा कभी नहीं की। अपनी पत्नी की तो उन्होंने प्रशंसा ही की है। हां, काम भोग को साधना की बाधा वे भी मानते थे और उनका भी उपदेश यही था कि नर नारी एक दूसरे से अलग रह कर ही अध्यात्म के मार्ग पर अग्रसर हो सकते हैं। अपना उदाहरण देते हुए उन्होंने एक बार कहा था, ÷उन दिनों मुझे स्त्रिायों से डर लगता था। ... अब वह अवस्था नहीं रही। अब मैंने मन को बहुत कुछ सिखा पढ़ा कर इतना कर लिया है कि स्त्रिायों की ओर आनंदमयी माता के भिन्न भिन्न रूप जान कर देखा करता हूं। तो भी, यद्यपि, स्त्रिायां जगदम्बा के ही अंश हैं, तथापि साधु साधक के लिए वे त्याज्य ही हैं।'' (संस्कृति के चार अध्याय, पृ. 494)। इस पर आगे दिनकर टिप्पणी करते हैं : ÷÷कामिनी और कांचन के विषय में किसकी क्या दृष्टि है तथा इनके आकर्षण से कौन कहां तक बचता है, यही वह कसौटी है जिस पर भारतीय महापुरुषों की जांच होती आयी है। रामकृष्ण इस कसौटी पर खरे उतरे।'' (वही)। स्पष्ट है कि किसी महापुरुष की भारतीयता का निकष यही है कि वह कामिनी और कांचन का परित्याग करे। इसी तरह दिनकर के वेदांती मन की गांठ का पता वहां भी चलता है जब ÷संस्कृति के चार अध्याय' में भारतीय सभ्यता पर इस्लामी प्रभाव के बारे में वह अनर्गल टिप्पणी करते हैं।
यह स्पष्ट देखा जा सकता है कि ÷निरुद्देश्य आनंद की महिमा' का गुणगान करने वाला पुरुरवा उर्वशी का मिथक, ÷उर्वशी' में निरुद्देश्य नहीं है। उसका एक स्पष्ट उद्देश्य है − सनातन समझे जाने वाले वेदांती मूल्यों की पुनर्प्रतिष्ठा। सारी ढलान अंततः गरिमा खो देती है। उर्वशी का सौन्दर्य पुरुरवा की अनुभूति में घुल कर विसरित हो जाता है − नीचे से ऊपर की ओर, धरती से स्वर्ग की ओर, मही से आकाश की ओर, मूर्तन से अमूर्तन की ओर :
अशरीरी कल्पना, देह धरने पर भी, आंखों से
रही झांकती सदा, सदा मुझको यह भान हुआ है,
बांहों में जिसको समेट कर उर से लगा रहा हूं,
रक्त मांस की मूर्ति नहीं, वह सपना है, छाया है।
छिपा नहीं देवत्व, रंच भर भी, इस मर्त्य वसन में,
देह ग्रहण करने पर भी तुम रहीं अदेह विभा सी।
यह ÷अदेह विभा' भारतीय पुरुष अध्यात्म का ध्येय रही है। ÷उर्वशी' इसी पुरुष अध्यात्म का रूमान है क्योंकि यहां देह में डूब कर, उसकी तरंगों के आवेग में बह कर ÷अदेह' तक पहुंचा गया है। ÷अदेह विभा' की चमक बिखेरने के लिए देह का तिरस्कार नहीं, बल्कि स्वीकार है। छायावादी सौन्दर्यबोध और राष्ट्र व परम्परा की शासकीय धारणाओं का अनुभागी होने के चलते दिनकर को इस ÷अदेह' के पुंसत्व ने बंधक बना रखा है। इस बंधन के बावजूद उन्होंने देह को साधने की कोशिश की है। दिनकर को जिस सांस्कृतिक काव्यधारा का कवि माना जाता है वह नयी कविता आंदोलन के समानांतर प्रवाहित हुई थी। नयी कविता का नया भावबोध देह की महत्ता को नये सिरे से परिभाषित कर रहा था। दिनकर नयी कविता के बाहर के कवि हैं, फिर भी नये भावबोध के असर को उन्होंने शिद्धत से महसूस किया। अतः यह उचित ही कहा गया है कि नयी कविता के बिना ÷उर्वशी' की कल्पना कठिन थी। विडम्बना यह है कि दिनकर के पिछड़े संस्कार नयी चेतना के साथ ज्यादा दूर तक नहीं जा पाये। देह धारण करने के बावजूद उनकी उर्वशी ÷अदेह' का ही गुणगान करती रही। दिनकर की काव्य भाषा भी देह के साथ उतनी सहज नहीं, जितनी कि ÷अदेह' के साथ। सबसे ध्यान देने योग्य यह है कि ÷उर्वशी' का काव्य देह से ÷अदेह' में संक्रमित हो जाता है, महज भावोच्छवास द्वारा। अतः ÷उर्वशी' वास्तविकता के किसी धरातल को तोड़ने के बजाए हवाई किले बनाने लगती है। ÷उर्वशी' का आरम्भ नारी सौन्दर्य के सम्बंध में जिस नयी संवेदना की उम्मीद जगाता है, उसका अंत नारीत्व की पिटी पिटायी सनातनी अवधारणा का साक्ष्य बनता है :
नारी क्रिया नहीं, वह केवल क्षमा, क्षांति, करुणा है।
इसीलिए, इतिहास पहुंचता जभी निकट नारी के,
हो रहता वह अचल या कि फिर कविता बन जाता है।
चलते चलते कुछ बातें दिनकर की उस टिप्पणी पर जो उन्होंने पुरुरवा उर्वशी के पुत्र आयु के सम्बंध में की है। वह ÷उर्वशी' की भूमिका में लिखते हैं :÷÷जब देवी सुकन्या यह सोचती है कि नर नारी के बीच संतुलन कैसे लाया जाए, तब उनके मुंह से यह बात निकल पड़ती है कि यह सृष्टि, वास्तव में, पुरुष की रचना है। इसलिए रयचिता ने पुरुषों के साथ पक्षपात किया, उन्हें स्वत्व हरण की प्रवृत्तियों से पूर्ण कर दिया। किन्तु, पुरुषों की रचना आदि नारियां करने लगें, तो पुरुष की कठोरता जाती रहेगी और वह अधिक भावप्रवण एवं मृदुलता से युक्त हो जाएगा।
÷÷इस पर आयु यह दावा करता है कि मैं ही तो वह पुरुष हूं, जिसका निर्माण नारियों ने कियाहै।
÷÷आयु का कहना ठीक था और वह प्रसिद्ध राजा भी हुआ, जिसका उल्लेख ऋग्वेद में आया है। किन्तु उल्लेख इस बात का भी है कि युवक राजा सुश्रवा ने आयु को जीतकर उसे अपने अधीन कर लिया था।
÷÷फिर वही बात!
÷÷पुरुष की रचना पुरुष करे तो वह त्रासक होता है; और पुरुष की रचना नारी करे तो लड़ाई में वह हार जाता है।''
यह लम्बा उद्धरण दिनकर की पुरुष दृष्टि का परिचायक है। यह दृष्टि भूल जाती है आयु लड़ाई में इसलिए नहीं हारा, क्योंकि उसका निर्माण नारियों ने किया है। उसकी हार का कारण यह है कि अब तक की सृष्टि, वास्तव में, पुरुष की रचना है। पुरुषों की रचना यदि नारियां करने लगें तो धरती पर शायद युद्ध कभी हो ही नहीं। और अगर हो भी तो! कौन जाने वह जीतने के बजाए हारने के लिए ही लड़ा जाए! जीतना अप्रासंगिक हो जाए!
http://syaah.blogspot.com/
अजब दुनिया है नाशायर यहाँ पर सर उठाते हैं
जो शायर हैं वो महफ़िल में दरी-
चादर उठाते हैं
तुम्हारे शहर में मय्यत को सब काँधा नहीं देते
हमारे गाँव में छप्पर भी सब मिल कर उठाते हैं
इन्हें फ़िरक़ापरस्ती मत सिखा देना कि ये बच्चे
ज़मीं से चूमकर तितली के टूटे पर उठाते हैं
समुन्दर के सफ़र से वापसी का क्या भरोसा है
तो ऐ साहिल, ख़ुदा हाफ़िज़ कि हम लंगर उठाते हैं
मुनव्वर राना की कविता की ये पंक्तियाँ मैंने स्याह-ब्लॉग पोस्ट पर पढ़ी। गूगल पर कुछ और सर्च करते करते मैं अचानक इस ब्लॉग पोस्ट तक पहुँच गई।
स्याह- यानी काला... बड़ा ही अजीब सा नाम है इस ब्लॉग पोस्ट का... शायद इसे यह नाम अपनी काली, लेकिन सुंदर पृष्ठभूमि की वजह से दिया है जिस पर सभी अक्षर स्पष्ट और सुंदर नज़र आते हैं।
खैर.. नाम में क्या रखा है। मैं आपको इस ब्लॉग पोस्ट के बारे में इसलिए बता रही हूँ क्योंकि मैंने यहाँ उर्दू और हिन्दी के कई नामचीन कवियों जैसे अली सरदार जाफ़री, गुलज़ार, गोपाल दास "नीरज", जावेद अख़्तर, नज़ीर अकबराबादी, निदा फ़ाज़ली, निदा फ़ाज़ली, फ़िराक़ गोरखपुरी, शहरयार आदि की बेहतरीन शायरी और कविताओं
को पाया।
अगर आप भी इन बेहतरीन शायरी और कविताओं को पढ़ना चाहतें हैं तो बस http://syaah.blogspot.com/ को इंटरनेट एक्सप्लोरर में कॉपी और पेस्ट करें और शायरी और कविताओं की एक नई दुनिया में कदम रखें।
रविवार, अगस्त 02, 2009
सुन सका कोई न जिस को वो सदा मेरी थी
सुन सका कोई न जिस को, वो सदा मेरी थी
मुन्फ़इल जिससे मैं रहता था, नवा मेरी थी
आख़िरे-शब के ठिठुरते हुए सन्नाटों से
नग़्मा बन कर जो उभरती थी, दुआ मेरी थी
खिलखिलाती हुई सुबहों का समाँ था उन का
ख़ून रोती हुई शामों की फ़िज़ा मेरी थी
मुद्दआ मेरा, इन अल्फ़ाज़ के दफ़्तर में न ढूँढ़
वही एक बात जो मैं कह न सका मेरी थी
मुंसिफे-शहर के दरबार में क्यूँ चलते हो
साहिबो मान गया मैं कि ख़ता मेरी थी
मुझ से बचकर वही चुपचाप सिधारा 'मख़्मूर'
हर तरफ़ जिस के तआक़ुब में सदा मेरी थी
शब्दार्थ :
मुन्फ़इल=लज्जित; नवा=आवाज़; आख़िरे-शब=रात का अन्तिम पहर; मुद्दआ=मंतव्य; मुंसिफ़े-शहर=नगर के न्यायाधीश; तआक़ुब=पीछा करना।
सामने ग़म की रहगुज़र आई
सामने ग़म की रहगुज़र आई
दूर तक रोशनी नज़र आई
परबतों पर रुके रहे बादल
वादियों में नदी उतर आई
दूरियों की कसक बढ़ाने को
