मेरे दिल की ख़ौफ़-हिकायत में
यह बात कहीं पर दर्ज करो
मुझे अपनी सदा सुनने की सज़ा
लम्बी चुप की सूरत में
मेरे बोलने में जो लुकनत है
इस लम्बी चुप का नतीजा है।
शब्दार्थ :
लुकनत=तुतलाहट
शुक्रवार, मई 29, 2009
लम्बी चुप का नतीजा
ख़्वाब को देखना कुछ बुरा तो नहीं
बर्फ़ की उजली पोशाक पहने हुए
इन पहाड़ों में वह ढूंढ़ना है मुझे
जिसका मैं मुन्तज़िर एक मुद्दत से हूँ
ऎसा लगता है, ऎसा हुआ तो नहीं
ख़्वाब को देखना कुछ बुरा तो नहीं।
ख़लीलुर्रहमान आज़मी की याद में
धूल में लिपटे चेहरे वाला
मेरा साया
किस मंज़िल, किस मोड़ पर बिछड़ा
ओस में भीगी यह पगडंडी
आगे जाकर मुड़ जाती है
कतबों की ख़ुशबू आती है
घर वापस जाने की ख़्वाहिश
दिल में पहले कब आती है
इस लम्हे की रंग-बिरंगी सब तस्वीरें
पहली बारिश में धुल जाएँ
मेरी आँखों में लम्बी रातें घुल जाएँ।
नींद से आगे की मंज़िल
ख़्वाब कब टूटते हैं
आँखें किसी ख़ौफ़ की तारीकी से
क्यों चमक उठती हैं
दिल की धड़कन में तसलसुल बाक़ी नहीं रहता
ऎसी बातों को समझना नहीं आसान कोई
नींद से आगे की मंज़िल नहीं देखी तुमने।
बदन के आस-पास
लबों पे रेत हाथों में गुलाब
और कानों में किसी नदी की काँपती सदा
ये सारी अजनबी फ़िज़ा
मेरे बदन के आस-पास आज कौन है।
दोस्त अहबाब की नज़रों में बुरा हो गया मैं
दोस्त अहबाब की नज़रों में बुरा हो गया मैं
वक़्त की बात है क्या होना था, क्या हो गया मैं।
दिल के दरवाज़े को वा रखने की आदत थी मुझे
याद आता नहीं कब किससे जुदा हो गया मैं।
कैसे तू सुनता बड़ा शोर था सन्नाटों का
दूर से आती हुई ऎसी सदा हो गया मैं।
क्या सबब इसका था, ख़ुद मुझ को भी मालूम नहीं
रात ख़ुश आ गई, और दिन से ख़फ़ा हो गया मैं।
भूले-बिसरे हुए लोगों में कशिश अब भी है
उनका ज़िक्र आया कि फिर नग़्मासरा हो गया मैं।
शब्दार्थ :
वा=खुला
सबसे जुदा हूँ मैं भी, अलग तू भी सबसे है
सबसे जुदा हूँ मैं भी, अलग तू भी सबसे है
इस सच का एतराफ़ ज़माने को कब से है।
फिर लोग क्यों हमारा कहा मानते नहीं
सूरज को ख़ौफ़-सायए-दीवारे-शब से है।
जो मंज़र देखने वाली हैं आँखें रोने वाला है
जो मंज़र देखने वाली हैं आँखें रोने वाला है
कि फिर बंजर ज़मीं में बीज कोई बोने वाला है।
बहादुर लोग नादिम हो रहे हैं हैरती में हूँ
अजब दहशत-ख़बर है शहर खाली होने वाला है।
सुनो ख़ुश-बख़्त लोगो! लम्हए-नायाब आया है
सुनो ख़ुश-बख़्त लोगो! लम्हए-नायाब आया है
ज़मीं पर पैरहन पहने बिना महताब आया है।
बना सकता है तुममें कोई काग़ज़-नाव बतलाओ
सुना है शहर में, ऎ शहरियो सैलाब आया है।
कटेगा देखिए दिन जाने किस अज़ाब के साथ
कटेगा देखिए दिन जाने किस अज़ाब के साथ
कि आज धूप नहीं निकली आफ़ताब के साथ
तो फिर बताओ समंदर सदा को क्यूँ सुनते
हमारी प्यास का रिश्ता था जब सराब के साथ
बड़ी अजीब महक साथ ले के आई है
नसीम, रात बसर की किसी गुलाब के साथ
फ़िज़ा में दूर तक मरहबा के नारे हैं
गुज़रने वाले हैं कुछ लोग याँ से ख़्वाब के साथ
ज़मीन तेरी कशिश खींचती रही हमको
गए ज़रूर थे कुछ दूर माहताब के साथ
बुझने के बाद जलना गवारा नहीं किया
बुझने के बाद जलना गवारा नहीं किया,
हमने कोई भी काम दोबारा नहीं किया।
अच्छा है कोई पूछने वाला नहीं है यह
दुनिया ने क्यों ख़याल हमारा नहीं किया।
जीने की लत पड़ी नहीं शायद इसीलिए
झूठी तसल्लियों पे गुज़ारा नहीं किया।
यह सच अगर नहीं तो बहुत झूठ भी नहीं
तुझको भुला के कोई ख़सारा नहीं किया।
शब्दार्थ :
ख़सारा= नुक़सान
इसे गुनाह कहें या सवाब का काम
इसे गुनाह कहें या कहें सवाब का काम
नदी को सौंप दिया प्यास ने सराब का काम
हम एक चेह्रे को हर ज़ाविए से देख सकें
किसी तरह से मुकम्मल हो नक्शे-आब का काम
हमारी आँखे कि पहले तो खूब जागती हैं
फिर उसके बाद वो करतीं है सिर्फ़ ख़्वाब का काम
वो रात-कश्ती किनारे लगी कि डूब गई
सितारे निकले तो थे करने माहताब का काम
फ़रेब ख़ुद को दिए जा रहे हैं और ख़ुश हैं
उसे ख़बर है कि दुश्वार है हिजाब का काम
सराब = मरीचिका
जाविए = कोण
नक्शे-आब = जल्दी मिट जाने वाला निशान
हिजाब = पर्दा
जो कहते हैं कहीं दरिया नहीं है
जो कहते हैं कहीं दरिया नहीं है
सुना उन से कोई प्यासा नहीं है।
दिया लेकर वहाँ हम जा रहे हैं
जहाँ सूरज कभी ढलता नहीं है।
न जाने क्यों हमें लगता है ऎसा
ज़मीं पर आसमाँ साया नहीं है।
थकन महसूस हो रुक जाना चाहें
सफ़र में मोड़ वह आया नहीं है।
चलो आँखों में फिर से नींद बोएँ
कि मुद्दत से उसे देखा नहीं है।
तमाम शह्र में जिस अजनबी का चर्चा है
तमाम शह्र में जिस अजनबी का चर्चा है
सभी की राय है, वह शख़्स मेरे जैसा है।
बुलावे आते हैं कितने दिनों से सहरा के
मैं कल ये लोगों से पूछूंगा किस को जाना है।
कभी ख़याल ये आता है खेल ख़त्म हुआ
कभी गुमान गुज़रता है एक वक़्फ़ा है।
सुना है तर्के-जुनूँ तक पहुँच गए हैं लोग
ये काम अच्छा नहीं पर मआल अच्छा है।
ये चल-चलावे के लम्हे हैं, अब तो सच बोलो
जहाँ ने तुम को कि तुम ने जहाँ को बदला है।
पलट के पीछे नहीं देखता हूँ ख़ौफ़ से मैं
कि संग होते हुए दोस्तों को देखा है।
शब्दार्थ :
मआल=नतीजा या परिणाम; संग=पत्थर
बुरा अब हो गया अच्छा कैसे
जो बुरा था कभी अब हो गया अच्छा कैसे
वक़्त के साथ मैं इस तेज़ी से बदला कैसे।
जिनको वह्शत से इलाक़ा नहीं वे क्या जानें
बेकराँ दश्त मेरे हिस्से में आया कैसे।
कोई इक-आध सबब होता तो बतला देता
प्यास से टूट गया पानी का रिश्ता कैसे।
हाफ़िज़े में मेरे बस एक खंडहर-सा कुछ है
मैं बनाऊँ तो किसी शह्र का नक़्शा कैसे।
बारहा पूछना चाहा कभी हिम्मत न हुई
दोस्तो रास तुम्हें आई यह दुनिया कैसे।
ज़िन्दगी में कभी एक पल ही सही ग़ौर करो
ख़त्म हो जाता है जीने का तमाशा कैसे।
शिकवा कोई दरिया की रवानी से नहीं है
शिकवा कोई दरिया की रवानी से नहीं है
रिश्ता ही मेरी प्यास का पानी से नहीं है।
कल यूँ था कि ये क़ैदे-ज़्मानी से थे बेज़ार
फ़ुर्सत जिन्हें अब सैरे-मकानी से नहीं है।
चाहा तो यकीं आए न सच्चाई पे इसकी
ख़ाइफ़ कोई गुल अहदे-खिज़ानी से नहीं है।
दोहराता नहीं मैं भी गए लोगों की बातें
इस दौर को निस्बत भी कहानी से नहीं है।
कहते हैं मेरे हक़ में सुख़नफ़ह्म बस इतना
शे'रों में जो ख़ूबी है मआनी से नहीं है।
शब्दार्थ :
क़ैदे-ज़मानी=समय की पाबन्दी; सैरे-मकानी=दुनिया की सैर;
ख़ाइफ़=डरा हुआ;अहदे-ख़िज़ानी=पतझड़ का मौसम; मआनी=अर्थ
दिल में तूफ़ान है
दिल में तूफ़ान है और आँखों में तुग़यानी है
ज़िन्दगी हमने मगर हार नहीं मानी है।
ग़मज़दा वो भी हैं दुश्वार है मरना जिन को
वो भी शाकी हैं जिन्हें जीने की आसानी है।
दूर तक रेत का तपता हुआ सहरा था जहाँ
प्यास का किसकी करश्मा है वहाँ पानी है।
जुस्तजू तेरे अलावा भी किसी की है हमें
जैसे दुनिया में कहीं कोई तेरा सानी है।
इस नतीजे पर पहुँचते हैं सभी आख़िर में
हासिले-सैरे-जहाँ कुछ नहीं हैरानी है।
शब्दार्थ :
शाकी= शिकायत करने वाला; सानी=बराबर
मुग़्नी तबस्सुम के लिए
ऎ अज़ीज़ अज़ जान मुग़्नी
तेरी परछाई हूँ लेकिन कितना इतराता हूँ मैं
आज़मी का मरना
नज्मा का बिछड़ना
तेरे बल-बूते पर यह सब सह गया
भूल कर भी यह ख़याल आया नहीं मुझको
कि तन्हा रह गया
तेरी उल्फ़त में अजब जादू-असर है
तेरी परछाईं रहूँ जब तक जियूँ
यह चाहता हूँ
ऎ ख़ुदा!
छोटी-सी कितनी बेज़रर यह आरज़ू है
आरज़ू यह मैंने की है
इस भरोसे पर कि तू है।
आज़मी= ख़लीलुर्रहमान आज़मी (कवि के दोस्त);
नज्मा= कवि की पत्नी; बेज़रर= हानि न पहुँचाने वाली
ख़्वाब का दर बंद है.
मेरे लिए रात ने
आज फ़राहम किया
एक नया मर्हला
नींदों ने ख़ाली किया
अश्कों से फ़िर भर दिया
कासा मेरी आँख का
और कहा कान में
मैंने हर एक जुर्म से
तुमको बरी कर दिया
मैंने सदा के लिए
तुमको रिहा कर दिया
जाओ जिधर चाहो तुम
जागो कि सो जाओ तुम
ख़्वाब का दर बंद है
सुन तो सही जहाँ में है तेरा फ़साना क्या
सुन तो सही जहाँ में है तेरा फ़साना क्या
केहती है तुझको खल्क़-ए-खुदा ग़ाएबाना क्या
ज़ीना सबा का ढूँढती है अपनी मुश्त-ए-ख़ाक
बाम-ए-बलन्द यार का है आस्ताना क्या
ज़ेरे ज़मीं से आता है गुल हर सू ज़र-ए-बकफ़
क़ारूँ ने रास्ते में लुटाया खज़ाना क्या
चारों तरफ़ से सूरत-ए-जानाँ हो जलवागर
दिल साफ़ हो तेरा तो है आईना खाना क्या
तिब्ल-ओ-अलम न पास है अपने न मुल्क-ओ-माल
हम से खिलाफ़ हो के करेगा ज़माना क्या
आती है किस तरह मेरी क़ब्ज़-ए-रूह को
देखूँ तो मौत ढूँढ रही है बहाना क्या
तिरछी निगह से ताइर-ए-दिल हो चुका शिकार
जब तीर कज पड़ेगा उड़ेगा निशाना क्या?
बेताब है कमाल हमारा दिल-ए-अज़ीम
महमाँ साराय-ए-जिस्म का होगा रवना क्या
यूँ मुद्दई हसद से न दे दाद तू न दे
आतिश ग़ज़ल ये तूने कही आशिक़ाना क्या?