साअते-क़ुर्ब मख़्तसर आई
दिन मुझे क़त्ल करके लौट गया
शाम मेरे लहू में तर आई
मुझ को कब शौक़े-शहरगर्दी थी
ख़ुद गली चल के मेरे घर आई
आज क्यूँ आईने में शक्ल अपनी
अजनबी-अजनबी नज़र आई
हम की 'मख़्मूर' सुबह तक जागे
एक आहट की रात भर आई
शब्दार्थ :
साअते-क़ुर्ब=सामीप्य का लक्षण; मुख़्तसर=संक्षिप्त; शौक़े-शहरगर्दी=नगर में घूमने का शौक़।
सर पर जो सायबाँ थे पिघलते हैं धूप में
सर पर जो सायबाँ थे पिघलते हैं धूप में
सब दम-ब-ख़ुद खड़े हुए जलते हैं धूप में
पहचानना किसी का किसी को, कठिन हुआ
चेहरे हज़ार रंग बदलते हैं धूप में
बादल जो हमसफ़र थे कहाँ खो गए कि हम
तन्हा सुलगती रेत प' जलते हैं धूप में
सूरज का क़हर टूट पड़ा है ज़मीन पर
मंज़र जो आसपास थे जलते हैं धूप में
पत्ते हिलें तो शाखों से चिंगारियाँ उड़ें
सर सब्ज़ पेड़ आग उगलते हैं धूप में
'मख़्मूर' हम को साए-ए-अब्रे-रवाँ से क्या
सूरजमुखी के फूल हैं, पलते हैं धूप में
शब्दार्थ :
सायबाँ=छाया करने वाले; दम-ब-ख़ुद=मौन; क़हर=प्रकोप; सब्ज़=हरे-भरे; साए-ए-अब्रे-रवाँ=गतिशील बादल की छाया।
वो हमसे ख़फ़ा था मगर इतना भी नहीं था
वो हमसे ख़फ़ा था मगर इतना भी नहीं था
यूँ मिल के बिछड़ जाएँ, कुछ ऎसा भी नहीं था
क्या दिल से मिटे अब ख़लिशे-तर्के-ताल्लुक़
कर गुज़रे वो हम जो कभी सोचा भी नहीं था
रस्ते से पलट आए हैं हम किसलिए आख़िर
उससे न मिलेंगे ये इरादा भी नहीं था
कुछ, हम भी अब इस दर्द से मानूस बहुत हैं
कुछ, दर्दे-जुदाई का मदावा भी नहीं था
सर फोड़ के मर जाएँ, यही राहे-मफ़र थी
दीवार में दर क्या कि दरीचा भी नहीं था
दिल ख़ून हुआ और ये आँखें न हुईं नम
सच है, हमे रोने का सलीक़ा भी नहीं था
इक शख़्स की आँखों में बसा रहता है 'मख़्मूर'
बरसों से जिसे मैंने तो देखा भी नहीं था
शब्दार्थ :
ख़लिशे-तर्के-ताल्लुक़=सम्बन्ध-विच्छेद होने की कसक; मानूस=परिचित; दर्दे-जुदाई=वियोग का दुख; मदावा=इलाज; राहे-मफ़र=भागने का रास्ता; दर= दरवाज़ा; दरीचा=खिड़की
भीड़ में है मगर अकेला है
भीड़ में है मगर अकेला है
उस का क़द दूसरों से ऊँचा है
अपने-अपने दुखों की दुनिया में
मैं भी तन्हा हूँ वो भी तन्हा है
मंज़िलें ग़म की तय नहीं होतीं
रास्ता साथ-साथ चलता है
साथ ले लो सिपर मौहब्बत की
उस की नफ़रत का वार सहना है
तुझ से टूटा जो इक तअल्लुक़ था
अब तो सारे जहाँ से रिश्ता है
ख़ुद से मिलकर बहुत उदास था आज
वो जो हँस-हँस के सबसे मिलता है
उस की यादें भी साथ छोड़ गईं
इन दिनों दिल बहुत अकेला है
शब्दार्थ :
तन्हा=अकेला; सिपर=ढाल।
बिखरते टूटते लम्हों को अपना समसफ़र जाना
बिखरते टूटते लम्हों को अपना समसफ़र जाना|
था इस राह में आख़िर हमें ख़ुद भी बिखर जाना|
हवा के दोश पर बादल के टुकड़े की तरह हम हैं,
किसी झोंके से पूछेंगे कि है हम को किधर जाना|
[दोश=कंधे]
मेरे जलते हुए घर की निशानी बस यही होगी,
जहाँ इस शहर में रौशनी देखो ठहर जाना|
पस-ए-ज़ुल्मत कोई सूरज हमारा मुन्तज़िर होगा,
इसी एक वहम को हम ने चिराग़-ए-रह्गुज़र जाना|
[पस-ए-ज़ुल्मत= अन्धेरे के आगे; मुन्तज़िर=इंतज़ार करता हुआ]
दयार-ए-ख़ामोशी से कोई रह-रह कर बुलाता है,
हमें "मख्मूर" एक दिन है इसी आवाज़ पर जाना|
[दयार-ए-ख़ामोशी=मौत का घर]
पार करना है नदी को तो उतर पानी में
पार करना है नदी को तो उतर पानी में
बनती जाएगी ख़ुद एक राहगुज़र पानी में
ज़ौक़े-तामीर था हम ख़ानाख़राबों का अजब
चाहते थे कि बने रेत का घर पानी में
सैले-ग़म आँखों से सब-कुछ न बहा ले जाए
डूब जाए न ये ख़्वाबों का नगर पानी में
कश्तियाँ डूबने वालों के तजस्सुस में न जाएँ
रह गया कौन, ख़ुदा जाने किधर पानी में
अब जहाँ पाँव पड़ेगा यही दलदल होगी
जुस्तजू ख़ुश्क ज़मीनों की न कर पानी में
मौज-दर-मौज, यही शोर है तुग़यानी का
साहिलों की किसे मिलती है ख़बर पानी में
ख़ुद भी बिखरा वो, बिखरती हुई हर लहर के साथ
अक्स अपना उसे आता था नज़र पानी में
शब्दार्थ :
राहगुज़र=रास्ता; ज़ौक़े-तामीर=निर्माण की रुचि, ख़ानाख़राब=बेघरबार; सैले-ग़म=दुख की बाढ़; तजस्सुस=खोज; जुस्तजू=तलाश; ख़ुश्क=शुष्क; मौज-दर-मौज=लहर पर लहर; तुग़यानी=तूफ़ान; साहिल=किनारा; अक्स=बिम्ब।
न रास्ता न कोई डगर है यहाँ
न रास्ता न कोई डगर है यहाँ|
मगर सब की क़िस्मत सफ़र है यहाँ|
सुनाई न देगी दिलों की सदा,
दिमाग़ों में वो शोर-ओ-शर है यहाँ|
हवाओं की उँगली पकड़ कर चलो,
वसिला इक यही मोतबर है यहाँ|
न इस शहर-ए-बेहिस को सेहरा कहो,
सुनो इक हमारा भी घर है यहाँ|
पलक भी झपकते हो "मख्मूर" क्यूँ,
तमाशा बहुत मुख़्तसर है यहाँ|
जहाँ मैं जाऊँ हवा का यही इशारा हो
जहाँ मैं जाऊँ हवा का यही इशारा हो|
कोई नहीं जो यहाँ मुन्तज़िर तुम्हारा हो|
मेरी बुझती हुई आँखों को रौशनी बख़्शे,
वो फूल जो तेरे चेहरे का इस्त'अरा हो|
चला हूँ अपनी ही आवाज़-ए-बाज़्गश्त पे यूँ,
किसी ने दूर से जैसे मुझे पुकारा हो|
गँवा चुके कई उम्रें उम्मीद्वार तेरे,
कहाँ तक और तेरी बेरुख़ी गवारा हो|
तू पास आते हुये मुझ से दूर हो जाये,
अजब नहीं कि यही हादसा दोबारा हो|
नज़र फ़रेबी-ए-रंग-ए-चमन से बच 'मख्मूर',
जिसे तू फूल समझ ले कहीं शरारा हो|
अपना यही है सहन यही सायबान है
अपना यही है सहन यही सायबान है
फैली हुई ज़मीन खुला आस्मान है
चारो तरफ़ हवा की लचकती कमान है
ये शाख से परिन्द की पहली उड़ान है
जो चल पड़े हैं कश्ती-ए-मौजे-रवाँ लिए
चादर हवा की उनके लिए बादबान है
क़ुर्बत की साअतों में भी कुछ दूरियाँ-सी हैं
साया किसी का उन के मिरे दर्मियान है
आँखों में तिरे ख़्वाब न दिल में तिरा ख़याल
अब मेरी ज़िन्दगी कोई ख़ाली मकान है
'मख़्मूर' इस सफ़र में न साया तलाश कर
इन रास्तों पे धूप बहुत मेहरबान है
शब्दार्थ :
सहन=आँगन; सायबान=छप्पर; कश्ती-ए-मौजे-रवाँ=बहते हुए पानी की लहर की नाव; बादबान=पाल; क़ुर्बत=सामीप्य; साअतों=क्षणों।
चल पड़े हैं तो कहीं जाकर ठहरना होगा
चल पड़े हैं तो कहीं जा के ठहरना होगा
ये तमाशा भी किसी दिन हमें करना होगा
रेत का ढेर थे हम, सोच लिया था हम ने
जब हवा तज़ चलेगी तो बिखरना होगा
हर नए मोड़ प' ये सोच क़दम रोकेगी
जाने अब कौन सी राहों से गुज़रना होगा
ले के उस पार न जाएगी जुदा राह कोई
भीड़ के साथ ही दलदल में उतरना होगा
ज़िन्दगी ख़ुद ही इक आज़ार है जिस्मो-जाँ का
जीने वालों को इसी रोग में मरना होगा
क़ातिले-शहर के मुख़बिर दरो-दीवार भी हैं
अब सितमगर उसे कहते हुए डरना होगा
आए हो उसकी अदालत में तो 'मख़्मूर' तुम्हें
अब किसी जुर्म का इक़रार तो करना होगा
बुधवार, जून 03, 2009
हम पढ़ रहे थे ख़्वाब के पुर्ज़ों को जोड़ के
हम पढ़ रहे थे ख़्वाब के पुर्ज़ों को जोड़ के
आँधी ने ये तिलिस्म भी रख डाला तोड़ के
आग़ाज़ क्यों किया था सफ़र उन ख़्वाबों का
पछता रहे हो सब्ज़ ज़मीनों को छोड़ के
इक बूँद ज़हर के लिये फैला रहे हो हाथ
देखो कभी ख़ुद अपने बदन को निचोड़ के
कुछ भी नहीं जो ख़्वाब की तरह दिखाई दे
कोई नहीं जो हम को जगाये झिन्झोड़ के
इन पानियों से कोई सलामत नहीं गया
है वक़्त अब भी कश्तियाँ ले जाओ मोड़ के
हद-ए-निगाह तक ये ज़मीं
हद-ए-निगाह तक ये ज़मीं है सियाह फिर
निकली है जुगनुओं की भटकती सिपाह फिर
होंठों पे आ रहा है कोई नाम बार-बार
सन्नाटों की तिलिस्म को तोड़ेगी आह फिर
पिछले सफ़र की गर्द को दामन से झाड़ दो
आवाज़ दे रही है कोई सूनी राह फिर
बेरंग आसमाँ को देखेगी कब तलक
मंज़र नया तलाश करेगी निगाह फिर
ढीली हुई गिरफ़्त जुनूँ की के जल उठा
ताक़-ए-हवस में कोई चराग़-ए-गुनाह फिर
सूरज का सफ़र ख़त्म हुआ रात न आयी
सूरज का सफ़र ख़त्म हुआ रात न आयी
हिस्से में मेरे ख्वाबों की सौगत न आयी
मौसम ही पे हम करते रहे तब्सरा ता देर
दिल जिस से दुखे ऐसी कोई बात न आयी
यूं डोरे को हम वक्त की पकड़े तो हुए थे
एक बार मगर छूटी तो फिर हाथ न आयी
हमराह कोई और न आया तो क्या गिला