ये आरज़ू थी तुझे गुल के रूबरू करते
ये आरज़ू थी तुझे गुल के रूबरू करते
हम और बुलबुल-ए-बेताब गुफ़्तगू करते
पयाम बर न मयस्सर हुआ तो ख़ूब हुआ
ज़बान-ए-ग़ैर से क्या शर की आरज़ू करते
मेरी तरह से माह-ओ-महर भी हैं आवारा
किसी हबीब को ये भी हैं जुस्तजू करते
जो देखते तेरी ज़ंजीर-ए-ज़ुल्फ़ का आलम
असीर होने के आज़ाद आरज़ू करते
न पूछ आलम-ए-बरगश्ता तालि-ए-"आतिश"
बरसती आग में जो बाराँ की आरज़ू करते
यार को मैंने मुझे यार ने सोने न दिया
यार को मैं ने मुझे यार ने सोने न दिया
रात भर तालि'-ए-बेदार ने सोने न दिया
एक शब बुलबुल-ए-बेताब के जागे न नसीब
पहलू-ए-गुल में कभी ख़ार ने सोने न दिया
रात भर की दिल-ए-बेताब ने बातें मुझ से
मुझ को इस इश्क़ के बीमार ने सोने न दिया
दोस्त हो जब दुश्मने-जाँ
दोस्त हो जब दुश्मने-जाँ तो क्या मालूम हो
आदमी को किस तरह अपनी कज़ा मालूम हो
आशिक़ों से पूछिये खूबी लबे-जाँबख्श की
जौहरी को क़द्रे-लाले-बेबहा मालूम हो
दाम में लाया है "आतिश" सब्जये-ख़ते-बुतां
सच है क्या इंसा को किस्मत का लिखा मालूम हो
तड़पते हैं न रोते हैं
तड़पते हैं न रोते हैं न हम फ़रियाद करते हैं
सनम की याद में हर-दम ख़ुदा को याद करते हैं
उन्हीं के इश्क़ में हम नाला-ओ-फ़रियाद करते हैं
इलाही देखिये किस दिन हमें वो याद करते हैं
शब-ए-फ़ुर्क़त में क्या क्या साँप लहराते हैं सीने पर
तुम्हारी काकुल-ए-पेचाँ को जब हम याद करते हैं
हमारे दरमियाँ
हमारे दरमियाँ ऐसा कोई रिश्ता नहीं था
तेरे शानों पे कोई छत नहीं थी
मेरे ज़िम्मे कोई आँगन नहीं था
कोई वादा तेरी ज़ंज़ीर-ए-पा बनने नहीं पाया
किसी इक़रार ने मेरी कलाई को नहीं थामा
हवा-ए-दश्त की मानिन्द
तू आज़ाद था
रास्ते तेरी मर्ज़ी के तबे थे
मुझे भी अपनी तन्हाई पे
देखा जाये तो
पूरा तसर्रुफ़ था
मगर जब आज तू ने
रास्ता बदला
तो कुछ ऐसा लगा मुझ को
के जैसे तूने मुझ से बेवफ़ाई की
हमने ही लौटने का
हमने ही लौटने का इरादा नहीं किया
उसने भी भूल जाने का वादा नहीं किया
दुःख ओढ़ते नहीं कभी जश्ने-तरब में हम
मलाबूसे-दिल को तन का लाबादा नहीं किया
जो ग़म मिला है बोझ उठाया है उसका ख़ुद
सर-ज़ेर-बारे-सागरो-बादा नहीं किया
कारे-जहाँ हमें भी बहुत थे सफ़र की शाम
उसने भी इल्तिफ़ात ज़ियादा नहीं किया
आमद पे तेरे इतरो-चरागो-सुबू न हो
इतना भी बूदो-बाश तो सादा नहीं किया
सुंदर कोमल सपनों की बारात
सुंदर कोमल सपनों की बारात गुज़र गई जानाँ
धूप आँखों तक आ पहुँची है रात गुज़र गई जानाँ
भोर समय तक जिसने हमें बाहम उलझाये रखा
वो अलबेली रेशम जैसी बात गुज़र गई जानाँ
सदा की देखी रात हमें इस बार मिली तो चुप के से
ख़ाली हाथ पे रख के क्या सौग़ात गुज़र गई जानाँ
किस कोंपल की आस में अब तक वैसे ही सर-सब्ज़ हो तुम
अब तो धूप का मौसम है बरसात गुज़र गई जानाँ
लोग न जाने किन रातों की मुरादें माँगा करते हैं
अपनी रात तो वो जो तेरे साथ गुज़र गई जानाँ
सब्ज़ मद्धम रोशनी में
सब्ज़ मद्धम रोशनी में सुर्ख़ आँचल की धनक
सर्द कमरे में मचलती गर्म साँसों की महक
बाज़ूओं के सख्त हल्क़े में कोई नाज़ुक बदन
सिल्वटें मलबूस पर आँचल भी कुछ ढलका हुआ
गर्मी-ए-रुख़्सार से दहकी हुई ठंडी हवा
नर्म ज़ुल्फ़ों से मुलायम उँगलियों की छेड़ छाड़
सुर्ख़ होंठों पर शरारत के किसी लम्हें का अक्स
रेशमी बाहों में चूड़ी की कभी मद्धम धनक
शर्मगीं लहजों में धीरे से कभी चाहत की बात
दो दिलों की धड़कनों में गूँजती थी एक सदा
काँपते होंठों पे थी अल्लाह से सिर्फ़ एक दुआ
काश ये लम्हे ठहर जायें ठहर जायें ज़रा
शाम आयी तेरी यादों के
शाम आयी तेरी यादों के सितारे निकले
रंग ही ग़म के नहीं नक़्श भी प्यारे निकले
रक्स जिनका हमें साहिल से बहा लाया था
वो भँवर आँख तक आये तो क़िनारे निकले
वो तो जाँ ले के भी वैसा ही सुबक-नाम रहा
इश्क़ के बाद में सब जुर्म हमारे निकले
इश्क़ दरिया है जो तैरे वो तिहेदस्त रहे
वो जो डूबे थे किसी और क़िनारे निकले
धूप की रुत में कोई छाँव उगाता कैसे
शाख़ फूटी थी कि हमसायों में आरे निकले
सुबक-नाम = जिसका नाम न लिया जाये; तिहेदस्त= खाली हाथ
वो तो ख़ुशबू है
वो तो ख़ुशबू है हवाओं में बिखर जायेगा
मसला फूल का है फूल किधर जायेगा
हम तो समझे थे के एक ज़ख़्म है भर जायेगा
क्या ख़बर थी के रग-ए-जाँ में उतर जायेगा
वो हवाओं की तरह ख़ानाबजाँ फिरता है
एक झोंका है जो आयेगा गुज़र जायेगा
वो जब आयेगा तो फिर उसकी रफ़ाक़त के लिये
मौसम-ए-गुल मेरे आँगन में ठहर जायेगा
आख़िर वो भी कहीं रेत पे बैठी होगी
तेरा ये प्यार भी दरिया है उतर जायेगा
वो कैसी कहां की ज़िन्दगी थी
वो कैसी कहां की ज़िन्दगी थी
जो तेरे बगैर कट रही थी
उसको जब पहली बार देखा
मैं तो हैरान रह गयी थी
वो चश्म थी सहरकार बेहद
और मुझपे तिलस्म कर रही थी
लौटा है वो पिछले मौसमों को
मुझमें किसी रंग की कमी थी
सहरा की तरह थीं ख़ुश्क आंखें
बारिश कहीं दिल में हो रही थी
आंसू मेरे चूमता था कोई
दुख का हासिल यही घड़ी थी
सुनती हूं कि मेरे तज़किरे पर
हल्की-सी उस आंख में नमी थी
ग़ुरबत के बहुत कड़े दिनों में
उस दिल ने मुझे पनाह दी थी
सब गिर्द थे उसके और हमने
बस दूर से इक निगाह की थी
गु़रबत=प्रवास
वह बाग़ में मेरा मुंतज़िर था
वह बाग़ में मेरा मुंतज़िर था
और चांद तुलूअ हो रहा था
ज़ुल्फ़े-शबे-वस्ल खुल रही थी
ख़ुशबू सांसों में घुल रही थी
आई थी मैं अपने पी से मिलने
जैसे कोई गुल हवा में खिलने
इक उम्र के बाद हंसी थी
ख़ुद पर कितनी तवज्ज: दी थी
पहना गहरा बसंती जोड़ा
और इत्रे-सुहाग में बसाया
आइने में ख़ुद को फिर कई बार
उसकी नज़रों से मैंने देखा
संदल से चमक रहा था माथा
चंदन से बदन दमक रहा था
होंठों पर बहुत शरीर लाली
गालों पे गुलाल खेलता था
बालों में पिरोए इतने मोती
तारों का गुमान हो रहा था
अफ़्शां की लकीर मांग में थी
काजल आंखों में हंस रहा था
कानों में मचल रही थी बाली
बाहों में लिपट रहा था गजरा
और सारे बदन से फूटता था
उसके लिए गीत जो लिखा था
हाथों में लिए दिये की थाली
उसके क़दमों में जाके बैठी
आई थी कि आरती उतारूं
सारे जीवन को दान कर दूं
देखा मेरे देवता ने मुझको
बाद इसके ज़रा-सा मुस्कराया
फिर मेरे सुनहरे थाल पर हाथ
रखा भी तो इक दिया उठाया
और मेरी तमाम ज़िन्दगी से
मांगी भी तो इक शाम मांगी
तुलूअ=उदय; शरीर= शरारती
रुकने का समय गुज़र गया है
रुकने का समय गुज़र गया है
जाना तेरा अब ठहर गया है
रुख़्सत की घड़ी खड़ी है सर पर
दिल कोई दो-नीम कर गया है
मातम की फ़ज़ा है शहर-ए-दिल में
मुझ में कोई शख़्स मर गया है
बुझने को है फिर से चश्म-ए-नर्गिस
फिर ख़्वाब-ए-सबा बिखर गया है
बस इक निगाह की थी उस ने
सारा चेहरा निखर गया है
यासिर अराफ़ात के लिए
आसमान का वह हिस्सा
जिसे हम अपने घर की खिड़की से देखते हैं
कितना दिलकश होता है
ज़िन्दगी पर यह खिड़की भर तसर्रूफ़
अपने अंदर कैसी विलायत रखता है
इसका अंदाज़ा
तुझसे बढ़कर किसे होगा
जिसके सर पर सारी ज़िन्दगी छत नहीं पड़ी
जिसने बारिश सदा अपने हाथों पर रोकी
और धूप में कभी दीवार उधार नहीं मांगी
और बर्फ़ों में
बस इक अलाव रौशन रखा
अपने दिल का
और कैसा दिल
जिसने एक बार किसी से मौहब्बत की
और फिर किसी और जानिब भूले से नहीं देखा
मिट्टी से इक अह्द किया
और आतिशो-आबो-बाद का चेहरा भूल गया
एक अकेले ख़्वाब की ख़ातिर
सारी उम्र की नींदें गिरवी रख दी हैं
धरती से इक वादा किया
और हस्ती भूल गया
अर्ज़्रे वतन की खोज में ऎसे निकला
दिल की बस्ती भूल गया
और उस भूल पे
सारे ख़ज़ानों जैसे हाफ़िज़े वारे
ऎसी बेघरी, इस बेचादरी के आगे
सारे जग की मिल्कियत भी थोड़ी है
आसमान की नीलाहट भी मैली है
तसर्रुफ़=रद्दोबदल या परिवर्तन; विलायत= विदेशीपन;
अह्द=वादा; आतिशो-आबो-बाद=आग,पानी और हवा;
अर्ज़्रे-वतन= देश का नक्शा; हाफ़िज़े= स्मृतियां
मुश्किल है अब शहर में
मुश्किल है अब शहर में निकले कोई घर से
दस्तार पे बात आ गई है होती हुई सर से
बरसा भी तो किस दश्त के बे-फ़ैज़ बदन पर
इक उम्र मेरे खेत थे जिस अब्र को तरसे
इस बार जो इंधन के लिये कट के गिरा है
चिड़ियों को बड़ा प्यार था उस बूढ़े शज़र से
मेहनत मेरी आँधी से तो मनसूब नहीं थी
रहना था कोई रब्त शजर का भी समर से
ख़ुद अपने से मिलने का तो यारा न था मुझ में
मैं भीड़ में गुम हो गई तन्हाई के डर से
बेनाम मुसाफ़त ही मुक़द्दर है तो क्या ग़म
मन्ज़िल का त'य्युन कभी होता है सफ़र से
पथराया है दिल यूँ कि कोई इस्म पढ़ा जाये
ये शहर निकलता नहीं जादू के असर से
निकले हैं तो रस्ते में कहीं शाम भी होगी
सूरज भी मगर आयेगा इस राह-गुज़र से
मंज़र है वही ठठक रही हूँ
मंज़र है वही ठठक रही हूँ
हैरत से पलक झपक रही हूँ
ये तू है के मेरा वहम है
बंद आँखों से तुझ को तक रही हूँ
जैसे के कभी न था तार्रुफ़
यूँ मिलते हुए झिझक रही हूँ
पहचान मैं तेरी रोशनी हूँ
और तेरी पलक पलक रही हूँ
क्या चैन मिला है सर जो उस के
शानों पे रखे सिसक रही हूँ
इक उम्र हुई है ख़ुद से लड़ते
अंदर से तमाम थक रही हूँ
बारिश
बारिश में क्या तन्हा भीगना लड़की !
उसे बुला जिसकी चाहत में
तेरा तन-मन भीगा है
प्यार की बारिश से बढ़कर क्या बारिश होगी !
और जब इस बारिश के बाद
हिज्र की पहली धूप खिलेगी
तुझ पर रंग के इस्म खुलेंगे ।
बारिश हुई तो
बारिश हुई तो फूलों के तन चाक हो गये
मौसम के हाथ भीग के सफ़्फ़ाक हो गये
बादल को क्या ख़बर कि बारिश की चाह में
कितने बुलन्द-ओ-बाला शजर ख़ाक हो गये
जुगनू को दिन के वक़्त पकड़ने की ज़िद करें
बच्चे हमारे अहद के चालाक हो गये
लहरा रही है बर्फ़ की चादर हटा के घास
सूरज की शह पे तिनके भी बेबाक हो गये
सूरज दिमाग़ लोग भी इब्लाग़-ए-फ़िक्र में
ज़ुल्फ़-ए-शब-ए-फ़िराक़ के पेचाक हो गये
जब भी ग़रीब-ए-शहर से कुछ गुफ़्तगू हुई
लहजे हवा-ए-शाम के नमनाक हो गये
साहिल पे जितने आबगुज़ीदा थे सब के सब
दरिया के रुख़ बदलते ही तैराक हो गये
बाद मुद्दत उसे देखा
बाद मुद्दत उसे देखा, लोगो
वो ज़रा भी नहीं बदला, लोगो
खुश न था मुझसे बिछड़ कर वो भी
उसके चेहरे पे लिखा था लोगो
उसकी आँखें भी कहे देती थीं
रात भर वो भी न सोया, लोगो
अजनबी बन के जो गुजरा है अभी
था किसी वक़्त में अपना, लोगो
दोस्त तो खैर, कोई किस का है
उसने दुश्मन भी न समझा, लोगो
रात वो दर्द मेरे दिल में उठा
सुबह तक चैन न आया, लोगो
बादबाँ खुलने से पहले का
बादबाँ खुलने से पहले का इशारा देखना
मैं समन्दर देखती हूँ तुम किनारा देखना
यूँ बिछड़ना भी बहुत आसाँ न था उस से मगर
जाते जाते उस का वो मुड़ के दुबारा देखना
किस शबाहत को लिये आया है दरवाज़े पे चाँद
ऐ शब-ए-हिज्राँ ज़रा अपना सितारा देखना
आईने की आँख ही कुछ कम न थी मेरे लिये
जाने अब क्या क्या दिखायेगा तुम्हारा देखना
बदन तक मौजे-ख़्वाब आने को है
बदन तक मौजे-ख़्वाब आने को है फिर
ये बस्ती ज़ेरे-आब आने को हैफिर
हरी होने लगी है शाख़े-गिरिया
सरें-मिज़गां गुलाब आने को है फिर
अचानक रेत सोना बन गयी है
कहीं आगे सुराब आने को है फिर
ज़मीं इनकार के नश्शे में गुम है
फ़लक से इक अज़ाब आने को है फिर
बशारत दे कोई तो आसमाँ से
कि इक ताज़ा किताब आने को है फिर
दरीचे मैंने भी वा कर लिये हैं
कहीं वो माहताब आने को है फिर
जहाँ हर्फ़े-तअल्लुक़ हो इज़ाफ़ी
मुहब्बत में वो बाब आने को है फिर
घरों पर जब्रिया होगी सफ़ेदी
कोई इज़्ज़्त-म-आब आने को है फिर
मौजे-ख़्वाब=सपने की लहर; ज़ेरे-आब=पानी के नीचे; शाख़े-गिरिया=विलाप की डाली; सरें-मिज़गा=पलकों के ऊपर;
सुराब=मृग-म्ररीचिका; वा=खोलना; माहताब=चांद; हर्फ़े-तअल्लुक='सम्बन्ध'शब्द; इज़ाफ़ी=सम्बन्ध बढ़ाने वाला;
बाब=अध्याय; जब्रिया=जबरदस्ती; इज़्ज़त-म-आब= सम्मानित व्यक्ति
बख़्त से कोई शिकायत है ना अफ्लाक से है
बख़्त से कोई शिकायत है ना अफ्लाक से है
यही क्या कम है के निस्बतत मुझे इस खाक से है
ख़्वाब में भी तुझे भुलूँ तो रवा रख मुझसे
वो रवैया जो हवा का खस-ओ-खशाक से है
बज़्म-ए-अंजुम में कबा खाक की पहनी मैने
और मेरी सारी फजीलत इसी पोशाक से है
इतनी रौशन है तेरी सुबह के दिल कहता है
ये उजाला तो किसी दीदा-ए-नमनाम से है
हाथ तो काट दिये कूज़गरों के हमने
मौके की वही उम्मीद मगर चाक से है
प्यार
अब्र-ए-बहार ने
फूल का चेहरा
अपने बनफ़्शी हाथ में लेकर
ऐसे चूमा
फूल के सारे दुख
ख़ुश्बू बन कर बह निकले हैं
पूरा दुख और आधा चांद
पूरा दुख और आधा चांद
हिज्र की शब और ऐसा चांद
इतने घने बादल के पीछे
कितना तन्हा होगा चांद
मेरी करवट पर जाग उठे
नींद का कितना कच्चा चांद
सहरा सहरा भटक रहा है
अपने इश्क़ में सच्चा चांद
रात के शायद एक बजे हैं
सोता होगा मेरा चांद
पिरो दिये मेरे आंसू हवा ने शाख़ों में
पिरो दिये मेरे आंसू हवा ने शाखों में
भरम बहार का बाक़ी रहा निगाहों में
सबा तो क्या कि मुझे धूप तक जगा न सकी
कहां की नींद उतर आयी है इन आंखों में
कुछ इतनी तेज़ है सुर्ख़ी कि दिल धड़कता है
कुछ और रंग पसे-रंग है गुलाबों में
सुपुर्दगी का नशा टूटने नहीं पाता
अना समाई हुई है वफ़ा की बांहों में
बदन पर गिरती चली जा रही है ख़्वाब-सी बर्फ़
खुनक सपेदी घुली जा रही है सांसों में
सबा=सुबह की हवा; पसे-रंग=रंग के पीछे;
अना=अहम; सपेदी=सफ़ेदी
पा-बा-गिल सब हें
पा-बा-गिल सब हें रिहा'ई की करे तदबीर कौन
दस्त-बस्ता शह'र में खोले मेरी ज़जीर कौन
मेरा सर हाज़िर है लेकिन मेरा मुंसिफ देख ले
कर रहा है मेरे फर्द-ए-जुर्म को तहरीर कौन
मेरी चादर तो छीनी थी शाम की तनहा'ई ने
बे-रिदा'ई को मेरी फिर दे गया तश-हीर कौन
नींद जब ख़्वाबों से प्यारी हो तो ऐसे अह'द में
ख़्वाब देखे कौन और ख़्वाबों को दे ताबीर कौन
रेत अभी पिछले मकानों की ना वापस आ'ई थी
फिर लब-ए-साहिल घरोंदा कर गया तामीर कौन
सारे रिश्ते हिज्रतों में साथ देते हैं तो फिर
शह'र से जाते हु'ए होता है दामन-गीर कौन
दुश्मनों के साथ मेरे दोस्त भी अज़ाद हैं
देखना है खींचता है मुझपे पेहला तीर कौन
दुआ
चांदनी
उस दरीचे को छूकर
मेरे नीम रोशन झरोखे में आए, न आए,
मगर
मेरी पलकों की तकदीर से नींद चुनती रहे
और उस आँख के ख़्वाब बुनती रहे।
दिल पे एक तरफ़ा क़यामत करना
दिल पे एक तरफ़ा क़यामत करना
मुस्कुराते हुए रुखसत करना
अच्छी आँखें जो मिली हैं उसको
कुछ तो लाजिम हुआ वहशत करना
जुर्म किसका था, सज़ा किसको मिली
अब किसी से ना मोहब्बत करना
घर का दरवाज़ा खुला रखा है
वक़्त मिल जाये तो ज़ह्मत करना
दिल का क्या है वो तो चाहेगा
दिल का क्या है वो तो चाहेगा मुसलसल मिलना
वो सितमगर भी मगर सोचे किसी पल मिलना
वाँ नहीं वक़्त तो हम भी हैं अदीम-उल-फ़ुरसत
उस से क्या कहिये जो हर रोज़ कहे कल मिलना
इश्क़ की राह के मुसाफ़िर का मुक़द्दर मालूम
दश्त-ए-उम्मीद में अन्देशे का बादल मिलना
दामने-शब को अगर चाक भी कर लें तो कहाँ
नूर में डूबा हुआ सुबह का आँचल मिलना
दश्त-ए-शब पर दिखाई क्या देंगी
दश्त-ए-शब पर दिखाई क्या देंगी
सिलवटें रोशनी में उभरेंगी
घर की दीवारें मेरे जाने पर
अपनी तन्हाइयों को सोचेंगी
उँगलियों को तराश दूँ फिर भी
आदतन उस का नाम लिखेंगी
रंग-ओ-बू से कहीं पनाह नहीं
ख़्वाहिशें भी कहाँ अमाँ देंगी
एक ख़ुश्बू से बच भी जाऊँ अगर
दूसरी निकहतें जकड़ लेंगी
खिड़कियों पर दबीज़ पर्दे हों
बारिशें फिर भी दस्तकें देंगी
तेरी ख़ुश्बू का पता करती है
तेरी ख़ुश्बू का पता करती है
मुझ पे एहसान हवा करती है
शब की तन्हाई में अब तो अक्सर
गुफ़्तगू तुझ से रहा करती है
दिल को उस राह पे चलना ही नहीं
जो मुझे तुझ से जुदा करती है
ज़िन्दगी मेरी थी लेकिन अब तो
तेरे कहने में रहा करती है
उस ने देखा ही नहीं वर्ना ये आँख
दिल का एहवाल कहा करती है
बेनियाज़-ए-काफ़-ए-दरिया अन्गुश्त
रेत पर नाम लिखा करती है
शाम पड़ते ही किसी शख़्स की याद
कूचा-ए-जाँ में सदा करती है
मुझ से भी उस का है वैसा ही सुलूक
हाल जो तेरा अन करती है
दुख हुआ करता है कुछ और बयाँ
बात कुछ और हुआ करती है
अब्र बरसे तो इनायत उस की
शाख़ तो सिर्फ़ दुआ करती है
मसला जब भी उठा चिराग़ों का
फ़ैसला सिर्फ़ हवा करती है
तुम्हारी ज़िन्दगी में
तुम्हारी ज़िन्दगी में
मैं कहां पर हूं ?
हवाए-सुबह में
या शाम के पहले सितारे में
झिझकती बूंदा-बांदी में
कि बेहद तेज़ बारिश में
रुपहली चांदनी में
या कि फिर तपती दुपहरी में
बहुत गहरे ख़यालों में
कि बेहद सरसरी धुन में
तुम्हारी ज़िन्दगी में
मैं कहां पर हूं ?
हुजूमे-कार से घबरा के
साहिल के किनारे पर
किसी वीक-येण्ड का वक़्फ़ा
कि सिगरेट के तसलसुल में
तुम्हारी उंगलियों के बीच
आने वाली कोई बेइरादा रेशमी फ़ुरसत
कि जामे-सुर्ख़ में
यकसर तही
और फिर से
भर जाने का ख़ुश-आदाब लम्हा
कि इक ख़्वाबे-मुहब्बत टूटने
और दूसरा आग़ाज़ होने के
कहीं माबैन इक बेनाम लम्हे की फ़रागत ?
तुम्हारी ज़िन्दगी में
मैं कहां पर हूं ?