परछाई भी जब मेरी मेरे साथ न आयी
हर सिम्त नज़र आती हैं बेफ़सल ज़मीन
इस साल भी शहर में बरसात न आयी
सीने में जलन
सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यूँ है
इस शहर में हर शख़्स परेशान सा क्यूँ है
दिल है तो धड़कने का बहाना कोई ढूँढे
पत्थर की तरह बेहिस-ओ-बेजान सा क्यूँ है
तन्हाई की ये कौन सी मन्ज़िल है रफ़ीक़ो
ता-हद्द-ए-नज़र एक बयाबान सा क्यूँ है
हम ने तो कोई बात निकाली नहीं ग़म की
वो ज़ूद-ए-पशेमान पशेमान सा क्यूँ है
क्या कोई नई बात नज़र आती है हम में
आईना हमें देख के हैरान सा क्यूँ है
टिप्पणी:
इस गज़ल को शहरयार ने 1979 में बनी फ़िल्म "गमन" के लिये लिखा था।
शंख बजने की घड़ी
आँख मन्दिर के कलश पर रखो
शंख बजने की घड़ी आ पहुँची
देवदासी के कदम रुक- रुक कर
आगे बढ़ते हैं
जमीं के नीचे
गाय को सींग बदलने की बड़ी जल्दी है
बुलहवस आखों ने फिर जाल बुना
खून टपकाती जबाँ फिर से हुई मसरुफे-सफर
साधना भंग ना हो अब के भी
जोर से चीख के श्लोक
पुजारी ने पढ़े
आँख मन्दिर के कलश पर रक्खो
ये क्या जगह है दोस्तों
ये क्या जगह है दोस्तो ये कौन सा दयार है
हद्द-ए-निगाह तक जहाँ ग़ुबार ही ग़ुबार है
ये किस मुकाम पर हयात मुझ को लेके आ गई
न बस ख़ुशी पे है जहाँ न ग़म पे इख़्तियार है
तमाम उम्र का हिसाब माँगती है ज़िन्दगी
ये मेरा दिल कहे तो क्या ये ख़ुद से शर्मसार है
बुला रहा क्या कोई चिलमनों के उस तरफ़
मेरे लिये भी क्या कोई उदास बेक़रार है
न जिस की शक्ल है कोई न जिस का नाम है कोई
इक ऐसी शै का क्यों हमें अज़ल से इंतज़ार है
टिप्पणी:
इस गज़ल को शहरयार ने फ़िल्म "उमराव जान" के लिये लिखा था।
यह क़ाफ़िले यादों के कहीं खो गये होते
यह क़ाफ़िले यादों के कहीं खो गये होते
इक पल भी अगर भूल से हम सो गये होते
ऐ शहर तेरा नाम-ओ-निशां भी नहीं होता
जो हादसे होने थे अगर हो गये होते
हर बार पलटते हुए घर को यही सोचा
ऐ काश किसी लम्बे सफ़र को गए होते
हम ख़ुश हैं हमें धूप विरासत में मिली है
अज़दाद कहीं पेड़ भी कुछ बो गये होते
किस मुंह से कहें तुझसे समन्दर के हैं हक़दार
सेराब सराबों से भी हम हो गये होते
मैं नहीं जागता
मैं नहीं जागता, तुम जागो
सियाह रात की जुल्फ, इतनी उलझी है कि सुलझा नहीं सकता
बारहा* कर चुका कोशिश मैं तो
तुम भी अपनी सी करो
इस तगो-दौ* के लिए ख्वाब मेरे हाजिर हैं
नींद इन ख्वाबों के दरवाजों से लौट जाती है
सुनो, जागने के लिए इनका होना
सहूल कर देगा बहुत कुछ तुम पर
आसमां रंग में कागज की नाव
रुक गई है इसे हरकत में लाओ
और क्या करना है तुम जानते हो
मैं नहीं जागता, तुम जागो
सियाह रात की जुल्फ
इतनी उलझी है कि सुलझा नहीं सकता
# कई बार
# दौड़धूप
महफिल में बहुत लोग थे
महफिल में बहुत लोग थे मै तन्हा गया था
हाँ तुझ को वहाँ देख कर कुछ डर सा लगा था
ये हादसा किस वक्त कहाँ कैसे हुआ था
प्यासों के तअक्कुब* सुना दरिया गया था
आँखे हैं कि बस रौजने दीवार* हुई हैं
इस तरह तुझे पहले कभी देखा गया था
ऐ खल्के-खुदा तुझ को यकीं आए-न-आए
कल धूप तहफ्फुज* के लिए साया गया था
वो कौन सी साअत थी पता हो तो बताओ
ये वक्त शबो-रोज* में जब बाँटा गया था
पीछा करना
झरोखा
संरक्षण
रात-दिन
नया अमृत
दवाओं की अलमारियों से सजी
इक दुकान में
मरीज़ों के अन्बोह में मुज़्महिल सा
इक इन्साँ खड़ा है
जो इक कुबड़ी सी शीशी के
सीने पे लिखे हुए
इक-इक हर्फ़ को ग़ौर से पढ़ रहा है
मगर इस पे तो ज़हर लिखा हुआ है
इस इन्सान को क्या मर्ज़ है
ये कैसी दवा है
दुश्मन-दोस्त सभी कहते हैं
दुश्मन-दोस्त सभी कहते हैं, बदला नहीं हूँ मैं।
तुझसे बिछड़ के क्यों लगता है, तनहा नहीं हूँ मैं।
उम्र-सफश्र में कब सोचा था, मोड़ ये आयेगा।
दरिया पार खड़ा हूँ गरचे प्यासा नहीं हूँ मैं।
पहले बहुत नादिम था लेकिन आज बहुत खुश हूँ।
दुनिया-राय थी अब तक जैसी वैसा नहीं हूँ मैं।
तेरा लासानी होना तस्लीम किया जाए।
जिसको देखो ये कहता है तुझ-सा नहीं हूँ मैं।
ख्वाबतही कुछ लोग यहाँ पहले भी आये थे।
नींद-सराय तेरा मुसाफिश्र पहला नहीं हूँ मैं।
दिल चीज़ क्या है
दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिये
बस एक बार मेरा कहा मान लीजिये
इस अंजुमन में आपको आना है बार-बार
दीवार-ओ-दर को ग़ौर से पहचान लीजिये
माना के दोस्तों को नहीं दोस्ती का पास
लेकिन ये क्या के ग़ैर का एहसान लीजिये
कहिये तो आसमाँ को ज़मीं पर उतार लाएँ
मुश्किल नहीं है कुछ भी अगर ठान लीजिये
टिप्पणी:
इस गज़ल को शहरयार ने फ़िल्म
"उमराव जान" के लिये लिखा था।
जुस्तजू जिस की थी
जुस्तजू जिस की थी उस को तो न पाया हम ने
इस बहाने से मगर देख ली दुनिया हम ने
तुझ को रुसवा न किया ख़ुद भी पशेमाँ न हुये
इश्क़ की रस्म को इस तरह निभाया हम ने
कब मिली थी कहाँ बिछड़ी थी हमें याद नहीं
ज़िन्दगी तुझ को तो बस ख़्वाब में देखा हम ने
ऐ "अदा" और सुनाये भी तो क्या हाल अपना
उम्र का लम्बा सफ़र तय किया तन्हा हम ने
जुस्तजू जिस की थी उस को तो न पाया हम ने
इस बहाने से मगर देख ली दुनिया हम ने
तुझ को रुसवा न किया ख़ुद भी पशेमाँ न हुये
इश्क़ की रस्म को इस तरह निभाया हम ने
कब मिली थी कहाँ बिछड़ी थी हमें याद नहीं
ज़िन्दगी तुझ को तो बस ख़्वाब में देखा हम ने
ऐ "अदा" और सुनाये भी तो क्या हाल अपना
उम्र का लम्बा सफ़र तय किया तन्हा हम ने
टिप्पणी:
इस गज़ल को शहरयार ने फ़िल्म "उमराव जान" के
लिये लिखा था। फ़िल्म में नायिका उमराव जान एक
शायरा भी हैं और उनका तख़ल्लुस "अदा" है।
ज़िन्दगी जैसी तमन्ना थी
ज़िन्दगी जैसी तमन्ना थी नहीं कुछ कम है
हर घड़ी होता है एहसास कहीं कुछ कम है
घर की तामीर तसव्वुर ही में हो सकती है
अपने नक़्शे के मुताबिक़ ये ज़मीं कुछ कम है
बिछड़े लोगों से मुलाक़ात कभी फिर होगी
दिल में उम्मीद तो काफ़ी है यक़ीं कुछ कम है
अब जिधर देखिये लगता है कि इस दुनिया में
कहीं कुछ चीज़ ज़ियादा है कहीं कुछ कम है
आज भी है तेरी दूरी ही उदासी का सबब
ये अलग बात कि पहली सी नहीं कुछ कम है
ज़िन्दगी जब भी तेरी बज़्म में
ज़िन्दगी जब भी तेरी बज़्म में लाती है हमें
ये ज़मीं चाँद से बेहतर नज़र आती है हमें
सुर्ख़ फूलों से महक उठती हैं दिल की राहें
दिन ढले यूँ तेरी आवाज़ बुलाती है हमें
याद तेरी कभी दस्तक कभी सरगोशी से
रात के पिछले पहर रोज़ जगाती है हमें
हर मुलाक़ात का अंजाम जुदाई क्यूँ है
अब तो हर वक़्त यही बात सताती है हमें
टिप्पणी:
इस गज़ल को शहरयार ने फ़िल्म "उमराव जान"
के लिये लिखा था। फ़िल्म में नायिका उमराव जान
एक शायरा भी हैं और उनका तख़ल्लुस "अदा" है।
ज़िंदगी जैसी तवक्को थी नहीं
ज़िंदगी जैसी तवक्को थी नहीं, कुछ कम है
हर घडी होता है अहसास कहीं कुछ कम है
घर की तामीर तसव्वुर ही में हो सकती है
अपने नक्शे के मुताबिक़ यह ज़मीन कुछ कम है
बिछड़े लोगों से मुलाक़ात कभी फिर होगी
दिल में उम्मीद तो काफी है, यकीन कुछ कम है
अब जिधर देखिए लगता है कि इस दुनिया में
कहीं कुछ ज़्यादा है, कहीं कुछ कम है
आज भी है तेरी दूरी ही उदासी का सबब
यह अलग बात कि पहली सी नहीं कुछ कम है
ख़ून में लथ-पथ हो
ख़ून में लथ-पथ हो गये साये भी अश्जार के
कितने गहरे वार थे ख़ुशबू की तलवार के
इक लम्बी चुप के सिवा बस्ती में क्या रह गया
कब से हम पर बन्द हैं दरवाज़े इज़हार के
आओ उठो कुछ करें सहरा की जानिब चलें
बैठे-बैठे थक गये साये में दिलदार के
रास्ते सूने हो गये दीवाने घर को गये
ज़ालिम लम्बी रात की तारीकी से हार के
बिल्कुल बंज़र हो गई धरती दिल के दश्त की
रुख़सत कब के हो गये मौसम सारे प्यार के
किस-किस तरह से मुझको
किस-किस तरह से मुझको न रुसवा किया गया
ग़ैरों का नाम मेरे लहू से लिखा गया
निकला था मैं सदा-ए-जरस की तलाश में
भूले से इस सुकूत के सहरा में आ गया
क्यों आज उस का ज़िक्र मुझे ख़ुश न कर सका
क्यों आज उस का नाम मेरा दिल दुखा गया
इस हादसे को सुन के करेगा यक़ीं कोई