तुझसे तो कोई गिला नहीं है
तुझसे तो कोई गिला नहीं है
क़िस्मत में मेरी सिला नहीं है
बिछड़े तो न जाने हाल क्या हो
जो शख़्स अभी मिला नहीं है
जीने की तो आरज़ू ही कब थी
मरने का भी हौसला नहीं है
जो ज़ीस्त को मोतबर बना दे
ऎसा कोई सिलसिला नहीं है
ख़ुश्बू का हिसाब हो चुका है
और फूल अभी खिला नहीं है
सहशारिए-रहबरी में देखा
पीछे मेरा काफ़िला नहीं है
इक ठेस पे दिल का फूट बहना
छूने में तो आबला नहीं है
गिला=शिकायत; सिला=सफलता; ज़ीस्त=जीवन;
मोतबर=विश्वसनीय; आबला=छाला
सरशारिए-रहबरी=नेतृत्व के पूर्ण हो जाने पर
तितली के परों को कभी छिलते नहीं देखा
बिछड़ा है जो एक बार तो मिलते नहीं देखा
इस जख़्म को हमने कभी सिलते नहीं देखा
इस बार जिसे चाट गई धूप की ख्वाहिश
फिर शाख पे उस फूल को खिलते नहीं देखा
यक लख्त गिरा है तो जड़े तक निकल आईं
जिस पेड़ को आँधी में भी हिलते नहीं देखा
काँटों में घिरे फूल को चूम आयेगी तितली
तितली के परों को कभी छिलते नहीं देखा
किस तर्ह मेरी रूह हरी कर गया आख़िर
वो ज़हर जिसे जिस्म में खिलते नहीं देखा
टूटी है मेरी नींद
टूटी है मेरी नींद, मगर तुमको इससे क्या
बजते रहें हवाओं से दर, तुमको इससे क्या
तुम मौज-मौज मिस्ल-ए-सबा घूमते रहो
कट जाएँ मेरी सोच के पर तुमको इससे क्या
औरों का हाथ थामो, उन्हें रास्ता दिखाओ
मैं भूल जाऊँ अपना ही घर, तुमको इससे क्या
अब्र-ए-गुरेज़-पा को बरसने से क्या ग़रज़
सीपी में बन न पाए गुहर, तुमको इससे क्या
ले जाएँ मुझको माल-ए-ग़नीमत के साथ उदू
तुमने तो डाल दी है सिपर, तुमको इससे क्या
तुमने तो थक के दश्त में ख़ेमे लगा लिए
तन्हा कटे किसी का सफ़र, तुमको इससे क्या ।
अब्र-ए-ग़ुरेज़-पा=भागते हुए बादल; उदू=दुश्मन; सिपर=ढाल; दश्त=जंगल
जुस्तजू खोये हुओं की
जुस्तजू खोये हुओं की उम्र भर करते रहे
चाँद के हमराह हम हर शब सफ़र करते रहे
रास्तों का इल्म था हम को न सिम्तों की ख़बर
शहर-ए-नामालूम की चाहत मगर करते रहे
हम ने ख़ुद से भी छुपाया और सारे शहर से
तेरे जाने की ख़बर दर-ओ-दिवार करते रहे
वो न आयेगा हमें मालूम था उस शाम भी
इंतज़ार उस का मगर कुछ सोच कर करते रहे
आज आया है हमें भी उन उड़ानों का ख़याल
जिन को तेरे ज़ौम में बे-बाल-ओ-पर करते रहे
ज़िन्दा रहने की ख़्वाहिश
दाने तक जब पहुँची चिड़िया
जाल में थी
ज़िन्दा रहने की ख़्वाहिश ने मार दिया ।
छोटी नज़्म
मौसम
चिड़िया पूरी तरह भीग चुकी है
और दरख़्त भी पत्ता पत्ता टपक रहा है
घोंसला कब का बिखर चुका है
चिड़िया फिर भी चहक रही है
अंग अंग से बोल रही है
इस मौसम में भीगते रहना
कितना अच्छा लगता है
फ़ोन
मैं क्यों उसको फ़ोन करूं
उसके भी तो इल्म में होगा
कल शब
मौसम की पहली बारिश थी
बारिश
बारिश में क्या तन्हा भीगना लड़की !
उसे बुला जिसकी चाहत में
तेरा तन-मन भीगा है
प्यार की बारिश से बढ़कर क्या बारिश होगी !
और जब इस बारिश के बाद
हिज्र की पहली धूप खिलेगी
तुझ पर रंग के इस्म खुलेंगे ।
चेहरा मेरा था निगाहें उस की
चेहरा मेरा था निगाहें उस की
ख़ामुशी में भी वो बातें उस की
मेरे चेहरे पे ग़ज़ल लिखती गईं
शेर कहती हुई आँखें उस की
शोख़ लम्हों का पता देने लगीं
तेज़ होती हुई साँसें उस की
ऐसे मौसम भी गुज़ारे हम ने
सुबहें जब अपनी थीं शामें उस की
ध्यान में उस के ये आलम था कभी
आँख महताब की यादें उस की
फ़ैसला मौज-ए-हवा ने लिक्खा
आँधियाँ मेरी बहारें उस की
नीन्द इस सोच से टूटी अक्सर
किस तरह कटती हैं रातें उस की
दूर रह कर भी सदा रहती है
मुझ को थामे हुए बाहें उस की
चिड़िया
सजे-सजाये घर की तन्हा चिड़िया !
तेरी तारा-सी आँखों की वीरानी में
पच्छुम जा छिपने वाले शहज़ादों की माँ का दुख है
तुझको देख के अपनी माँ को देख रही हूँ
सोच रही हूँ
सारी माँएँ एक मुक़द्दर क्यों लाती हैं ?
गोदें फूलों वाली
आँखें फिर भी ख़ाली ।
चारासाजों की अज़ीयत
चारासाजों की अज़ीयत नहीं देखी जाती
तेरे बीमार की हालत नहीं देखी जाती
देने वाले की मशीय्यत पे है सब कुछ मौक़ूफ़
मांगने वाले की हाजत नहीं देखी जाती
दिल बहल जाता है लेकिन तेरे दीवानों की
शाम होती है तो वहशत नहीं देखी जाती
तमकनत से तुझे रुख़सत तो किया है लेकिन
हमसे उन आँखों की हसरत नहीं देखी जाती
कौन उतरा है आफ़ाक़ की पिनाहाई में
आईनेख़ाने की हैरत नहीं देखी जाती
गुमान
मैं कच्ची नींद में हूँ
और अपने नीमख़्वाबिदा तनफ़्फ़ुस में उतरती
चाँदनी की चाप सुनती हूँ
गुमाँ है
आज भी शायद
मेरे माथे पे तेरे लब
सितारे सबात करते हैं
खुलेगी इस नज़र पे
खुलेगी इस नज़र पे चश्म-ए-तर आहिस्ता आहिस्ता
किया जाता है पानी में सफ़र आहिस्ता आहिस्ता
कोई ज़ंज़ीर फिर वापस वहीं पर ले के आती है
कठिन हो राह तो छुटता है घर आहिस्ता आहिस्ता
बदल देना है रस्ता या कहीं पर बैठ जाना है
कि ठकता जा रहा है हमसफ़र आहिस्ता आहिस्ता
ख़लिश के साथ इस दिल से न मेरी जाँ निकल जाये
खिंचे तीर-ए-शनासाई मगर आहिस्ता आहिस्ता
हुआ है सरकशी में फूल का अपना ज़ियाँ, देखा
सो झुकता जा रहा है अब ये सर आहिस्ता आहिस्ता
मेरी शोलामिज़ाजी को वो जन्गल कैसे रास आये
हवा भी साँस लेती हो जिधर आहिस्ता आहिस्ता
खुली आँखों में
खुली आँखों में सपना जागता है
वो सोया है के कुछ कुछ जागता है
तेरी चाहत के भीगे जंगलों में
मेरा तन मोर बन के नाचता है
मुझे हर कैफ़ियत में क्यों न समझे
वो मेरे सब हवाले जानता है
किसी के ध्यान में डूबा हुआ दिल
बहाने से मुझे भी टालता है
सड़क को छोड़ कर चलना पड़ेगा
के मेरे घर का कच्चा रास्ता है
ख़ुश्बू है वो तो
ख़ुश्बू है वो तो छू के बदन को गुज़र न जाये
जब तक मेरे वजूद के अंदर उतर न जाये
ख़ुद फूल ने भी होंठ किये अपने नीम-वा
चोरी तमाम रंग की तितली के सर न जाये
इस ख़ौफ़ से वो साथ निभाने के हक़ में है
खोकर मुझे ये लड़की कहीं दुख से मर न जाये
पलकों को उसकी अपने दुपट्टे से पोंछ दूँ
कल के सफ़र में आज की गर्द-ए-सफ़र न जाये
मैं किस के हाथ भेजूँ उसे आज की दुआ
क़ासिद हवा सितारा कोई उस के घर न जाये
कू-ब-कू फैल गई बात
कू-ब-कू फैल गई बात शनासाई की
उस ने ख़ुश्बू की तरह मेरी पज़ीराई की
कैसे कह दूँ कि मुझे छोड़ दिया है उस ने
बात तो सच है मगर बात है रुस्वाई की
वो कहीं भी गया लौटा तो मेरे पास आया
बस यही बात है अच्छी मेरे हरजाई की
तेरा पहलू तेरे दिल की तरह आबाद रहे
तुझ पे गुज़रे न क़यामत शब-ए-तन्हाई की
उस ने जलती हुई पेशानी पे जो हाथ रखा
रूह तक आ गई तासीर मसीहाई की
कुछ फ़ैसला तो हो
कुछ फ़ैसला तो हो कि किधर जाना चाहिये
पानी को अब तो सर से गुज़र जाना चाहिये
हर बार एड़ियों पे गिरा है मेरा लहू
मक़्तल में अब ब-तर्ज़-ए-दिगर जाना चाहिये
क्या चल सकेंगे जिन का फ़क़त मसला ये है
जाने से पहले रख़्त-ए-सफ़र जाना चाहिये
सारा ज्वार-भाटा मेरे दिल में है मगर
इल्ज़ाम ये भी चांद के सर जाना चाहिये
जब भी गये अज़ाब-ए-दर-ओ-बाम था वही
आख़िर को कितनी देर से घर जाना चाहिये
तोहमत लगा के माँ पे जो दुश्मन से दाद ले
ऐसे सुख़नफ़रोश को मर जाना चाहिये
ब-तर्ज़-ए-दिगर= दूसरे आदमी की तरह;
रख़्त-ए-सफ़र= सफ़र का सामान;
अज़ाब-ए-दर-ओ-बाम=घर की मुसीबत
कुछ तो हवा भी सर्द थी
कुछ तो हवा भी सर्द थी कुछ था तेरा ख़याल भी
दिल को ख़ुशी के साथ साथ होता रहा मलाल भी
बात वो आधी रात की रात वो पूरे चाँद की
चाँद भी ऐन चेत का उस पे तेरा जमाल भी
सब से नज़र बचा के वो मुझ को ऐसे देखते
एक दफ़ा तो रुक गई गर्दिश-ए-माह-ओ-साल भी
दिल तो चमक सकेगा क्या फिर भी तराश के देख लो
शीशागरान-ए-शहर के हाथ का ये कमाल भी
उस को न पा सके थे जब दिल का अजीब हाल था
अब जो पलट के देखिये बात थी कुछ मुहाल भी
मेरी तलब था एक शख़्स वो जो नहीं मिला तो फिर
हाथ दुआ से यूँ गिरा भूल गया सवाल भी
शाम की नासमझ हवा पूछ रही है इक पता
मौज-ए-हवा-ए-कू-ए-यार कुछ तो मेरा ख़याल भी
उस के ही बाज़ूओं में और उस को ही सोचते रहे
जिस्म की ख़्वाहिशों पे थे रूह के और जाल भी
कुछ ख़बर लायी तो है
कुछ ख़बर लायी तो है बादे-बहारी उसकी
शायद इस राह से गुज़रेगी सवारी उसकी
मेरा चेहरा है फ़क़त उसकी नज़र से रौशन
और बाक़ी जो है मज़मून-निगारी उसकी
आंख उठा कर जो रवादार न था देखने का
वही दिल करता है अब मिन्नतो-ज़ारी उसकी
रात में आंख में हैं हल्के गुलाबी डोरे
नींद से पलकें हुई जाती हैं भारी उसकी
उसके दरबार में हाज़िर हुआ यह दिल और फिर
देखने वाली थी कुछ कारगुज़ारी उसकी
आज तो उस पे ठहरती ही न थी आंख ज़रा
उसके जाते ही नज़र मैंने उतारी उसकी
अर्सा-ए-ख़्वाब में रहना है कि लौट आना है
फ़ैसला करने की इस बार है बारी उसकी
कायनात के ख़ालिक
कायनात के ख़ालिक़ !
देख तो मेरा चेहरा
आज मेरे होठों पर
कैसी मुस्कुराहट है
आज मेरी आँखों में
कैसी जगमगाहट है
मेरी मुस्कुराहट से
तुझको याद क्या आया
मेरी भीगी आँखों में
तुझको कुछ नज़र आया
इस हसीन लम्हे को
तू तो जानता होगा
इस समय की अज़मत को
तू तो मानता होगा
हाँ, तेरा गुमाँ सच्चा है
हाँ, कि आज मैंने भी
ज़िन्दगी जनम दी है !
ख़ालिक़=दुनिया का बनाने वाला; अज़मत=महिमा
कायनात के ख़ालिक
कायनात के ख़ालिक़ !
देख तो मेरा चेहरा
आज मेरे होठों पर
कैसी मुस्कुराहट है
आज मेरी आँखों में
कैसी जगमगाहट है
मेरी मुस्कुराहट से
तुझको याद क्या आया
मेरी भीगी आँखों में
तुझको कुछ नज़र आया
इस हसीन लम्हे को
तू तो जानता होगा
इस समय की अज़मत को
तू तो मानता होगा
हाँ, तेरा गुमाँ सच्चा है
हाँ, कि आज मैंने भी
ज़िन्दगी जनम दी है !
ख़ालिक़=दुनिया का बनाने वाला; अज़मत=महिमा
करिया-ए-जाँ में कोई फूल खिलाने आये
करिया-ए-जाँ में कोई फूल खिलाने आये
वो मेरे दिल पे नया ज़ख़्म लगाने आये
मेरे वीरान दरीचों में भी ख़ुश्बू जागे
वो मेरे घर के दर-ओ-बाम सजाने आये
उससे इक बार तो रूठूँ मैं उसी की मानिन्द
और मेरी तरह से वो मुझ को मनाने आये
इसी कूचे में कई उस के शनासा भी तो हैं
वो किसी और से मिलने के बहाने आये
अब न पूछूँगी मैं खोये हुए ख़्वाबों का पता
वो अगर आये तो कुछ भी न बताने आये
ज़ब्त की शहर-पनाहों की मेरे मालिक ख़ैर
ग़म का सैलाब अगर मुझ को बहाने आये
कमाल-ए-ज़ब्त को ख़ुद भी तो आज़माऊँगी
कमाल-ए-ज़ब्त को ख़ुद भी तो आज़माऊँगी
मैं अपने हाथ से उस की दुल्हन सजाऊँगी
सुपुर्द कर के उसे चांदनी के हाथों
मैं अपने घर के अंधेरों को लौट आऊँगी
बदन के कर्ब को वो भी समझ न पायेगा
मैं दिल में रोऊँगी आँखों में मुस्कुराऊँगी
वो क्या गया के रफ़ाक़त के सारे लुत्फ़ गये
मैं किस से रूठ सकूँगी किसे मनाऊँगी
वो इक रिश्ता-ए-बेनाम भी नहीं लेकिन
मैं अब भी उस के इशारों पे सर झुकाऊँगी
बिछा दिया था गुलाबों के साथ अपना वजूद
वो सो के उठे तो ख़्वाबों की राख उठाऊँगी
अब उस का फ़न तो किसी और से मनसूब हुआ
मैं किस की नज़्म अकेले में गुन्गुनाऊँगी
[मनसूब= जुडा हुआ]
जवज़ ढूंढ रहा था नई मुहब्बत का
वो कह रहा था के मैं उस को भूल जाऊँगी
[जवज़=कारण]
सम'अतों में घने जंगलों की साँसें हैं
मैं अब कभी तेरी आवाज़ सुन न पाऊँगी
एक मंज़र
कच्चा-सा इक मकां, कहीं आबादियों से दूर
छोटा-सा इक हुजरा, फ़राज़े-मकान पर
सब्ज़े से झांकती हुई खपरैल वाली छत
दीवारे-चोब पर कोई मौसम की सब्ज़ बेल
उतरी हुई पहाड़ पर बरसात की वह रात
कमरे में लालटेन की हल्की-सी रौशनी
वादी में घूमता हुआ इक चश्मे-शरीर[१]
खिड़की को चूमता हुआ बारिश का जलतरंग
सांसों में गूंजता हुआ इक अनकही का भेद !
शब्दार्थ:
↑ शरारती झरना
एक पैग़ाम
वही मौसम है
बारिश की हंसी
पेड़ों में छन छन गूंजती है
हरी शाख़ें
सुनहरे फूल के ज़ेवर पहन कर
तसव्वुर में किसी के मुस्कराती हैं
हवा की ओढ़नी का रंग फिर हल्का गुलाबी है
शनासा बाग़ को जाता हुआ ख़ुश्बू भरा रस्ता
हमारी राह तकता है
तुलूए-माह की साअत
हमारी मुंतज़िर है
शनासा=परिचित, तुलूए-माह=सूर्योदय, साअत=समय या घड़ी
एक दफ़नाई हुई आवाज़
फूलों और किताबों से आरास्ता घर है
तन की हर आसाइश देने वाला साथी
आंखों को ठंडक पहुंचाने वाला बच्चा
लेकिन उस आसाइश, उस ठंडक के रंगमहल में
जहां कहीं जाती हूं
बुनियादों में बेहद गहरे चुनी हुई
एक आवाज़ बराबर गिरय: करती है
मुझे निकालो !
मुझे निकालो !
आरास्ता=सुसज्जित, गिरय:=विलाप
उसी तरह से हर इक ज़ख़्म ख़ुशनुमा देखे
उसी तरह से हर इक ज़ख़्म खुशनुमा देखे
वो आये तो मुझे अब भी हरा-भरा देखे
गुज़र गये हैं बहुत दिन रिफ़ाक़ते-शब में
इक उम्र हो गयी चेहरा वो चांद-सा देखे
मेरे सुकूत से जिसको गिले रहे क्या-क्या
बिछड़ते वक़्त उन आंखों का बोलना देखे
तेरे सिवा भी कई रंग ख़ुशनज़र थे मगर
जो तुझको देख चुका हो वो और क्या देखे
बस एक रेत का ज़र्रा बचा था आंखों में
अभी तलक जो मुसाफ़िर का रास्ता देखे
उसी से पूछे कोई दश्त की रफ़ाकत जो
जब आंख खोले पहाड़ों का सिलसिला देखे
तुझे अज़ीज़ था और मैंने उसको जीत लिया
मेरी तरफ़ भी तो इक पल ख़ुदा देखे
रिफ़ाकते-शब=रातों से दोस्ती; सुकूत=चुप्पी;
दश्त=जंगल; रफ़ाकत=दोस्ती; अज़ीज़=प्रिय
उस वक़्त
जब आंख में शाम उतरे
पलकों पे शफ़क फूले
काजल की तरह मेरी
आंखों को धनक छू ले
उस वक़्त कोई उसको
आंखों से मेरी देखे
पलकों से मेरी चूमे
उसने फूल भेजे हैं
रचनाकार: परवीन शाकिर
उसने फूल भेजे हैं
फिर मेरी अयादत को
एक-एक पत्ती में
उन लबों की नरमी है
उन जमील हाथों की
ख़ुशगवार हिद्दत है
उन लतीफ़ सांसों की
दिलनवाज़ ख़ुशबू है
दिल में फूल खिलते हैं
रुह में चिराग़ां है
ज़िन्दगी मुअत्तर है
फिर भी दिल यह कहता है
बात कुछ बना लेना
वक़्त के खज़ाने से
एक पल चुरा लेना
काश! वो खुद आ जाता
अयादत=शोकमिलन, ज़मील=सुंदर, हिद्दत=उग्रता, मुअत्तर=सुगंधित
उसके मसीहा के लिए
अजनबी!
कभी ज़िन्दगी में अगर तू अकेला हो
और दर्द हद से गुज़र जाए
आंखें तेरी
बात-बेबात रो रो पड़ें
तब कोई अजनबी
तेरी तन्हाई के चांद का नर्म हाला बने
तेरी क़ामत का साया बने
तेरे ज़्ख़्मों पे मरहम रखे
तेरी पलकों से शबनम चुने
तेरे दुख का मसीहा बने
हाला=वॄत्त; क़ामत= देह की गठन
उलझन
रात भी तन्हाई की पहली दहलीज़ पे है
और मेरी जानिब अपने हाथ बढ़ाती है
सोच रही हूं
उनको थामूं
ज़ीना-ज़ीना सन्नाटों के तहख़ानों में उतरूं
या अपने कमरे में ठहरूं
चांद मेरी खिड़की पर दस्तक देता है
इसी में ख़ुश हूँ
इसी में ख़ुश हूँ मेरा दुख कोई तो सहता है
चली चलूँ कि जहाँ तक ये साथ रहता है
ज़मीन-ए-दिल यूँ ही शादाब तो नहीं ऐ दोस्त
क़रीब में कोई दरिया ज़रूर बहता है
न जाने कौन सा फ़िक़्रा कहाँ रक़्म हो जाये
दिलों का हाल भी अब कौन किस से कहता है
मेरे बदन को नमी खा गई अश्कों की
भरी बहार में जैसे मकान ढहता है
अब कौन से मौसम से
अब कौन से मौसम से कोई आस लगाए
बरसात में भी याद जब न उनको हम आए
मिटटी की महक साँस की खुशबू में उतर कर
भीगे हुए सब्जे की तराई में बुलाए
दरिया की तरह मौज में आई हुई बरखा
ज़रदाई हुई रुत को हरा रंग पिलाए
बूंदों की छमाछम से बदन काँप रहा है
और मस्त हवा रक़्स की लय तेज़ कर जाए
शाखें हैं तो वो रक़्स में, पत्ते हैं तो रम में
पानी का नशा है की दरख्तों को चढ़ जाए
हर लहर के पावों से लिपटने लगे घूँघरू
बारिश की हँसी ताल पे पाज़ेब जो छंकाए
अंगूर की बेलों पे उतर आए सितारे
रुकती हुई बारिश ने भी क्या रंग दिखाए
अपनी रुसवाई तेरे नाम
अपनी रुसवाई तेरे नाम का चर्चा देखूँ
एक ज़रा शेर कहूँ और मैं क्या क्या देखूँ
नींद आ जाये तो क्या महफ़िलें बरपा देखूँ
आँख खुल जाये तो तन्हाई की सहर देखूँ
शाम भी हो गई धुंधला गई आँखें भी मेरी
भूलनेवाले मैं कब तक तेरा रस्ता देखूँ
सब ज़िदें उस की मैं पूरी करूँ हर बात सुनूँ
एक बच्चे की तरह से उसे हँसता देखूँ
मुझ पे छा जाये वो बरसात की ख़ुश्बू की तरह
अंग-अंग अपना उसी रुत में महकता देखूँ
तू मेरी तरह से यक्ता है मगर मेरे हबीब
जी में आता है कोई और भी तुझ सा देखूँ
मैं ने जिस लम्हे को पूजा है उसे बस एक बार
ख़्वाब बन कर तेरी आँखों में उतरता देखूँ
तू मेरा कुछ नहीं लगता है मगर जान-ए-हयात
जाने क्यों तेरे लिये दिल को धड़कता देखूँ
अजीब तर्ज-ए-मुलाकात
अजीब तर्ज-ए-मुलाकात अब के बार रही
तुम्हीं थे बदले हुए या मेरी निगाहें थीं
तुम्हारी नजरों से लगता था जैसे मेरे बजाए
तुम्हारे ओहदे की देनें तुम्हें मुबारक थीं
सो तुमने मेरा स्वागत उसी तरह से किया
जो अफ्सरान-ए-हुकूमत के ऐतक़ाद में है
तकल्लुफ़ान मेरे नजदीक आ के बैठ गए
फिर 1एहतराम से मौसम का जिक्र छेड़ दिया
कुछ उस के बाद सियासत की बात भी निकली
अदब पर भी दो चार तबसरे फ़रमाए
मगर तुमने ना हमेशा कि तरह ये पूछा
कि वक्त कैसा गुजरता है तेरा जान-ए-हयात ?
पहर दिन की 2अज़ीयत में कितनी शिद्दत है
उजाड़ रात की तन्हाई क्या क़यामत है
शबों की सुस्त रावी का तुझे भी शिकवा है
गम-ए-फिराक के किस्से 3निशात-ए-वस्ल का जिक्र
रवायतें ही सही कोई बात तो करते.....
1आदर
2अत्याचार
3मिलन की खुशी
अक़्स-ए-खुशबू हूँ
अक़्स-ए-खुशबू हूँ बिखरने से ना रोके कोई
और बिखर जाऊँ तो, मुझ को ना समेटे कोई
काँप उठती हूँ मैं सोच कर तनहाई में
मेरे चेहरे पर तेरा नाम ना पढ़ ले कोई
जिस तरह ख़्वाब हो गए मेरे रेज़ा रेज़ा
इस तरह से, कभी टूट कर, बिखरे कोई
अब तो इस राह से वो शख़्स गुजरता भी नहीं
अब किस उम्मीद पर दरवाजे से झांके कोई
कोई आहट, कोई आवाज, कोई छाप नहीं
दिल की गलियाँ बड़ी सुनसान है आए कोई
मंगलवार, मई 26, 2009
शून्य
भीतर जो शून्य है
उसका एक जबड़ा है
जबड़े में माँस काट ख्खाने के दाँत हैं ;
उनको खा जायेंगे,
तुम को खा जायेंगे ।
भीतर का आदतन क्रोधी अभाव वह
हमारा स्वभाव है,
जबड़े की भीतरी अँधेरी खाई में
ख़ून का तालाब है।
ऐसा वह शून्य है
एकदम काला है,बर्बर है,नग्न है
विहीन है, न्यून है
अपने में मग्न है ।
उसको मैं उत्तेजित
शब्दों और कार्यों से
बिखेरता रहता हूँ
बाँटता फिरता हूँ ।
मेरा जो रास्ता काटने आते हैं,
मुझसे मिले घावों में
वही शून्य पाते हैं ।
उसे बढ़ाते हैं,फैलाते हैं,
और-और लोगों में बाँटते बिखेरते,
शून्यों की संतानें उभारते।
बहुत टिकाऊ हैं,
शून्य उपजाऊ है ।
जगह-जगह करवत,कटार और दर्रात,
उगाता-बढ़ाता है
मांस काट खाने के दाँत।
इसी लिए जहाँ देखो वहाँ
ख़ूब मच रही है,ख़ूब ठन रही है,
मौत अब नये-नये बच्चे जन रही है।
जगह-जगह दाँतदार भूल,
हथियार-बन्द ग़लती है,
जिन्हें देख,दुनिया हाथ मलती हुई चलती है।
एक अरूप शून्य के प्रति
रात और दिन
तुम्हारे दो कान हैं लंबे-चौड़े
एक बिल्कुल स्याह
दूसरा क़तई सफ़ेद।
हर दस घंटे में
करवट एक बदलते हो।
एक-न-एक कान
ढाँकता है आसमान
और इस तरह ज़माने के शुरू से
आसमानी शीशों के पलंग पर सोए हो।
और तुम भी खूब हो,
दोनों ओर पैर फँसा रक्खे हैं,
राम और रावण को खूब खुश,
खूब हँसा रक्खा है।
सृजन के घर में तुम
मनोहर शक्तिशाली
विश्वात्मक फैंटेसी
दुर्जनों के घर में
प्रचंड शौर्यवान् अंट-संट वरदान!!