सूरज को एक झोंका हवा का बुझा गया
किया इरादा बारहा तुझे भुलाने का
किया इरादा बारहा तुझे भुलाने का
मिला न उज़्र ही कोई मगर ठिकाने का
ये कैसी अजनबी दस्तक थी कैसी आहट थी
तेरे सिवा था किसे हक़ मुझे जगाने का
ये आँख है कि नहीं देखा कुछ सिवा तेरे
ये दिल अजब है कि ग़म है इसे ज़माने का
वो देख लो वो समंदर ख़ुश्क होने लगा
जिसे था दावा मेरी प्यास को बुझाने का
ज़मीं पे किस लिये ज़ंजीर हो गये साये
मुझे पता है मगर मैं नहीं बताने का
कटेगा देखिए दिन
कटेगा देखिए दिन जाने किस अज़ाब के साथ
कि आज धूप नहीं निकली आफ़ताब के साथ
तो फिर बताओ समंदर सदा को क्यूँ सुनते
हमारी प्यास का रिश्ता था जब सराब के साथ
बड़ी अजीब महक साथ ले के आई है
नसीम, रात बसर की किसी गुलाब के साथ
फ़िज़ा में दूर तक मरहबा के नारे हैं
गुज़रने वाले हैं कुछ लोग याँ से ख़्वाब के साथ
ज़मीन तेरी कशिश खींचती रही हमको
गए ज़रूर थे कुछ दूर माहताब के साथ
ऐसे हिज्र के मौसम अब कब आते हैं
ऐसे हिज्र के मौसम अब कब आते हैं
तेरे अलावा याद हमें सब आते हैं
जज़्ब करे क्यों रेत हमारे अश्कों को
तेरा दामन तर करने अब आते हैं
अब वो सफ़र की ताब नहीं बाक़ी वरना
हम को बुलावे दश्त से जब-तब आते हैं
जागती आँखों से भी देखो दुनिया को
ख़्वाबों का क्या है वो हर शब आते हैं
काग़ज़ की कश्ती में दरिया पार किया
देखो हम को क्या-क्या करतब आते हैं
इसे गुनाह कहें या कहें सवाब का काम
इसे गुनाह कहें या कहें सवाब का काम
नदी को सौंप दिया प्यास ने सराब का काम
हम एक चेह्रे को हर ज़ाविए से देख सकें
किसी तरह से मुकम्मल हो नक्शे-आब का काम
हमारी आँखे कि पहले तो खूब जागती हैं
फिर उसके बाद वो करतीं है सिर्फ़ ख़्वाब का काम
वो रात-कश्ती किनारे लगी कि डूब गई
सितारे निकले तो थे करने माहताब का काम
फ़रेब ख़ुद को दिए जा रहे हैं और ख़ुश हैं
उसे ख़बर है कि दुश्वार है हिजाब का काम
सराब = मरीचिका
जाविए = कोण
नक्शे-आब = जल्दी मिट जाने वाला निशान
हिजाब = पर्दा
इन आँखों की मस्ती के
इन आँखों की मस्ती के मस्ताने हज़ारों हैं
इन आँखों से वाबस्ता अफ़साने हज़ारों हैं
इक तुम ही नहीं तन्हा उलफ़त में मेरी रुसवा
इस शहर में तुम जैसे दीवाने हज़ारों हैं
इक सिर्फ़ हम ही मय को आँखों से पिलाते हैं
कहने को तो दुनिया में मैख़ाने हज़ारों हैं
इस शम्म-ए-फ़रोज़ाँ को आँधी से डराते हो
इस शम्म-ए-फ़रोज़ाँ के परवाने हज़ारों हैं
टिप्पणी:
इस गज़ल को शहरयार ने फ़िल्म "उमराव जान" के
लिये लिखा था। फ़िल्म में नायिका उमराव जान एक
शायरा भी हैं और उनका तख़ल्लुस "अदा" है।
मंगलवार, जून 02, 2009
अजीब सानेहा मुझ पर गुज़र गया यारो
अजीब सानेहा मुझ पर गुज़र गया यारो
मैं अपने साये से कल रात डर गया यारो
हर एक नक़्श तमन्ना का हो गया धुंधला
हर एक ज़ख़्म मेरे दिल का भर गया यारो
भटक रही थी जो कश्ती वो ग़र्क-ए-आब हुई
चढ़ा हुआ था जो दरिया उतर गया यारो
वो कौन था वो कहाँ का था क्या हुआ था उसे
सुना है आज कोई शख़्स मर गया यारो
असद बदायूँनी की मौत पर
ख़्वाहिशे-मर्ग की सरशारी में
यह भी नहीं सोचा
जीना भी एक कारे-जुनूं है इस दुनिया के बीच
और लम्बे अनजान सफ़र पर चले गए तन्हा
पीछे क्या कुछ छूट गया है
मुड़के नहीं देखा।
अज़ल की नग़्मगी
छिपाई उसने न मुझसे कभी कोई भी बात
मैं राज़दार था उसका, वो ग़मग़ुसार मेरा
कई जनम का बहुत पायदार रिश्ता था
मेरे सिवा भी हज़ारों से उसकी क़ुरबत थी
शिमाख़्त उसकी अगर थी तो बस मुहब्बत थी
सफ़र में ज़ीस्त के वह तेज़गाम था इतना
रुका न वाँ भी जहाँ पर क़्याम करना था
ख़बर ये मुझको मिली कितनी देर से कि उसे
अजल की नग़्मगी मसहूर करती रहती थी
दिले-कुशादा में उसने अजल को रक्खा था
अज़ाबे-हिज्र मुक़द्दर में मेरे लिक्ख़ा था
सो बाक़ी उम्र मुझे यह अज़ाब सहना है
फ़लक को देखना हरदम, ज़मीं पर रहना है
ख़बर ये मुझको मिली कितनी देर से कि उसे
अजल की नग़्मगी मसहूर करती रहती थी।
जीने की लत
मुझसे मिलने आने वाला कोई नहीं है
फिर क्यों घर के दरवाज़े पर तख़्ती अब है
जीने की लत पड़ जाए
तो छूटती कब है।
सहर का खौफ़
शाम का ढलना नई बात नहीं
इसलिए ख़ौफ़ज़दा हूँ इतना
आने वाली जो सहर है उसमें
रात शामिल नहीं
यह जानता हूँ।
जागने का लुत्फ़
तेरे होठों पे मेरे होठ
हाथों के तराज़ू में
बदन को तोलना
और गुम्बदों में दूर तक बारूद की ख़ुशबू
बहुत दिन बाद मुझको जागने में लुत्फ़ आया है।
लम्बे बोसों का मरकज़
वह सुबह का सूरज जो तेरी पेशानी था
मेरे होठों के लम्बे बोसों का मरकज़ था
क्यों आँख खुली, क्यों मुझको यह एहसास हुआ
तू अपनी रात को साथ यहाँ भी लाया है।
सुबह से उदास हूँ।
हवा के दरमियान आज रात का पड़ाव है
मैं अपने ख़्वाब के चिराग़ को
जला न पाऊंगा ये सोच के
बहुत ही बदहवास हूँ
मैं सुबह से उदास हूँ।
तुझे कुछ याद आता है।
मैं तेरे जिस्म तक किन रास्तों से
होके पहुँचा था
ज़मीं, आवाज़ और गंदुम के ख़ोशों की महक
मैं साथ लाया था
तुझे कुछ याद आता है।
एक सच
शोर समाअत के दर पे है, जानते हो
मौत के क़दमों की आहट पहचानते हो
होनी को कोई भी टाल नहीं सकता
यह इक ऎसा सच है, तुम भी मानते हो।
जीने की हवस
सफ़र तेरी जानिब था
अपनी तरफ़ लौट आया
हर इक मोड़ पर मौत से साबक़ा था
मैं जीने से लेकिन कहाँ बाज़ आया।
मंज़र कितना अच्छा होगा।
मैं सुबह सवेरे जाग उठा
तू नींद की बारिश में भीगा, तन्हा होगा
रस्ता मेरा तकता होगा
मंज़र कितना अच्छा होगा।
अजीब काम
रेत को निचोड़कर पानी को निकालना
बहुत अजीब काम है
बड़े ही इनहमाक से ये काम कर रहा हूँ मैं।
शब्दार्थ :
इनहमाक=तन्मयता
ज़िन्दा रहने की शर्त
हर एक शख़्स अपने हिस्से का अज़ाब ख़ुद सहे
कोई न उसका साथ दे
ज़मीं पे ज़िन्दा रहने की ये एक पहली शर्त है।
देर तक बारिश हुई।
शाम को इंजीर के पत्तों के पीछे
एक सरगोशी बरहना पाँव
इतनी तेज़ दौड़ी
मेरा दम घुटने लगा
रेत जैसे ज़ायक़े वाली किसी मशरूब की ख़्वाहिश हुई
वह वहाँ कुछ दूर एक आंधी चली
फिर देर तक बारिश हुई।
शब्दार्थ :
मशरूब=पेय
उस उदास शाम तक
लज़्ज़तों की जुस्तजू में इतनी दूर आ गया हूँ
चाहूँ भी तो लौट के जा नहीं सकूंगा मैं
उस उदास शाम तक
जो मेरे इन्तज़ार में
रात से नहीं मिली।
मैं डरता हूँ
ऐं डरता हूँ,
मैं डरता हूँ, उन लम्हों से
उन आने वाले लम्हों से
जो मेरे दिल और उसके इक-इक गोशे में
बड़ी आज़ादी से ढूँढ़ेंगे
उन ख़्वाबों को, उन राज़ों को
जिन्हें मैंने छिपाकर रखा है इस दुनिया से।
रेंगने वाले लोग
चलते-चलते रेंगने वाले ये लोग
रेंगने में इनके वह दम-ख़म नहीम
ऎसा लगता है कि इनको ज़िल्लतें
मुस्तहक़ मेक़्दार से कुछ कम मिलीं।
मेरे हाफ़िज़े मेरा साथ दे
किसी एक छत की मुंडेर पर
मुझे तक रहा है जो देर से
मेरे हाफ़िज़े मेरा साथ दे
ये जो धुन्ध-सी है ज़रा, हटा
कोई उसका मुझको सुराग़ दे
कि मैं उसको नाम से दूँ सदा।
जो इन्सान था पहले कभी
शहर सारा ख़ौफ़ में डूबा हुआ है सुबह से
रतजगों के वास्ते मशहूर एक दीवाना शख़्स
अनसुनी, अनदेखी ख़बरें लाना जिसका काम है
उसका कहना है कि कल की रात कोई दो बजे
तेज़ यख़बस्ता हवा के शोर में
इक अजब दिलदोज़, सहमी-सी सदा थी हर तरफ़
यह किसी बुत की थी जो इन्सान था पहले कभी।
शब्दार्थ :
यख़बस्ता= ठंडी; सदा=पुकार,आवाज़
सहरा की हदों में दाख़िल
सहरा की हदों में दाख़िल
जो लोग नहीं हो पाए
शहरों की बहुत-सी यादें
हमराह लिए आए थे।
तसलसुल के साथ
वह, उधर सामने बबूल तले
इक परछाईं और इक साया
अपने जिस्मों को याद करते हैं
और सरगोशियों की ज़र्बों से
इक तसलसुल के साथ वज्द में हैं।
किस तरह निकलूँ
मैं नीले पानियों में घिर गया हूँ
किस तरह निकलूँ
किनारे पर खड़े लोगों के हाथों में
ये कैसे फूल हैं?
मुझे रुख़्सत हुए तो मुद्दतें गुज़रीं।
पानी की दीवार का गिरना
बामे-खला से जाकर देखो
दूर उफ़क पर सूरज-साया
और वहीं पर आस-पास ही
पानी की दीवार का गिरना
बोलो तो कैसा लगता है?
अज़ाब की लज़्ज़त
फिर रेत भरे दस्ताने पहने बच्चों का
इक लम्बा जुलूस निकलते देखने वाले हो
आँखों को काली लम्बी रात से धो डालो
तुम ख़ुशक़िस्मत हो, ऎसे अज़ाब की लज़्ज़त
फिर तुम चक्खोगे।
सवारे-बेसमंद
ज़मीन जिससे छुट गई
बाब ज़िन्दगी का जिस पे बन्द है
वो जानता है यह कि वह सवारे-बेसमंद है
मगर वो क्या करे,
कि उसको आसमाँ को जाने वाला रास्ता पसन्द है।
शब्दार्थ :
सवारे-बेसमंद=बिना घोड़े का सवार; बाब=दरवाज़ा
शुक्रवार, मई 29, 2009
लम्बी चुप का नतीजा
मेरे दिल की ख़ौफ़-हिकायत में
यह बात कहीं पर दर्ज करो
मुझे अपनी सदा सुनने की सज़ा
लम्बी चुप की सूरत में
मेरे बोलने में जो लुकनत है
इस लम्बी चुप का नतीजा है।
शब्दार्थ :
लुकनत=तुतलाहट
ख़्वाब को देखना कुछ बुरा तो नहीं
बर्फ़ की उजली पोशाक पहने हुए
इन पहाड़ों में वह ढूंढ़ना है मुझे
जिसका मैं मुन्तज़िर एक मुद्दत से हूँ
ऎसा लगता है, ऎसा हुआ तो नहीं
ख़्वाब को देखना कुछ बुरा तो नहीं।
ख़लीलुर्रहमान आज़मी की याद में
धूल में लिपटे चेहरे वाला
मेरा साया
किस मंज़िल, किस मोड़ पर बिछड़ा
ओस में भीगी यह पगडंडी
आगे जाकर मुड़ जाती है
कतबों की ख़ुशबू आती है
घर वापस जाने की ख़्वाहिश
दिल में पहले कब आती है
इस लम्हे की रंग-बिरंगी सब तस्वीरें
पहली बारिश में धुल जाएँ
मेरी आँखों में लम्बी रातें घुल जाएँ।
नींद से आगे की मंज़िल
ख़्वाब कब टूटते हैं
आँखें किसी ख़ौफ़ की तारीकी से
क्यों चमक उठती हैं
दिल की धड़कन में तसलसुल बाक़ी नहीं रहता
ऎसी बातों को समझना नहीं आसान कोई
नींद से आगे की मंज़िल नहीं देखी तुमने।
बदन के आस-पास
लबों पे रेत हाथों में गुलाब
और कानों में किसी नदी की काँपती सदा
ये सारी अजनबी फ़िज़ा
मेरे बदन के आस-पास आज कौन है।
दोस्त अहबाब की नज़रों में बुरा हो गया मैं
दोस्त अहबाब की नज़रों में बुरा हो गया मैं
वक़्त की बात है क्या होना था, क्या हो गया मैं।
दिल के दरवाज़े को वा रखने की आदत थी मुझे
याद आता नहीं कब किससे जुदा हो गया मैं।
कैसे तू सुनता बड़ा शोर था सन्नाटों का
दूर से आती हुई ऎसी सदा हो गया मैं।
क्या सबब इसका था, ख़ुद मुझ को भी मालूम नहीं
रात ख़ुश आ गई, और दिन से ख़फ़ा हो गया मैं।
भूले-बिसरे हुए लोगों में कशिश अब भी है
उनका ज़िक्र आया कि फिर नग़्मासरा हो गया मैं।
शब्दार्थ :
वा=खुला
सबसे जुदा हूँ मैं भी, अलग तू भी सबसे है
सबसे जुदा हूँ मैं भी, अलग तू भी सबसे है
इस सच का एतराफ़ ज़माने को कब से है।
फिर लोग क्यों हमारा कहा मानते नहीं
सूरज को ख़ौफ़-सायए-दीवारे-शब से है।
जो मंज़र देखने वाली हैं आँखें रोने वाला है
जो मंज़र देखने वाली हैं आँखें रोने वाला है
कि फिर बंजर ज़मीं में बीज कोई बोने वाला है।
बहादुर लोग नादिम हो रहे हैं हैरती में हूँ
अजब दहशत-ख़बर है शहर खाली होने वाला है।
सुनो ख़ुश-बख़्त लोगो! लम्हए-नायाब आया है
सुनो ख़ुश-बख़्त लोगो! लम्हए-नायाब आया है
ज़मीं पर पैरहन पहने बिना महताब आया है।
बना सकता है तुममें कोई काग़ज़-नाव बतलाओ
सुना है शहर में, ऎ शहरियो सैलाब आया है।
कटेगा देखिए दिन जाने किस अज़ाब के साथ
कटेगा देखिए दिन जाने किस अज़ाब के साथ
कि आज धूप नहीं निकली आफ़ताब के साथ
तो फिर बताओ समंदर सदा को क्यूँ सुनते
हमारी प्यास का रिश्ता था जब सराब के साथ
बड़ी अजीब महक साथ ले के आई है
नसीम, रात बसर की किसी गुलाब के साथ
फ़िज़ा में दूर तक मरहबा के नारे हैं
गुज़रने वाले हैं कुछ लोग याँ से ख़्वाब के साथ
ज़मीन तेरी कशिश खींचती रही हमको
गए ज़रूर थे कुछ दूर माहताब के साथ
बुझने के बाद जलना गवारा नहीं किया
बुझने के बाद जलना गवारा नहीं किया,
हमने कोई भी काम दोबारा नहीं किया।
अच्छा है कोई पूछने वाला नहीं है यह
दुनिया ने क्यों ख़याल हमारा नहीं किया।
जीने की लत पड़ी नहीं शायद इसीलिए
झूठी तसल्लियों पे गुज़ारा नहीं किया।
यह सच अगर नहीं तो बहुत झूठ भी नहीं
तुझको भुला के कोई ख़सारा नहीं किया।
शब्दार्थ :
ख़सारा= नुक़सान
इसे गुनाह कहें या सवाब का काम
इसे गुनाह कहें या कहें सवाब का काम
नदी को सौंप दिया प्यास ने सराब का काम
हम एक चेह्रे को हर ज़ाविए से देख सकें
किसी तरह से मुकम्मल हो नक्शे-आब का काम
हमारी आँखे कि पहले तो खूब जागती हैं
फिर उसके बाद वो करतीं है सिर्फ़ ख़्वाब का काम
वो रात-कश्ती किनारे लगी कि डूब गई
सितारे निकले तो थे करने माहताब का काम
फ़रेब ख़ुद को दिए जा रहे हैं और ख़ुश हैं
उसे ख़बर है कि दुश्वार है हिजाब का काम
सराब = मरीचिका
जाविए = कोण
नक्शे-आब = जल्दी मिट जाने वाला निशान
हिजाब = पर्दा
जो कहते हैं कहीं दरिया नहीं है
जो कहते हैं कहीं दरिया नहीं है
सुना उन से कोई प्यासा नहीं है।
दिया लेकर वहाँ हम जा रहे हैं
जहाँ सूरज कभी ढलता नहीं है।
न जाने क्यों हमें लगता है ऎसा
ज़मीं पर आसमाँ साया नहीं है।
थकन महसूस हो रुक जाना चाहें
सफ़र में मोड़ वह आया नहीं है।
चलो आँखों में फिर से नींद बोएँ
कि मुद्दत से उसे देखा नहीं है।
तमाम शह्र में जिस अजनबी का चर्चा है
तमाम शह्र में जिस अजनबी का चर्चा है
सभी की राय है, वह शख़्स मेरे जैसा है।
बुलावे आते हैं कितने दिनों से सहरा के
मैं कल ये लोगों से पूछूंगा किस को जाना है।
कभी ख़याल ये आता है खेल ख़त्म हुआ
कभी गुमान गुज़रता है एक वक़्फ़ा है।
सुना है तर्के-जुनूँ तक पहुँच गए हैं लोग
ये काम अच्छा नहीं पर मआल अच्छा है।
ये चल-चलावे के लम्हे हैं, अब तो सच बोलो
जहाँ ने तुम को कि तुम ने जहाँ को बदला है।
पलट के पीछे नहीं देखता हूँ ख़ौफ़ से मैं
कि संग होते हुए दोस्तों को देखा है।
शब्दार्थ :
मआल=नतीजा या परिणाम; संग=पत्थर
बुरा अब हो गया अच्छा कैसे
जो बुरा था कभी अब हो गया अच्छा कैसे
वक़्त के साथ मैं इस तेज़ी से बदला कैसे।
जिनको वह्शत से इलाक़ा नहीं वे क्या जानें
बेकराँ दश्त मेरे हिस्से में आया कैसे।
कोई इक-आध सबब होता तो बतला देता
प्यास से टूट गया पानी का रिश्ता कैसे।
हाफ़िज़े में मेरे बस एक खंडहर-सा कुछ है
मैं बनाऊँ तो किसी शह्र का नक़्शा कैसे।
बारहा पूछना चाहा कभी हिम्मत न हुई
दोस्तो रास तुम्हें आई यह दुनिया कैसे।
ज़िन्दगी में कभी एक पल ही सही ग़ौर करो
ख़त्म हो जाता है जीने का तमाशा कैसे।
शिकवा कोई दरिया की रवानी से नहीं है
शिकवा कोई दरिया की रवानी से नहीं है
रिश्ता ही मेरी प्यास का पानी से नहीं है।
कल यूँ था कि ये क़ैदे-ज़्मानी से थे बेज़ार
फ़ुर्सत जिन्हें अब सैरे-मकानी से नहीं है।
चाहा तो यकीं आए न सच्चाई पे इसकी
ख़ाइफ़ कोई गुल अहदे-खिज़ानी से नहीं है।
दोहराता नहीं मैं भी गए लोगों की बातें
इस दौर को निस्बत भी कहानी से नहीं है।
कहते हैं मेरे हक़ में सुख़नफ़ह्म बस इतना
शे'रों में जो ख़ूबी है मआनी से नहीं है।
शब्दार्थ :
क़ैदे-ज़मानी=समय की पाबन्दी; सैरे-मकानी=दुनिया की सैर;
ख़ाइफ़=डरा हुआ;अहदे-ख़िज़ानी=पतझड़ का मौसम; मआनी=अर्थ
दिल में तूफ़ान है
दिल में तूफ़ान है और आँखों में तुग़यानी है
ज़िन्दगी हमने मगर हार नहीं मानी है।
ग़मज़दा वो भी हैं दुश्वार है मरना जिन को
वो भी शाकी हैं जिन्हें जीने की आसानी है।
दूर तक रेत का तपता हुआ सहरा था जहाँ
प्यास का किसकी करश्मा है वहाँ पानी है।
जुस्तजू तेरे अलावा भी किसी की है हमें
जैसे दुनिया में कहीं कोई तेरा सानी है।
इस नतीजे पर पहुँचते हैं सभी आख़िर में
हासिले-सैरे-जहाँ कुछ नहीं हैरानी है।
शब्दार्थ :
शाकी= शिकायत करने वाला; सानी=बराबर
मुग़्नी तबस्सुम के लिए
ऎ अज़ीज़ अज़ जान मुग़्नी
तेरी परछाई हूँ लेकिन कितना इतराता हूँ मैं
आज़मी का मरना
नज्मा का बिछड़ना
तेरे बल-बूते पर यह सब सह गया
भूल कर भी यह ख़याल आया नहीं मुझको
कि तन्हा रह गया
तेरी उल्फ़त में अजब जादू-असर है
तेरी परछाईं रहूँ जब तक जियूँ
यह चाहता हूँ
ऎ ख़ुदा!
छोटी-सी कितनी बेज़रर यह आरज़ू है
आरज़ू यह मैंने की है
इस भरोसे पर कि तू है।
आज़मी= ख़लीलुर्रहमान आज़मी (कवि के दोस्त);
नज्मा= कवि की पत्नी; बेज़रर= हानि न पहुँचाने वाली
ख़्वाब का दर बंद है.
मेरे लिए रात ने
आज फ़राहम किया
एक नया मर्हला
नींदों ने ख़ाली किया
अश्कों से फ़िर भर दिया
कासा मेरी आँख का
और कहा कान में
मैंने हर एक जुर्म से
तुमको बरी कर दिया
मैंने सदा के लिए
तुमको रिहा कर दिया
जाओ जिधर चाहो तुम
जागो कि सो जाओ तुम
ख़्वाब का दर बंद है
सुन तो सही जहाँ में है तेरा फ़साना क्या
सुन तो सही जहाँ में है तेरा फ़साना क्या
केहती है तुझको खल्क़-ए-खुदा ग़ाएबाना क्या
ज़ीना सबा का ढूँढती है अपनी मुश्त-ए-ख़ाक
बाम-ए-बलन्द यार का है आस्ताना क्या
ज़ेरे ज़मीं से आता है गुल हर सू ज़र-ए-बकफ़
क़ारूँ ने रास्ते में लुटाया खज़ाना क्या
चारों तरफ़ से सूरत-ए-जानाँ हो जलवागर
दिल साफ़ हो तेरा तो है आईना खाना क्या
तिब्ल-ओ-अलम न पास है अपने न मुल्क-ओ-माल
हम से खिलाफ़ हो के करेगा ज़माना क्या
आती है किस तरह मेरी क़ब्ज़-ए-रूह को
देखूँ तो मौत ढूँढ रही है बहाना क्या
तिरछी निगह से ताइर-ए-दिल हो चुका शिकार
जब तीर कज पड़ेगा उड़ेगा निशाना क्या?