खूब रंगदारी है,
तुम्हारी नीति बड़ी प्यारी है।
विपरीत दोनों दूर छोरों द्वारा पुजकर
स्वर्ग के पुल पर
चुंगी के नाकेदार
भ्रष्टाचारी मजिस्ट्रेट, रिश्वतखोर थानेदार!!
ओ रे, निराकार शून्य!
महान विशेषताएँ मेरे सब जनों की
तूने उधार ले
निज को सँवार लिया
निज के अशेष किया
यशस्काय बन गया चिरंतन तिरोहित
यशोरूप रह गया सर्वत्र आविर्भूत।
नई साँझ
कदंब वृक्ष के पास
मंदिर-चबूतरे पर बैठकर
जब कभी देखता हूँ तुझे
मुझे याद आते हैं
भयभीत आँखों के हंस
व घावभरे कबूतर
मुझे याद आते हैं मेरे लोग
उनके सब हृदय-रोग
घुप्प अंधेरे घर,
पीली-पीली चिता के अंगारों जैसे पर.
मुझे याद आती है भगवान राम की शबरी,
मुझे याद आती है लाल-लाल जलती हुई ढिबरी
मुझे याद आता है मेरा प्यारा-प्यारा देश,
लाल-लाल सुनहला आवेश।
अंधा हूँ
खुदा के बंदों का बंदा हूँ बावला
परंतु कभी-कभी अनंत सौंदर्य संध्या में शंका के
काले-काले मेघ-सा,
काटे हुए गणित की तिर्यक रेखा-सा
सरी-सृप-स्नेक-सा।
मेरे इस साँवले चेहरे पर कीचड़ के धब्बे हैं,
दाग हैं,
और इस फैली हुई हथेली पर जलती हुई आग है
अग्नि-विवेक की।
नहीं, नहीं, वह तो है ज्वलंत सरसिज!!
ज़िंदगी के दलदल-कीचड़ में धँसकर
वृक्ष तक पानी में फँसकर
मैं वह कमल तोड़ लाया हूँ –
भीतर से, इसीलिए, गीला हूँ
पंक से आवृत्त,
स्वयं में घनीभूत
मुझे तेरी बिल्कुल ज़रूरत नहीं है।
सोमवार, मई 18, 2009
शिकायतें तो हमें मौसम-ए-बहार से है
कई घरों को निगलने के बाद आती है
मदद भी शहर के जलने के बाद आती है
न जाने कैसी महक आ रही है बस्ती में
वही जो दूध उबलने के बाद आती है
नदी पहाड़ों से मैदान में तो आती है
मगर ये बर्फ़ पिघलने के बाद आती है
ये झुग्गियाँ तो ग़रीबों की ख़ानक़ाहें* हैं
क़लन्दरी* यहाँ पलने के बाद आती है
गुलाब ऎसे ही थोड़े गुलाब होता है
ये बात काँटों पे चलने के बाद आती है
शिकायतें तो हमें मौसम-ए-बहार से है
खिज़ाँ तो फूलने-फलने के बाद आती है
(ख़ानक़ाहें- आश्रम, क़लन्दरी- फक्कड़पन)
बहुत पानी बरसता है
बहुत पानी बरसता है तो मिट्टी बैठ जाती है
न रोया कर बहुत रोने से छाती बैठ जाती है
यही मौसम था जब नंगे बदन छत पर टहलते थे
यही मौसम है अब सीने में सर्दी बैठ जाती है
चलो माना कि शहनाई मोहब्बत की निशानी है
मगर वो शख्स जिसकी आ के बेटी बैठ जाती है
बढ़े बूढ़े कुएँ में नेकियाँ क्यों फेंक आते हैं ?
कुएं में छुप के क्यों आखिर ये नेकी बैठ जाती है ?
नक़ाब उलटे हुए गुलशन से वो जब भी गुज़रता है
समझ के फूल उसके लब पे तितली बैठ जाती है
सियासत नफ़रतों का ज़ख्म भरने ही नहीं देती
जहाँ भरने पे आता है तो मक्खी बैठ जाती है
वो दुश्मन ही सही आवाज़ दे उसको मोहब्बत से
सलीक़े से बिठा कर देख हड्डी बैठ जाती है
हम कुछ ऐसे तेरे दीदार में खो जाते हैं
हम कुछ ऐसे तेरे दीदार में खो जाते हैं
जैसे बच्चे भरे बाज़ार में खो जाते हैं
नये कमरों में अब चीजें पुरानी कौन रखता है
परिंदों के लिए शहरों में पानी कौन रखता है
मोहाजिरो यही तारीख है मकानों की
बनाने वाला हमेशा बरामदों में रहा
तुझसे बिछड़ा तो पसंद आ गयी बे-तरतीबी
इससे पहले मेरा कमरा भी ग़ज़ल जैसा था
किसी भी मोड़ पर तुमसे वफ़ा-दारी नहीं होगी
हमें मालूम है तुमको यह बीमारी नहीं होगी
तुझे अकेले पढूँ कोई हम-सबक न रहे
में चाहता हूँ कि तुझ पर किसी का हक न रहे
तलवार तो क्या मेरी नज़र तक नहीं उठी
उस शख्स के बच्चों की तरफ देख लिया था
फ़रिश्ते आके उनके जिस्म पर खुश्बू लगाते हैं
वो बच्चे रेल के डिब्बे में जो झाडू लगाते हैं
किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दूकान आई
में घर में सबसे छोटा था मेरी हिस्से में माँ आई
सिरफिरे लोग हमें दुश्मन-ए-जां कहते हैं
हम जो इस मुल्क की मिट्टी को भी माँ कहते हैं
मुझे खुद भी मलाल होता है
हर एक चेहरा यहाँ पर गुलाल होता है
हमारे शहर मैं पत्थर भी लाल होता है
मैं शोहरतों की बुलंदी पर जा नहीं सकता
जहाँ उरूज पर पहुँचो ज़वाल होता है
(उरूज= ऊँचाई/ज़वाल=नीचे जाना)
मैं अपने बच्चों को कुछ भी तो दे नहीं पाया
कभी कभी मुझे खुद भी मलाल होता है
यहीं से अमन की तबलीग रोज़ होती है
यहीं पे रोज़ कबूतर हलाल होता है
[तब्लिग़= preaching, प्रचार]
मैं अपने आप को सय्यद तो लिख नहीं सकता
अजान देने से कोई बिलाल होता है
पदोसीयों की दुकानें तक नहीं खुल्तीं
किसी का गाँव मैं जब इन्तिकाल होता है
हाँ इजाज़त है अगर कोई कहानी और है
हाँ इजाज़त है अगर कोई कहानी और है
इन कटोरों में अभी थोड़ा सा पानी और है
मज़हबी मज़दूर सब बैठे हैं इनको काम दो
इक इमारत शहर में काफी पुरानी और है
ख़ामुशी कब चीख़ बन जाये किसे मालूम है
ज़ुल्म कर लो जब तलक ये बेज़बानी और है
ख़ुश्क पत्ते आँख में चुभते हैं काँटों की तरह
दश्त में फिरना अलग है बाग़बानी और है
फिर वही उकताहटें होंगी बदन चौपाल में
उम्र के क़िस्से में थोड़ी-सी जवानी और है
बस इसी अहसास की शिद्दत ने बूढ़ा कर दिया
टूटे-फूटे घर में इक लड़की सयानी और है
हर एक आवाज़ अब उर्दू को...
हर एक आवाज़ अब उर्दू को फ़रियादी बताती है
यह पगली फिर भी अब तक ख़ुद को शहज़ादी बताती है
कई बातें मुहब्बत सबको बुनियादी बताती है
जो परदादी बताती थी वही दादी बताती है
जहां पिछले कई बरसों से काले नाग रहते हैं
वहां एक घोंसला चिड़ियों का था दादी बताती है
अभी तक यह इलाक़ा है रवादारी के क़ब्ज़े में
अभी फ़िरक़ापरस्ती कम है आबादी बताती है
यहां वीरानियों की एक मुद्दत से हुकूमत है
यहां से नफ़रतें गुज़री है बरबादी बताती है
लहू कैसे बहाया जाय यह लीडर बताते हैं
लहू का ज़ायक़ा कैसा है यह खादी बताती है
ग़ुलामी ने अभी तक मुल्क का पीछा नहीं छोड़ा
हमें फिर क़ैद होना है ये आज़ादी बताती है
ग़रीबी क्यों हमारे शहर से बाहर नहीं जाती
अमीर-ए-शहर के घर की हर एक शादी बताती है
मैं उन आंखों के मयख़ाने में थोड़ी देर बैठा था
मुझे दुनिया नशे का आज तक आदी बताती है
चौपदियाँ
1
कहीं भी छोड़ के अपनी ज़मीं नहीं जाते
हमें बुलाती है दुनिया हमीं नहीं जाते ।
मुहाजरीन से अच्छे तो ये परिन्दे हैं
शिकार होते हैं लेकिन कहीं नहीं जाते ।।
2
उम्र एक तल्ख़ हक़ीकत है मुनव्वर फिर भी
जितना तुम बदले हो उतना नहीं बदला जाता ।
सबके कहने से इरादा नहीं बदला जाता,
हर सहेली से दुपट्टा नहीं बदला जाता ।।
3
मियाँ ! मैं शेर हूँ, शेरों की गुर्राहट नहीं जाती,
मैं लहज़ा नर्म भी कर लूँ तो झुँझलाहट नहीं जाती ।
किसी दिन बेख़याली में कहीं सच बोल बैठा था,
मैं कोशिश कर चुका हूँ मुँह की कड़वाहट नहीं जाती ।।
4
हमारी ज़िन्दगी का इस तरह हर साल कटता है
कभी गाड़ी पलटती है, कभी तिरपाल कटता है ।
दिखाते हैं पड़ौसी मुल्क़ आँखें, तो दिखाने दो
कभी बच्चों के बोसे से भी माँ का गाल कटता है ।।
कुछ अशआर
1
मज़हबी मज़दूर सब बैठे हैं इनको काम दो ,
इसी शहर में एक पुरानी सी इमारत और है ।
2
हम ईंट-ईंट को दौलत से लाल कर देते,
अगर ज़मीर की चिड़िया हलाल कर देते ।
3
दिल ऎसा कि सीधे किए जूते भी बड़ों के
जिद ऎसी कि ख़ुद ताज उठा कर नहीं पहना ।
4
चमक यूँ ही नहीं आती है ख़ुद्दारी के चेहरे पर
अना को हमने दो-दो वक़्त का फाका कराया है।
5
मुनव्वर माँ के सामने कभी खुलकर नहीं रोना,
जहाँ बुनियाद हो, इतनी नमी अच्छी नहीं होती ।
6
बरबाद कर दिया हमें परदेस ने मगर
माँ सबसे कह रही है कि बेटा मज़े में है ।
7
एक निवाले के लिए मैंने जिसे मार दिया,
वह परिन्दा भी कई दिन का भूखा निकला ।
फिर से मैं फ़रिश्ता हो जाऊं
मेरी ख़्वाहिश है कि फिर से मैं फ़रिश्ता हो जाऊं
माँ से इस तरह लिपट जाऊं कि बच्चा हो जाऊं
कम-से कम बच्चों के होठों की हंसी की ख़ातिर
ऎसी मिट्टी में मिलाना कि खिलौना हो जाऊं
सोचता हूं तो छलक उठती हैं मेरी आँखें
तेरे बारे में न सॊचूं तो अकेला हो जाऊं
चारागर तेरी महारथ पे यक़ीं है लेकिन
क्या ज़ुरूरी है कि हर बार मैं अच्छा हो जाऊं
बेसबब इश्क़ में मरना मुझे मंज़ूर नहीं
शमा तो चाह रही है कि पतंगा हो जाऊं
शायरी कुछ भी हो रुसवा नहीं होने देती
मैं सियासत में चला जाऊं तो नंगा हो जाऊं
थकी-मांदी हुई बेचारियां आराम करती हैं
थकी - मांदी हुई बेचारियां आराम करती हैं
न छेड़ो ज़ख़्म को बीमारियां आराम करती हैं
सुलाकर अपने बच्चे को यही हर मां समझती है
कि उसकी गोद में किलकारियां आराम करती हैं
किसी दिन ऎ समुन्दर झांक मेरे दिल के सहरा में
न जाने कितनी ही तहदारियां आराम करती हैं
अभी तक दिल में रौशन हैं तुम्हारी याद के जुगनू
अभी इस राख में चिन्गारियां आराम करती हैं
कहां रंगों की आमेज़िश की ज़हमत आप करते हैं
लहू से खेलिये पिचकारियां आराम करती हैं
आमेज़िश=प्रकटन; ज़हमत=कष्ट
नुमाइश के लिए गुलकारियाँ दोनों तरफ़ से हैं
नुमाइश के लिए गुलकारियाँ दोनों तरफ़ से हैं
लड़ाई की मगर तैयारियाँ दोनों तरफ़ से हैं
मुलाक़ातों पे हँसते बोलते हैं मुस्कराते हैं
तबीयत में मगर बेज़ारियाँ दोनों तरफ़ से हैं
खुले रखते हैं दरवाज़े दिलों के रात दिन दोनों
मगर सरहद पे पहरेदारियाँ दोनों तरफ़ से हैं
उसे हालात ने रोका मुझे मेरे मसायल ने
वफ़ा की राह में दुश्वारियाँ दोनों तरफ़ से हैं
मेरा दुश्मन मुझे तकता है मैं दुश्मन को तकता हूँ
कि हायल राह में किलकारियाँ दोनों तरफ़ से हैं
मुझे घर भी बचाना है वतन को भी बचाना है
मिरे कांधे पे ज़िम्मेदारियाँ दोनों तरफ़ से हैं
मसायल=समस्याओं; हायल=बाधक
गले मिलने को आपस में दुआयें रोज़
गले मिलने को आपस में दुआयें रोज़ आती हैं
अभी मस्जिद के दरवाज़े पे मायें रोज़ आती हैं
अभी रोशन हैं चाहत के दिये हम सबकी आँखों में
बुझाने के लिये पागल हवायें रोज़ आती हैं
कोई मरता नहीं है हाँ मगर सब टूट जाते हैं
हमारे शहर में ऎसी वबायें रोज़ आती हैं
अभी दुनिया की चाहत ने मिरा पीछा नहीं छोड़ा
अभी मुझको बुलाने दाश्तायें रोज़ आती हैं
ये सच है नफ़रतों की आग ने सब कुछ जला डला
मगर उम्मीद की ठंडी हवायें रोज़ आती हैं
वबायें= बीमारियाँ; दाश्तायें=रखैलें
जब कभी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है
जब कभी कश्ती मिरी सैलाब में आ जाती है
मां दुआ करती हुई ख़्वाब में आ जाती है
रोज़ मैं अपने लहू से उसे ख़त लिखता हूं
रोज़ उंगली मिरी तेज़ाब में आ जाती है
दिल की गलियों से तिरी याद निकलती ही नहीं
सोहनी फिर इसी पंजाब में आ जाती है
रात भर जागते रहने का सिला है शायद
तेरी तस्वीर-सी महताब में आ जाती है
एक कमरे में बसर करता है सारा कुनबा
सारी दुनिया दिले- बेताब में आ जाती है
ज़िन्दगी तू भी भिखारिन की रिदा ओढ़े हुए
कूचा - ए - रेशमो - किमख़्वाब में आ जाती है
दुख किसी का हो छलक उठती हैं मेरी आँखें
सारी मिट्टी मिरे तालाब में आ जाती है
महताब=चांद; रिदा= चादर
रोने में इक ख़तरा है तालाब नदी हो जाते हैं
रोने में इक ख़तरा है तालाब नदी हो जाते हैं
हंसना भी आसान नहीं है लब ज़ख़्मी हो जाते हैं
इस्टेसन से वापस आकर बूढ़ी आँखें सोचती हैं
पत्ते देहाती रहते हैं फल शहरी हो जाते हैं
बोझ उठाना शौक कहाँ है मजबूरी का सौदा है
रहते - रहते इस्टेशन पर लोग कुली हो जाते हैं
सबसे हंसकर मिलिये-जुलिये लेकिन इतना ध्यान रहे
सबसे हंसकर मिलने वाले रुसवा भी हो जाते हैं
अपनी अना को बेच के अक्सर लुक़्म-ए-तर की चाहत में
कैसे-कैसे सच्चे शाइर दरबारी हो जाते हैं
पैरों में मिरे दीद-ए-तर बांधे हुए हैं
पैरों में मिरे दीद-ए-तर बांधे हुए हैं
ज़ंजीर की सूरत मुझे घर बांधे हुए हैं
हर चेहरे में आता है नज़र एक ही चेहरा
लगता है कोई मेरी नज़र बांधे हुए हैं
बिछड़ेंगे तो मर जायेंगे हम दोनों बिछड़ कर
इक डोर में हमको यही डर बांधे हुए हैं
परवाज़ की ताक़त भी नहीं बाक़ी है लेकिन
सय्याद अभी तक मिरे पर बांधे हुए हैं
आँखें तो उसे घर से निकलने नहीं देतीं
आंसू हैं कि सामाने-सफ़र बांधे हुए हैं
हम हैं कि कभी ज़ब्त का दामन नहीं छोड़ा
दिल है कि धड़कने पर कमर बंधे हुए है
दीद-ए-तर=भीगी हुई आँख; परवाज़=उड़ान;
सय्याद=बहेलिया या शिकारी
ये दीवाना ज़माने भर की दौलत छोड़ सकता है
ये दीवाना ज़माने भर की दौलत छोड़ सकता है
मदीने की गली दे दो तो जन्नत छोड़ सकता है
मुसीबत के दिनों में माँ हमेशा याद रहती है
पयम्बर क्या परेशानी में उम्मत छोड़ सकता है
ज़िन्दगी से हर ख़ुशी अब ग़ैर-हाज़िर हो गई
ज़िन्दगी से हर ख़ुशी अब ग़ैर हाज़िर हो गई
इक शकर होना थी बाक़ी वो भी आख़िर हो गई
दुश्मनी ने काट दी सरहद पे आख़िर ज़िन्दगी
दोस्ती गुजरात में रह कर मुहाजिर हो गई
हमारे कुछ गुनाहों की सज़ा भी साथ चलती है
हमारे कुछ गुनाहों की सज़ा भी साथ चलती है
हम अब तन्हा नहीं चलते दवा भी साथ चलती है
अभी ज़िन्दा है माँ मेरी मुझे कुछ भी नहीं होगा
मैं जब घर से निकलता हूँ दुआ भी साथ चलती है
जिस्म पर मिट्टी मलेंगे पाक हो जाएँगे हम
जिस्म पर मिट्टी मलेंगे पाक हो जाएँगे हम
ऐ ज़मीं इक दिन तेरी ख़ूराक हो जाएँगे हम
ऐ ग़रीबी देख रस्ते में हमें मत छोड़ना
ऐ अमीरी दूर रह नापाक हो जाएँगे हम
किसी का क़द बढ़ा देना
किसी का क़द बढ़ा देना किसी के क़द को कम कहना
हमें आता नहीं ना-मोहतरम को मोहतरम कहना
चलो मिलते हैं मिल-जुल कर वतन पर जान देते हैं
बहुत आसान है कमरे में बन्देमातरम कहना
बहुत मुमकिन है हाले-दिल वो मुझसे पूछ ही बैठे
मैं मुँह से कुछ नहीं बोलूँगा तू ही चश्मे-नम कहना
सियासत से अदब की दोस्ती बेमेल लगती है
सियासत से अदब की दोस्ती बेमेल लगती है
कभी देखा है पत्थर पे भी कोई बेल लगती है
ये सच है हम भी कल तक ज़िन्दगी पे नाज़ करते थे
मगर अब ज़िन्दगी पटरी से उतरी रेल लगती है
ग़लत बाज़ार की जानिब चले आए हैं हम शायद
चलो संसद में चलते हैं वहाँ भी सेल लगती
कोई भी अन्दरूनी गन्दगी बाहर नहीं होती
हमें तो इस हुक़ूमत की भी किडनी फ़ेल लगती है.
ख़ुदा-ना-ख़्वास्ता दोज़ख़-मकानी हो गये होते
ख़ुदा-न-ख़्वास्ता दोज़ख मकानी हो गये होते
ज़रा-सा चूकते तो क़ादियनी हो गये होते
अमीरे-शहर की शोहरत ने पत्थर कर दिया वरना
तुम्हारी आँख में रहते तो पानी हो गये होते
तेरी यादों ने बख़्शी है हमें ये ज़िन्दगी वरना
बहुत पहले ही हम क़िस्सा-कहानी हो गये होते.
ज़रूरत से अना का भारी पत्थर टूट जाता है
ज़रूर से अना का भारी पत्थर टूट जाता है
मगर फिरादमी भी अन्दर -अन्दर टूट जाता है
ख़ुदा के वास्ते इतना न मुझको टूटकर चाहो
ज़्यादा भीख मिलने से गदागर टूट जाता है
तुम्हारे शहर में रहने को तो रहते हैं हम लेकिन
कभी हम टूट जाते हैं कभी घर टूट जाता है
अभी तक कुछ नहीं बिगड़ा
अभी तक कुछ नहीं बिगड़ा अभी बीमार ज़िन्दा है
अभी इस शहर में उर्दू का इक अख़बार ज़िन्दा है
नदी की तरह होती हैं ये सरहद की लकीरें भी
कोई इस पार ज़िन्दा है कोई उस पार ज़िन्दा है
ख़ुदा के वास्ते ऐ बेज़मीरी गाँव मत आना
यहाँ भी लोग मरते हैँ मगर किरदार ज़िन्दा है
खिलौने की तरफ़ बच्चे को माँ जाने नहीं देती
खिलौने की तरफ़ बच्चे को माँ जाने नहीं देती
मगर आगे खिलौनों की दुकाँ जाने नहीं देती
अना ने मेरे बच्चों की हँसी भी छीन ली मुझसे
यहाँ जाने नहीं देती वहाँ जाने नहीं देती
ज़रूरत रोज़ हिजरत के लिए आवाज़ देती है
मुहब्बत छोड़कर हिन्दोस्ताँ जाने नहीं देती
यह देखकर पतंगें भी हैरान हो गयीं
यह देखकर पतंगें भी हैरान हो गयीं
अब तो छतें भी हिन्दु-मुसलमान हो गयीं
क्या शहरे-दिल में जश्न-सा रहता था रात-दिन
क्या बस्तियाँ थीं कैसी बयाबान हो गयीं
आ जा कि चंद साँसे बचीं है हिसाब से
आँखें तो इन्तज़ार में लोबान हो गयीं
उसने बिछड़ते वक़्त कहा था कि हँस के देख
आँखें तमाम उम्र को वीरान हो गयीं.