बेताब है कमाल हमारा दिल-ए-अज़ीम
महमाँ साराय-ए-जिस्म का होगा रवना क्या
यूँ मुद्दई हसद से न दे दाद तू न दे
आतिश ग़ज़ल ये तूने कही आशिक़ाना क्या?
ये आरज़ू थी तुझे गुल के रूबरू करते
ये आरज़ू थी तुझे गुल के रूबरू करते
हम और बुलबुल-ए-बेताब गुफ़्तगू करते
पयाम बर न मयस्सर हुआ तो ख़ूब हुआ
ज़बान-ए-ग़ैर से क्या शर की आरज़ू करते
मेरी तरह से माह-ओ-महर भी हैं आवारा
किसी हबीब को ये भी हैं जुस्तजू करते
जो देखते तेरी ज़ंजीर-ए-ज़ुल्फ़ का आलम
असीर होने के आज़ाद आरज़ू करते
न पूछ आलम-ए-बरगश्ता तालि-ए-"आतिश"
बरसती आग में जो बाराँ की आरज़ू करते
यार को मैंने मुझे यार ने सोने न दिया
यार को मैं ने मुझे यार ने सोने न दिया
रात भर तालि'-ए-बेदार ने सोने न दिया
एक शब बुलबुल-ए-बेताब के जागे न नसीब
पहलू-ए-गुल में कभी ख़ार ने सोने न दिया
रात भर की दिल-ए-बेताब ने बातें मुझ से
मुझ को इस इश्क़ के बीमार ने सोने न दिया
दोस्त हो जब दुश्मने-जाँ
दोस्त हो जब दुश्मने-जाँ तो क्या मालूम हो
आदमी को किस तरह अपनी कज़ा मालूम हो
आशिक़ों से पूछिये खूबी लबे-जाँबख्श की
जौहरी को क़द्रे-लाले-बेबहा मालूम हो
दाम में लाया है "आतिश" सब्जये-ख़ते-बुतां
सच है क्या इंसा को किस्मत का लिखा मालूम हो
तड़पते हैं न रोते हैं
तड़पते हैं न रोते हैं न हम फ़रियाद करते हैं
सनम की याद में हर-दम ख़ुदा को याद करते हैं
उन्हीं के इश्क़ में हम नाला-ओ-फ़रियाद करते हैं
इलाही देखिये किस दिन हमें वो याद करते हैं
शब-ए-फ़ुर्क़त में क्या क्या साँप लहराते हैं सीने पर
तुम्हारी काकुल-ए-पेचाँ को जब हम याद करते हैं
हमारे दरमियाँ
हमारे दरमियाँ ऐसा कोई रिश्ता नहीं था
तेरे शानों पे कोई छत नहीं थी
मेरे ज़िम्मे कोई आँगन नहीं था
कोई वादा तेरी ज़ंज़ीर-ए-पा बनने नहीं पाया
किसी इक़रार ने मेरी कलाई को नहीं थामा
हवा-ए-दश्त की मानिन्द
तू आज़ाद था
रास्ते तेरी मर्ज़ी के तबे थे
मुझे भी अपनी तन्हाई पे
देखा जाये तो
पूरा तसर्रुफ़ था
मगर जब आज तू ने
रास्ता बदला
तो कुछ ऐसा लगा मुझ को
के जैसे तूने मुझ से बेवफ़ाई की
हमने ही लौटने का
हमने ही लौटने का इरादा नहीं किया
उसने भी भूल जाने का वादा नहीं किया
दुःख ओढ़ते नहीं कभी जश्ने-तरब में हम
मलाबूसे-दिल को तन का लाबादा नहीं किया
जो ग़म मिला है बोझ उठाया है उसका ख़ुद
सर-ज़ेर-बारे-सागरो-बादा नहीं किया
कारे-जहाँ हमें भी बहुत थे सफ़र की शाम
उसने भी इल्तिफ़ात ज़ियादा नहीं किया
आमद पे तेरे इतरो-चरागो-सुबू न हो
इतना भी बूदो-बाश तो सादा नहीं किया
सुंदर कोमल सपनों की बारात
सुंदर कोमल सपनों की बारात गुज़र गई जानाँ
धूप आँखों तक आ पहुँची है रात गुज़र गई जानाँ
भोर समय तक जिसने हमें बाहम उलझाये रखा
वो अलबेली रेशम जैसी बात गुज़र गई जानाँ
सदा की देखी रात हमें इस बार मिली तो चुप के से
ख़ाली हाथ पे रख के क्या सौग़ात गुज़र गई जानाँ
किस कोंपल की आस में अब तक वैसे ही सर-सब्ज़ हो तुम
अब तो धूप का मौसम है बरसात गुज़र गई जानाँ
लोग न जाने किन रातों की मुरादें माँगा करते हैं
अपनी रात तो वो जो तेरे साथ गुज़र गई जानाँ
सब्ज़ मद्धम रोशनी में
सब्ज़ मद्धम रोशनी में सुर्ख़ आँचल की धनक
सर्द कमरे में मचलती गर्म साँसों की महक
बाज़ूओं के सख्त हल्क़े में कोई नाज़ुक बदन
सिल्वटें मलबूस पर आँचल भी कुछ ढलका हुआ
गर्मी-ए-रुख़्सार से दहकी हुई ठंडी हवा
नर्म ज़ुल्फ़ों से मुलायम उँगलियों की छेड़ छाड़
सुर्ख़ होंठों पर शरारत के किसी लम्हें का अक्स
रेशमी बाहों में चूड़ी की कभी मद्धम धनक
शर्मगीं लहजों में धीरे से कभी चाहत की बात
दो दिलों की धड़कनों में गूँजती थी एक सदा
काँपते होंठों पे थी अल्लाह से सिर्फ़ एक दुआ
काश ये लम्हे ठहर जायें ठहर जायें ज़रा
शाम आयी तेरी यादों के
शाम आयी तेरी यादों के सितारे निकले
रंग ही ग़म के नहीं नक़्श भी प्यारे निकले
रक्स जिनका हमें साहिल से बहा लाया था
वो भँवर आँख तक आये तो क़िनारे निकले
वो तो जाँ ले के भी वैसा ही सुबक-नाम रहा
इश्क़ के बाद में सब जुर्म हमारे निकले
इश्क़ दरिया है जो तैरे वो तिहेदस्त रहे
वो जो डूबे थे किसी और क़िनारे निकले
धूप की रुत में कोई छाँव उगाता कैसे
शाख़ फूटी थी कि हमसायों में आरे निकले
सुबक-नाम = जिसका नाम न लिया जाये; तिहेदस्त= खाली हाथ
वो तो ख़ुशबू है
वो तो ख़ुशबू है हवाओं में बिखर जायेगा
मसला फूल का है फूल किधर जायेगा
हम तो समझे थे के एक ज़ख़्म है भर जायेगा
क्या ख़बर थी के रग-ए-जाँ में उतर जायेगा
वो हवाओं की तरह ख़ानाबजाँ फिरता है
एक झोंका है जो आयेगा गुज़र जायेगा
वो जब आयेगा तो फिर उसकी रफ़ाक़त के लिये
मौसम-ए-गुल मेरे आँगन में ठहर जायेगा
आख़िर वो भी कहीं रेत पे बैठी होगी
तेरा ये प्यार भी दरिया है उतर जायेगा
वो कैसी कहां की ज़िन्दगी थी
वो कैसी कहां की ज़िन्दगी थी
जो तेरे बगैर कट रही थी
उसको जब पहली बार देखा
मैं तो हैरान रह गयी थी
वो चश्म थी सहरकार बेहद
और मुझपे तिलस्म कर रही थी
लौटा है वो पिछले मौसमों को
मुझमें किसी रंग की कमी थी
सहरा की तरह थीं ख़ुश्क आंखें
बारिश कहीं दिल में हो रही थी
आंसू मेरे चूमता था कोई
दुख का हासिल यही घड़ी थी
सुनती हूं कि मेरे तज़किरे पर
हल्की-सी उस आंख में नमी थी
ग़ुरबत के बहुत कड़े दिनों में
उस दिल ने मुझे पनाह दी थी
सब गिर्द थे उसके और हमने
बस दूर से इक निगाह की थी
गु़रबत=प्रवास
वह बाग़ में मेरा मुंतज़िर था
वह बाग़ में मेरा मुंतज़िर था
और चांद तुलूअ हो रहा था
ज़ुल्फ़े-शबे-वस्ल खुल रही थी
ख़ुशबू सांसों में घुल रही थी
आई थी मैं अपने पी से मिलने
जैसे कोई गुल हवा में खिलने
इक उम्र के बाद हंसी थी
ख़ुद पर कितनी तवज्ज: दी थी
पहना गहरा बसंती जोड़ा
और इत्रे-सुहाग में बसाया
आइने में ख़ुद को फिर कई बार
उसकी नज़रों से मैंने देखा
संदल से चमक रहा था माथा
चंदन से बदन दमक रहा था
होंठों पर बहुत शरीर लाली
गालों पे गुलाल खेलता था
बालों में पिरोए इतने मोती
तारों का गुमान हो रहा था
अफ़्शां की लकीर मांग में थी
काजल आंखों में हंस रहा था
कानों में मचल रही थी बाली
बाहों में लिपट रहा था गजरा
और सारे बदन से फूटता था
उसके लिए गीत जो लिखा था
हाथों में लिए दिये की थाली
उसके क़दमों में जाके बैठी
आई थी कि आरती उतारूं
सारे जीवन को दान कर दूं
देखा मेरे देवता ने मुझको
बाद इसके ज़रा-सा मुस्कराया
फिर मेरे सुनहरे थाल पर हाथ
रखा भी तो इक दिया उठाया
और मेरी तमाम ज़िन्दगी से
मांगी भी तो इक शाम मांगी
तुलूअ=उदय; शरीर= शरारती
रुकने का समय गुज़र गया है
रुकने का समय गुज़र गया है
जाना तेरा अब ठहर गया है
रुख़्सत की घड़ी खड़ी है सर पर
दिल कोई दो-नीम कर गया है
मातम की फ़ज़ा है शहर-ए-दिल में
मुझ में कोई शख़्स मर गया है
बुझने को है फिर से चश्म-ए-नर्गिस
फिर ख़्वाब-ए-सबा बिखर गया है
बस इक निगाह की थी उस ने
सारा चेहरा निखर गया है
यासिर अराफ़ात के लिए
आसमान का वह हिस्सा
जिसे हम अपने घर की खिड़की से देखते हैं
कितना दिलकश होता है
ज़िन्दगी पर यह खिड़की भर तसर्रूफ़
अपने अंदर कैसी विलायत रखता है
इसका अंदाज़ा
तुझसे बढ़कर किसे होगा
जिसके सर पर सारी ज़िन्दगी छत नहीं पड़ी
जिसने बारिश सदा अपने हाथों पर रोकी
और धूप में कभी दीवार उधार नहीं मांगी
और बर्फ़ों में
बस इक अलाव रौशन रखा
अपने दिल का
और कैसा दिल
जिसने एक बार किसी से मौहब्बत की
और फिर किसी और जानिब भूले से नहीं देखा
मिट्टी से इक अह्द किया
और आतिशो-आबो-बाद का चेहरा भूल गया
एक अकेले ख़्वाब की ख़ातिर
सारी उम्र की नींदें गिरवी रख दी हैं
धरती से इक वादा किया
और हस्ती भूल गया
अर्ज़्रे वतन की खोज में ऎसे निकला
दिल की बस्ती भूल गया
और उस भूल पे
सारे ख़ज़ानों जैसे हाफ़िज़े वारे
ऎसी बेघरी, इस बेचादरी के आगे
सारे जग की मिल्कियत भी थोड़ी है
आसमान की नीलाहट भी मैली है
तसर्रुफ़=रद्दोबदल या परिवर्तन; विलायत= विदेशीपन;
अह्द=वादा; आतिशो-आबो-बाद=आग,पानी और हवा;
अर्ज़्रे-वतन= देश का नक्शा; हाफ़िज़े= स्मृतियां
मुश्किल है अब शहर में
मुश्किल है अब शहर में निकले कोई घर से
दस्तार पे बात आ गई है होती हुई सर से
बरसा भी तो किस दश्त के बे-फ़ैज़ बदन पर
इक उम्र मेरे खेत थे जिस अब्र को तरसे
इस बार जो इंधन के लिये कट के गिरा है
चिड़ियों को बड़ा प्यार था उस बूढ़े शज़र से
मेहनत मेरी आँधी से तो मनसूब नहीं थी
रहना था कोई रब्त शजर का भी समर से
ख़ुद अपने से मिलने का तो यारा न था मुझ में
मैं भीड़ में गुम हो गई तन्हाई के डर से
बेनाम मुसाफ़त ही मुक़द्दर है तो क्या ग़म
मन्ज़िल का त'य्युन कभी होता है सफ़र से
पथराया है दिल यूँ कि कोई इस्म पढ़ा जाये
ये शहर निकलता नहीं जादू के असर से
निकले हैं तो रस्ते में कहीं शाम भी होगी
सूरज भी मगर आयेगा इस राह-गुज़र से
मंज़र है वही ठठक रही हूँ
मंज़र है वही ठठक रही हूँ
हैरत से पलक झपक रही हूँ
ये तू है के मेरा वहम है
बंद आँखों से तुझ को तक रही हूँ
जैसे के कभी न था तार्रुफ़
यूँ मिलते हुए झिझक रही हूँ
पहचान मैं तेरी रोशनी हूँ
और तेरी पलक पलक रही हूँ
क्या चैन मिला है सर जो उस के
शानों पे रखे सिसक रही हूँ
इक उम्र हुई है ख़ुद से लड़ते
अंदर से तमाम थक रही हूँ
बारिश
बारिश में क्या तन्हा भीगना लड़की !
उसे बुला जिसकी चाहत में
तेरा तन-मन भीगा है
प्यार की बारिश से बढ़कर क्या बारिश होगी !
और जब इस बारिश के बाद
हिज्र की पहली धूप खिलेगी
तुझ पर रंग के इस्म खुलेंगे ।
बारिश हुई तो
बारिश हुई तो फूलों के तन चाक हो गये
मौसम के हाथ भीग के सफ़्फ़ाक हो गये
बादल को क्या ख़बर कि बारिश की चाह में
कितने बुलन्द-ओ-बाला शजर ख़ाक हो गये
जुगनू को दिन के वक़्त पकड़ने की ज़िद करें
बच्चे हमारे अहद के चालाक हो गये
लहरा रही है बर्फ़ की चादर हटा के घास
सूरज की शह पे तिनके भी बेबाक हो गये
सूरज दिमाग़ लोग भी इब्लाग़-ए-फ़िक्र में
ज़ुल्फ़-ए-शब-ए-फ़िराक़ के पेचाक हो गये
जब भी ग़रीब-ए-शहर से कुछ गुफ़्तगू हुई
लहजे हवा-ए-शाम के नमनाक हो गये
साहिल पे जितने आबगुज़ीदा थे सब के सब
दरिया के रुख़ बदलते ही तैराक हो गये
बाद मुद्दत उसे देखा
बाद मुद्दत उसे देखा, लोगो
वो ज़रा भी नहीं बदला, लोगो
खुश न था मुझसे बिछड़ कर वो भी
उसके चेहरे पे लिखा था लोगो
उसकी आँखें भी कहे देती थीं
रात भर वो भी न सोया, लोगो
अजनबी बन के जो गुजरा है अभी
था किसी वक़्त में अपना, लोगो
दोस्त तो खैर, कोई किस का है
उसने दुश्मन भी न समझा, लोगो
रात वो दर्द मेरे दिल में उठा
सुबह तक चैन न आया, लोगो
बादबाँ खुलने से पहले का
बादबाँ खुलने से पहले का इशारा देखना
मैं समन्दर देखती हूँ तुम किनारा देखना
यूँ बिछड़ना भी बहुत आसाँ न था उस से मगर
जाते जाते उस का वो मुड़ के दुबारा देखना
किस शबाहत को लिये आया है दरवाज़े पे चाँद
ऐ शब-ए-हिज्राँ ज़रा अपना सितारा देखना
आईने की आँख ही कुछ कम न थी मेरे लिये
जाने अब क्या क्या दिखायेगा तुम्हारा देखना
बदन तक मौजे-ख़्वाब आने को है
बदन तक मौजे-ख़्वाब आने को है फिर
ये बस्ती ज़ेरे-आब आने को हैफिर
हरी होने लगी है शाख़े-गिरिया
सरें-मिज़गां गुलाब आने को है फिर
अचानक रेत सोना बन गयी है
कहीं आगे सुराब आने को है फिर
ज़मीं इनकार के नश्शे में गुम है
फ़लक से इक अज़ाब आने को है फिर
बशारत दे कोई तो आसमाँ से
कि इक ताज़ा किताब आने को है फिर
दरीचे मैंने भी वा कर लिये हैं
कहीं वो माहताब आने को है फिर
जहाँ हर्फ़े-तअल्लुक़ हो इज़ाफ़ी
मुहब्बत में वो बाब आने को है फिर
घरों पर जब्रिया होगी सफ़ेदी
कोई इज़्ज़्त-म-आब आने को है फिर
मौजे-ख़्वाब=सपने की लहर; ज़ेरे-आब=पानी के नीचे; शाख़े-गिरिया=विलाप की डाली; सरें-मिज़गा=पलकों के ऊपर;
सुराब=मृग-म्ररीचिका; वा=खोलना; माहताब=चांद; हर्फ़े-तअल्लुक='सम्बन्ध'शब्द; इज़ाफ़ी=सम्बन्ध बढ़ाने वाला;
बाब=अध्याय; जब्रिया=जबरदस्ती; इज़्ज़त-म-आब= सम्मानित व्यक्ति
बख़्त से कोई शिकायत है ना अफ्लाक से है
बख़्त से कोई शिकायत है ना अफ्लाक से है
यही क्या कम है के निस्बतत मुझे इस खाक से है
ख़्वाब में भी तुझे भुलूँ तो रवा रख मुझसे
वो रवैया जो हवा का खस-ओ-खशाक से है
बज़्म-ए-अंजुम में कबा खाक की पहनी मैने
और मेरी सारी फजीलत इसी पोशाक से है
इतनी रौशन है तेरी सुबह के दिल कहता है
ये उजाला तो किसी दीदा-ए-नमनाम से है
हाथ तो काट दिये कूज़गरों के हमने
मौके की वही उम्मीद मगर चाक से है
प्यार
अब्र-ए-बहार ने
फूल का चेहरा
अपने बनफ़्शी हाथ में लेकर
ऐसे चूमा
फूल के सारे दुख
ख़ुश्बू बन कर बह निकले हैं
पूरा दुख और आधा चांद
पूरा दुख और आधा चांद
हिज्र की शब और ऐसा चांद
इतने घने बादल के पीछे
कितना तन्हा होगा चांद
मेरी करवट पर जाग उठे
नींद का कितना कच्चा चांद
सहरा सहरा भटक रहा है
अपने इश्क़ में सच्चा चांद
रात के शायद एक बजे हैं
सोता होगा मेरा चांद
पिरो दिये मेरे आंसू हवा ने शाख़ों में
पिरो दिये मेरे आंसू हवा ने शाखों में
भरम बहार का बाक़ी रहा निगाहों में
सबा तो क्या कि मुझे धूप तक जगा न सकी
कहां की नींद उतर आयी है इन आंखों में
कुछ इतनी तेज़ है सुर्ख़ी कि दिल धड़कता है
कुछ और रंग पसे-रंग है गुलाबों में
सुपुर्दगी का नशा टूटने नहीं पाता
अना समाई हुई है वफ़ा की बांहों में
बदन पर गिरती चली जा रही है ख़्वाब-सी बर्फ़
खुनक सपेदी घुली जा रही है सांसों में
सबा=सुबह की हवा; पसे-रंग=रंग के पीछे;
अना=अहम; सपेदी=सफ़ेदी
पा-बा-गिल सब हें
पा-बा-गिल सब हें रिहा'ई की करे तदबीर कौन
दस्त-बस्ता शह'र में खोले मेरी ज़जीर कौन
मेरा सर हाज़िर है लेकिन मेरा मुंसिफ देख ले
कर रहा है मेरे फर्द-ए-जुर्म को तहरीर कौन
मेरी चादर तो छीनी थी शाम की तनहा'ई ने
बे-रिदा'ई को मेरी फिर दे गया तश-हीर कौन
नींद जब ख़्वाबों से प्यारी हो तो ऐसे अह'द में
ख़्वाब देखे कौन और ख़्वाबों को दे ताबीर कौन
रेत अभी पिछले मकानों की ना वापस आ'ई थी
फिर लब-ए-साहिल घरोंदा कर गया तामीर कौन
सारे रिश्ते हिज्रतों में साथ देते हैं तो फिर
शह'र से जाते हु'ए होता है दामन-गीर कौन
दुश्मनों के साथ मेरे दोस्त भी अज़ाद हैं
देखना है खींचता है मुझपे पेहला तीर कौन
दुआ
चांदनी
उस दरीचे को छूकर
मेरे नीम रोशन झरोखे में आए, न आए,
मगर
मेरी पलकों की तकदीर से नींद चुनती रहे
और उस आँख के ख़्वाब बुनती रहे।
दिल पे एक तरफ़ा क़यामत करना
दिल पे एक तरफ़ा क़यामत करना
मुस्कुराते हुए रुखसत करना
अच्छी आँखें जो मिली हैं उसको
कुछ तो लाजिम हुआ वहशत करना
जुर्म किसका था, सज़ा किसको मिली
अब किसी से ना मोहब्बत करना
घर का दरवाज़ा खुला रखा है
वक़्त मिल जाये तो ज़ह्मत करना
दिल का क्या है वो तो चाहेगा
दिल का क्या है वो तो चाहेगा मुसलसल मिलना
वो सितमगर भी मगर सोचे किसी पल मिलना
वाँ नहीं वक़्त तो हम भी हैं अदीम-उल-फ़ुरसत
उस से क्या कहिये जो हर रोज़ कहे कल मिलना
इश्क़ की राह के मुसाफ़िर का मुक़द्दर मालूम
दश्त-ए-उम्मीद में अन्देशे का बादल मिलना
दामने-शब को अगर चाक भी कर लें तो कहाँ
नूर में डूबा हुआ सुबह का आँचल मिलना
दश्त-ए-शब पर दिखाई क्या देंगी
दश्त-ए-शब पर दिखाई क्या देंगी
सिलवटें रोशनी में उभरेंगी
घर की दीवारें मेरे जाने पर
अपनी तन्हाइयों को सोचेंगी
उँगलियों को तराश दूँ फिर भी
आदतन उस का नाम लिखेंगी
रंग-ओ-बू से कहीं पनाह नहीं
ख़्वाहिशें भी कहाँ अमाँ देंगी
एक ख़ुश्बू से बच भी जाऊँ अगर
दूसरी निकहतें जकड़ लेंगी
खिड़कियों पर दबीज़ पर्दे हों
बारिशें फिर भी दस्तकें देंगी
तेरी ख़ुश्बू का पता करती है
तेरी ख़ुश्बू का पता करती है
मुझ पे एहसान हवा करती है
शब की तन्हाई में अब तो अक्सर
गुफ़्तगू तुझ से रहा करती है
दिल को उस राह पे चलना ही नहीं
जो मुझे तुझ से जुदा करती है
ज़िन्दगी मेरी थी लेकिन अब तो
तेरे कहने में रहा करती है
उस ने देखा ही नहीं वर्ना ये आँख
दिल का एहवाल कहा करती है
बेनियाज़-ए-काफ़-ए-दरिया अन्गुश्त
रेत पर नाम लिखा करती है
शाम पड़ते ही किसी शख़्स की याद
कूचा-ए-जाँ में सदा करती है
मुझ से भी उस का है वैसा ही सुलूक
हाल जो तेरा अन करती है
दुख हुआ करता है कुछ और बयाँ
बात कुछ और हुआ करती है
अब्र बरसे तो इनायत उस की
शाख़ तो सिर्फ़ दुआ करती है
मसला जब भी उठा चिराग़ों का
फ़ैसला सिर्फ़ हवा करती है
तुम्हारी ज़िन्दगी में
तुम्हारी ज़िन्दगी में
मैं कहां पर हूं ?
हवाए-सुबह में
या शाम के पहले सितारे में
झिझकती बूंदा-बांदी में
कि बेहद तेज़ बारिश में
रुपहली चांदनी में
या कि फिर तपती दुपहरी में
बहुत गहरे ख़यालों में
कि बेहद सरसरी धुन में
तुम्हारी ज़िन्दगी में
मैं कहां पर हूं ?
हुजूमे-कार से घबरा के
साहिल के किनारे पर
किसी वीक-येण्ड का वक़्फ़ा
कि सिगरेट के तसलसुल में
तुम्हारी उंगलियों के बीच
आने वाली कोई बेइरादा रेशमी फ़ुरसत
कि जामे-सुर्ख़ में
यकसर तही
और फिर से
भर जाने का ख़ुश-आदाब लम्हा
कि इक ख़्वाबे-मुहब्बत टूटने
और दूसरा आग़ाज़ होने के
कहीं माबैन इक बेनाम लम्हे की फ़रागत ?
तुम्हारी ज़िन्दगी में
मैं कहां पर हूं ?
तुझसे तो कोई गिला नहीं है
तुझसे तो कोई गिला नहीं है
क़िस्मत में मेरी सिला नहीं है
बिछड़े तो न जाने हाल क्या हो
जो शख़्स अभी मिला नहीं है
जीने की तो आरज़ू ही कब थी
मरने का भी हौसला नहीं है
जो ज़ीस्त को मोतबर बना दे
ऎसा कोई सिलसिला नहीं है
ख़ुश्बू का हिसाब हो चुका है
और फूल अभी खिला नहीं है
सहशारिए-रहबरी में देखा
पीछे मेरा काफ़िला नहीं है
इक ठेस पे दिल का फूट बहना
छूने में तो आबला नहीं है
गिला=शिकायत; सिला=सफलता; ज़ीस्त=जीवन;
मोतबर=विश्वसनीय; आबला=छाला
सरशारिए-रहबरी=नेतृत्व के पूर्ण हो जाने पर
तितली के परों को कभी छिलते नहीं देखा
बिछड़ा है जो एक बार तो मिलते नहीं देखा
इस जख़्म को हमने कभी सिलते नहीं देखा
इस बार जिसे चाट गई धूप की ख्वाहिश
फिर शाख पे उस फूल को खिलते नहीं देखा
यक लख्त गिरा है तो जड़े तक निकल आईं
जिस पेड़ को आँधी में भी हिलते नहीं देखा
काँटों में घिरे फूल को चूम आयेगी तितली
तितली के परों को कभी छिलते नहीं देखा
किस तर्ह मेरी रूह हरी कर गया आख़िर
वो ज़हर जिसे जिस्म में खिलते नहीं देखा
टूटी है मेरी नींद
टूटी है मेरी नींद, मगर तुमको इससे क्या
बजते रहें हवाओं से दर, तुमको इससे क्या
तुम मौज-मौज मिस्ल-ए-सबा घूमते रहो
कट जाएँ मेरी सोच के पर तुमको इससे क्या
औरों का हाथ थामो, उन्हें रास्ता दिखाओ
मैं भूल जाऊँ अपना ही घर, तुमको इससे क्या
अब्र-ए-गुरेज़-पा को बरसने से क्या ग़रज़
सीपी में बन न पाए गुहर, तुमको इससे क्या
ले जाएँ मुझको माल-ए-ग़नीमत के साथ उदू
तुमने तो डाल दी है सिपर, तुमको इससे क्या
तुमने तो थक के दश्त में ख़ेमे लगा लिए
तन्हा कटे किसी का सफ़र, तुमको इससे क्या ।
अब्र-ए-ग़ुरेज़-पा=भागते हुए बादल; उदू=दुश्मन; सिपर=ढाल; दश्त=जंगल
जुस्तजू खोये हुओं की
जुस्तजू खोये हुओं की उम्र भर करते रहे
चाँद के हमराह हम हर शब सफ़र करते रहे
रास्तों का इल्म था हम को न सिम्तों की ख़बर
शहर-ए-नामालूम की चाहत मगर करते रहे
हम ने ख़ुद से भी छुपाया और सारे शहर से
तेरे जाने की ख़बर दर-ओ-दिवार करते रहे
वो न आयेगा हमें मालूम था उस शाम भी
इंतज़ार उस का मगर कुछ सोच कर करते रहे
आज आया है हमें भी उन उड़ानों का ख़याल
जिन को तेरे ज़ौम में बे-बाल-ओ-पर करते रहे
ज़िन्दा रहने की ख़्वाहिश
दाने तक जब पहुँची चिड़िया
जाल में थी
ज़िन्दा रहने की ख़्वाहिश ने मार दिया ।
छोटी नज़्म
मौसम
चिड़िया पूरी तरह भीग चुकी है
और दरख़्त भी पत्ता पत्ता टपक रहा है
घोंसला कब का बिखर चुका है
चिड़िया फिर भी चहक रही है
अंग अंग से बोल रही है
इस मौसम में भीगते रहना
कितना अच्छा लगता है
फ़ोन
मैं क्यों उसको फ़ोन करूं
उसके भी तो इल्म में होगा
कल शब
मौसम की पहली बारिश थी
बारिश
बारिश में क्या तन्हा भीगना लड़की !
उसे बुला जिसकी चाहत में
तेरा तन-मन भीगा है
प्यार की बारिश से बढ़कर क्या बारिश होगी !
और जब इस बारिश के बाद
हिज्र की पहली धूप खिलेगी
तुझ पर रंग के इस्म खुलेंगे ।
चेहरा मेरा था निगाहें उस की
चेहरा मेरा था निगाहें उस की
ख़ामुशी में भी वो बातें उस की
मेरे चेहरे पे ग़ज़ल लिखती गईं
शेर कहती हुई आँखें उस की
शोख़ लम्हों का पता देने लगीं
तेज़ होती हुई साँसें उस की
ऐसे मौसम भी गुज़ारे हम ने
सुबहें जब अपनी थीं शामें उस की
ध्यान में उस के ये आलम था कभी
आँख महताब की यादें उस की
फ़ैसला मौज-ए-हवा ने लिक्खा
आँधियाँ मेरी बहारें उस की
नीन्द इस सोच से टूटी अक्सर
किस तरह कटती हैं रातें उस की
दूर रह कर भी सदा रहती है
मुझ को थामे हुए बाहें उस की
चिड़िया
सजे-सजाये घर की तन्हा चिड़िया !
तेरी तारा-सी आँखों की वीरानी में
पच्छुम जा छिपने वाले शहज़ादों की माँ का दुख है
तुझको देख के अपनी माँ को देख रही हूँ
सोच रही हूँ
सारी माँएँ एक मुक़द्दर क्यों लाती हैं ?
गोदें फूलों वाली
आँखें फिर भी ख़ाली ।
चारासाजों की अज़ीयत
चारासाजों की अज़ीयत नहीं देखी जाती
तेरे बीमार की हालत नहीं देखी जाती
देने वाले की मशीय्यत पे है सब कुछ मौक़ूफ़
मांगने वाले की हाजत नहीं देखी जाती
दिल बहल जाता है लेकिन तेरे दीवानों की
शाम होती है तो वहशत नहीं देखी जाती
तमकनत से तुझे रुख़सत तो किया है लेकिन
हमसे उन आँखों की हसरत नहीं देखी जाती
कौन उतरा है आफ़ाक़ की पिनाहाई में
आईनेख़ाने की हैरत नहीं देखी जाती
गुमान
मैं कच्ची नींद में हूँ
और अपने नीमख़्वाबिदा तनफ़्फ़ुस में उतरती
चाँदनी की चाप सुनती हूँ
गुमाँ है
आज भी शायद
मेरे माथे पे तेरे लब
सितारे सबात करते हैं
खुलेगी इस नज़र पे
खुलेगी इस नज़र पे चश्म-ए-तर आहिस्ता आहिस्ता
किया जाता है पानी में सफ़र आहिस्ता आहिस्ता
कोई ज़ंज़ीर फिर वापस वहीं पर ले के आती है
कठिन हो राह तो छुटता है घर आहिस्ता आहिस्ता
बदल देना है रस्ता या कहीं पर बैठ जाना है
कि ठकता जा रहा है हमसफ़र आहिस्ता आहिस्ता
ख़लिश के साथ इस दिल से न मेरी जाँ निकल जाये
खिंचे तीर-ए-शनासाई मगर आहिस्ता आहिस्ता
हुआ है सरकशी में फूल का अपना ज़ियाँ, देखा
सो झुकता जा रहा है अब ये सर आहिस्ता आहिस्ता
मेरी शोलामिज़ाजी को वो जन्गल कैसे रास आये
हवा भी साँस लेती हो जिधर आहिस्ता आहिस्ता
खुली आँखों में
खुली आँखों में सपना जागता है
वो सोया है के कुछ कुछ जागता है
तेरी चाहत के भीगे जंगलों में
मेरा तन मोर बन के नाचता है
मुझे हर कैफ़ियत में क्यों न समझे
वो मेरे सब हवाले जानता है
किसी के ध्यान में डूबा हुआ दिल
बहाने से मुझे भी टालता है
सड़क को छोड़ कर चलना पड़ेगा
के मेरे घर का कच्चा रास्ता है
ख़ुश्बू है वो तो
ख़ुश्बू है वो तो छू के बदन को गुज़र न जाये
जब तक मेरे वजूद के अंदर उतर न जाये
ख़ुद फूल ने भी होंठ किये अपने नीम-वा
चोरी तमाम रंग की तितली के सर न जाये
इस ख़ौफ़ से वो साथ निभाने के हक़ में है
खोकर मुझे ये लड़की कहीं दुख से मर न जाये
पलकों को उसकी अपने दुपट्टे से पोंछ दूँ
कल के सफ़र में आज की गर्द-ए-सफ़र न जाये
मैं किस के हाथ भेजूँ उसे आज की दुआ
क़ासिद हवा सितारा कोई उस के घर न जाये
कू-ब-कू फैल गई बात
कू-ब-कू फैल गई बात शनासाई की
उस ने ख़ुश्बू की तरह मेरी पज़ीराई की
कैसे कह दूँ कि मुझे छोड़ दिया है उस ने
बात तो सच है मगर बात है रुस्वाई की
वो कहीं भी गया लौटा तो मेरे पास आया
बस यही बात है अच्छी मेरे हरजाई की
तेरा पहलू तेरे दिल की तरह आबाद रहे
तुझ पे गुज़रे न क़यामत शब-ए-तन्हाई की
उस ने जलती हुई पेशानी पे जो हाथ रखा
रूह तक आ गई तासीर मसीहाई की