मुनव्वर राना
कुछ रोज़ से हम सिर्फ़ यही सोच रहे हैं
अब हमको किसी बात का ग़म क्यों नहीं होता
पत्थर हूँ तो क्यों तोड़ने वाले नहीं आते
सर हूँ तो तेरे सामने ख़म क्यों नहीं होता
जब मैंने ही शहज़ादी की तस्वीर बनाई
दरबार में ये हाथ क़लम क्यों नहीं होता
पानी है तो क्यों जानिब-ए-दरिया नहीं जाता
आँसू है तो तेज़ाब में ज़म क्यों नहीं होता
एक आँगन में दो आँगन हो जाते हैं
एक आँगन में दो आँगन हो जाते हैं
मत पूछा कर किस कारन हो जाते हैं
हुस्न की दौलत मत बाँटा कर लोगों में
ऐसे वैसे लोग महाजन हो जाते हैं
ख़ुशहाली में सब होते हैं ऊँची ज़ात
भूखे-नंगे लोग हरिजन हो जाते हैं
राम की बस्ती में जब दंगा होता है
हिन्दू-मुस्लिम सब रावन हो जाते हैं
उन घरों में जहाँ मिट्टी के घड़े रहते हैं
उन घरों में जहाँ मिट्टी के घड़े रहते हैं
क़द में छोटे हों मगर लोग बड़े रहते हैं
जाओ जा कर किसी दरवेश की अज़मत देखो
ताज पहने हुए पैरों में पड़े रहते हैं
जो भी दौलत थी वो बच्चों के हवाले कर दी
जब तलक मैं नहीं बैठूँ ये खड़े रहते हैं
मैंने फल देख के इन्सानों को पहचाना है
जो बहुत मीठे हों अन्दर से सड़े रहते हैं
यूँ आज कुछ चराग़ हवा से उलझ पड़े
यूँ आज कुछ चराग़ हवा से उलझ पड़े
जैसे शबाब बन्द-ए-क़बा से उलझ पड़े
भेजे गये फ़रिश्ते हमारे बचाव को
जब हादसात माँ की दुआ से उलझ पड़े
मेरे बदन से उसकी ग़रीबी लिपट गयी
मेरी नज़र से उअसके मुहाँसे उलझ पड़े
उम्मत की सर बुलन्दी की ख़ातिर ख़ुदा गवाह
ज़ालिम से ख़ुद नबी के नवासे उलझ पड़े
झूठ बोला था तो यूँ मेरा दहन दुखता है
झूठ बोला था तो यूँ मेरा दहन दुखता है
सुबह दम जैसे तवायफ़ का बदन दुखता है
ख़ाली मटकी की शिकायत पे हमें भी दुख है
ऐ ग्वाले मगर अब गाय का थन दुखता है
उम्र भर साँप से शर्मिन्दा रहे ये सुन कर
जबसे इन्सान को काटा है तो फन दुखता है
ज़िन्दगी तूने बहुत ज़ख़्म दिये है मुझको
अब तुझे याद भी करता हूँ तो मन दुखता है
क़सम देता है बच्चों की बहाने से बुलाता है
क़सम देता है बच्चों की बहाने से बुलाता है
धुआँ चिमनी का हमको कारख़ाने से बुलाता है
किसी दिन आँसुओ! वीरान आँखों में भी आ जाओ
ये रेगिस्तान बादल को ज़माने से बुलाता है
मैं उस मौसम में भी तन्हा रहा हूँ जब सदा देकर
परिन्दे को परिन्दा आशियाने से बुलाता है
मैं उसकी चाहतों को नाम कोई दे नहीं सकता
कि जाने से बिगड़ता है न जाने से बुलाता है
ये संसद है यहाँ भगवान का भी बस नहीं चलता
ये संसद है यहाँ भगवान का भी बस नहीं चलता
जहाँ पीतल ही पीतल हो बहाँ पारस नहीं चलता
यहाँ पर हारने वाले की जानिब कौन देखेगा
सिकन्दर का इलाक़ा है यहाँ पोरस नहीं चलता
दरिन्दे ही दरिन्दे हों तो किसको कौन देखेगा
जहाँ जंगल ही जंगल हो वहाँ सरकस नहीं चलता
हमारे शहर से गंगा नदी हो कर गुज़रती है
हमारे शहर में महुए से निकला रस नहीं चलता
कहाँ तक साथ देंगी ये उखड़ती टूटती साँसें
बिछड़ कर अपने साथी से कभी सारस नहीं चलता
ये मिट्टी अब मेरे साथी को क्यों जाने नहीं देती
ये मेरे साथ आया था क्यों वापस नहीं चलता
थकी-माँदी हुई बेचारियाँ आराम करती हैं
थकी - माँदी हुई बेचारियाँ आराम करती हैं
न छेड़ो ज़ख़्म को बीमारियाँ आराम करती हैं
अमीर-ए-शहर के घर में ये मंज़र देख सकते हो
हवस मसरूफ़ है ख़ुद्दारियाँ आराम करती हैं
सुलाकर अपने बच्चे को यही हर मां समझती है
कि उसकी गोद में किलकारियाँ आराम करती हैं
किसी दिन ऎ समुन्दर झांक मेरे दिल के सहरा में
न जाने कितनी ही तहदारियाँ आराम करती हैं
अभी तक दिल में रौशन हैं तुम्हारी याद के जुगनू
अभी इस राख में चिन्गारियाँ आराम करती हैं
कहां रंगों की आमेज़िश की ज़हमत आप करते हैं
लहू से खेलिये पिचकारियाँ आराम करती हैं
मैं दहशतगर्द था मरने पे बेटा बोल सकता है
मैं दहशतगर्द था मरने पे बेटा बोल सकता है
हुकूमत के इशारे पर तो मुर्दा बोल सकता है
हुकूमत की तवज्जो चाहती है ये जली बस्ती
अदालत पूछना चाहे तो मलबा बोल सकता है
कई चेहरे अभी तक मुँहज़बानी याद हैं इसको
कहीं तुम पूछ मत लेना ये गूंगा बोल सकता है
यहाँ पर नफ़रतों ने कैसे कैसे गुल खिलाये हैं
लुटी अस्मत बता देगी दुपट्टा बोल सकता है
बहुत सी कुर्सियाँ इस मुल्क में लाशों पे रखी हैं
ये वो सच है जिसे झूठे से झूठा बोल सकता है
सियासत की कसौटी पर परखिये मत वफ़ादारी
किसी दिन इंतक़ामन मेरा गुस्सा बोल सकता है
मैं अपने हल्क़ से अपनी छूरी गुज़ारता हूँ
मैं अपने हल्क़ से अपनी छुरी गुज़ारता हूँ
बड़े ही कर्ब में ये ज़िन्दगी गुज़ारता हूँ
तस्सव्वुरात की दुनिया भी ख़ूब होती है
मैं रोज़ सहरा से कोई नदी गुज़ारता हूँ
मैं एक हक़ीर-सा जुगनू सही मगर फिर भी
मैं हर अँधेरे से कुछ रौशनी गुज़ारता हूँ
यही तो फ़न है कि मैं इस बुरे ज़माने में
समाअतों से नई शायरी गुज़ारता हूँ
कहीं पे बैठ के हँसना कहीं पे रो देना
मैं ज़िन्दगी भी बड़ी दोग़ली गुज़ारता हूँ
मिट्टी में मिला दे कि जुदा हो नहीं सकता
मिट्टी में मिला दे कि जुदा हो नहीं सकता
अब इससे ज़ियादा मैं तिरा हो नहीं सकता
दहलीज़ पे रख दी हैं किसी शख़्स ने आँखें
रौशन कभी इतना तो दिया हो नहीं सकता
बस तू मिरी आवाज़ में आवाज़ मिला दे
फिर देख कि इस शहर में क्या हो नहीं सकता
ऎ मौत मुझे तूने मुसीबत से निकाला
सय्याद समझता था रिहा हो नहीं सकता
इस ख़ाकबदन को कभी पहुँचा दे वहाँ भी
क्या इतना करम बादे-सबा हो नहीं सकता
पेशानी को सजदे भी अता कर मिरे मौला
आँखों से तो यह क़र्ज़ अदा हो नहीं सकता
सय्याद=बहेलिया, शिकारी; बादे-सबा=बहती हवा; पेशानी=माथे
अमीर-ए-शहर को तलवार करने वाला हूँ
अमीरे शहर को तलवार करने वाला हूँ
मैं जी-हुज़ूरी से इन्कार करने वाला हूँ
कहो अँधेरे से दामन समेट ले अपना
मैं जुगनुओं को अलमदार करने वाला हूँ
तुम अपने शहर के हालात जान सकते हो
मैं अपने चेहरे को अख़बार करने वाला हूँ
मैं चाहता था कि भाई का साथ छूट न जाए
मगर वो समझा कि मैं वार करने वाला हूँ
बदन का कोई भी हिस्सा ख़रीद सकते हो
मैं अपने जिस्म को बाज़ार करने वाला हूँ
तुम अपनी आँखों से सुनना मेरी कहानी को
लबे ख़मोश से इज़हार करने वाला हूँ
हमारी राह में हायल कोई नहीं होगा
तू एक दरिया है मैं पार करने वाला हूँ .
आपको चेहरे से भी बीमार होना चाहिए
आपको चेहरे से भी बीमार होना चाहिए
इश्क़ है तो इश्क़ का इज़हार होना चाहिए
आप दरिया हैं तो फिर इस वक़्त हम ख़तरे में हैं
आप कश्ती हैं तो हम को पार होना चाहिए
ऐरे-ग़ैरे लोग भी पढ़ने लगे हैं इन दिनों
आपको औतर नहीं अख़बार होना चाहिए
ज़िन्दगी तू कब तलक दर-दर फिराएगी हमें
टूटा- फूटा ही सही घरबार होना चाहिए
अपनी यादों से कहो एक दिन की छुट्टी दें मुझे
इश्क़ के हिस्से में भी इतवार होना चाहिए
रविवार, मई 17, 2009
हर एक शख्स ख़फ़ा-सा दिखाई देता है
हर एक शख़्स खफ़ा-सा दिखाई देता है
चहार सम्त कुहासा दिखाई देता है
हर इक नदी उसे सैराब कर चुकी है मगर
समन्दर आज भी प्यासा दिखाई देता है
ज़रूरतों ने अजब हाल कर दिया है अब
तमाम जिस्म ही कासा दिखाई देता है
वहाँ पहुँच के ज़मीनों को भूल जाओगे
यहाँ से चाँद ज़रा-सा दिखाई देता है
खिलेंगे फूल अभी और भी जवानी के
अभी तो एक मुँहासा दिखाई देता है
मैं अपनी जान बचाकर निकल नहीं सकता
कि क़ातिलों में शनासा दिखाई देता है
शरीफ़ इन्सान आख़िर क्यों एलेक्शन हार जाता है
शरीफ़ इन्सान आख़िर क्यों एलेक्शन हार जाता है
किताबों में तो ये लिक्खा था रावन हार जाता है
जुड़ी हैं इससे तहज़ीबें सभी तस्लीम करते हैं
नुमाइश में मगर मिट्टी का बरतन हार जाता है
मुझे मालूम है तुमने बहुत बरसातें देखी हैं
मगर मेरी इन्हीं आँखों से सावन हार जाता है
अभी मौजूद है इस गाँव की मिट्टी में ख़ुद्दारी
अभी बेवा की ग़ैरत से महाजन हार जाता है
अगर इक कीमती बाज़ार की सूरत है यह दुनिया
तो फिर क्यों काँच की चूड़ी से कंगन हार जाता है.
जहाँ तक हो सका हमने तुम्हें पर्दा कराया है
जहाँ तक हो सका हमने तुम्हें परदा कराया है
मगर ऐ आँसुओ ! तुमने बहुत रुस्वा कराया है
चमक ऐसे नहीं आती है ख़ुद्दारी के चेहरे पर
अना को हमने दो-दो वक़्त का फ़ाक़ा कराया है
बड़ी मुद्दत पे पाई हैं ख़ुशी से गालियाँ हमने
बड़ी मुद्दत पे उसने आज मुँह मीठा कराया है
बिछड़ना उसकी ख़्वाहिश थी न मेरी आरज़ू लेकिन
ज़रा-सी ज़िद ने इस आँगन का बँटवारा कराया है
कहीं परदेस की रंगीनियों में खो नहीं जाना
किसी ने घर से चलते वक़्त ये वादा कराया है
मुसलसल गेसुओं की बरहमी अच्छी नहीं होती
मुसलसल गेसुओं की बरहमी अच्छी नहीं होती
हवा सबके लिए ये मौसमी अच्छी नहीं होती
न जाने कब कहाँ पर कोई तुमसे ख़ूँ बहा माँगे
बदन में ख़ून की इतनी कमी अच्छी नहीं होती
ये हम भी जानते हैं ओढ़ने में लुत्फ़ आता है
मगर सुनते हैं चादर रेशमी अच्छी नहीं होती
ग़ज़ल तो प्फूल -से बच्चों की मीठी मुस्कुराहट है
ग़ज़ल के साथ इतनी रुस्तमी अच्छी नहीं होती
‘मुनव्वर’ माँ के आगे यूँ कभी खुल कर नहीं रोना
जहाँ दीवार हो इतनी नमी अच्छी नहीं होती
सबके कहने से इरादा नहीं बदला जाता
सबके कहने से इरादा नहीं बदला जाता
हर सहेली से दुपट्टा नहीं बदला जाता
हम कि शायर हैं सियासत नहीं आती हमको
हमसे मँह देख के लहजा नहीं बदला जाता
हम फ़क़ीरों को फ़क़ीरी का नशा रहता है
वरना क्या शहर में शजरा नहीं बदला जाता
ऐसा लगता है कि वो भूल गया है हमको
अब कभी खिड़की का पर्दा नहीं बदला जाता
अब रुलाया है तो हँसने पे न मजबूर करो
रोज़ बीमार का नुस्ख़ा नहीं बदला जाता
ग़म से फ़ुर्सत ही कहाँ है कि तुझे याद करूँ
इतनी लाशें हों तो काँधा नहीं बदला जाता
उम्र इक तल्ख़ हक़ीक़त है ‘मुनव्वर’ फिर भी
जितने तुम बदले हो उतना नहीं बदला जाता.
हम कभी जब दर्द के क़िस्से सुनाने लग गये
हम कभी जब दर्द के क़िस्सी सुनाने लग गये
लफ़्ज़ फिइलों की तरह ख़ुश्बू लुटाने लग गये
लौटते में कम पड़ेगी उम्र की पूँजी हमें
आप तक आने में ही हमको ज़माने लग गये
आपने आबाद वीराने किये होंगे बहुत
आपकी ख़ातिर मगर हम तो ठिकाने लग गये
दिल समन्दर के किनारों का वो हिस्सा है जहाँ
शाम होते ही बहुत -से शामियाने लग गये
बेबसी तेरी इनायत है कि हम भी आजकल
अपने आँसू अपने दामन पर बहाने लग गये
उँगलियाँ थामे हुए बच्चे चले स्कूल को
सुबह होते ही परन्दे चहचाहाने लग गये
कर्फ़्यू में और क्या करते मदद इक लाश की
बस अगरबती की सूरत हम सिरहाने लग गये
मोहब्बत करने वाला ज़िन्दगी भर कुछ नहीं कहता
मोहब्बत करने वालों में ये झगडा डाल देती है
सियासत दोस्ती की जड में मट्ठा दाल देती है
तवायफ की तरह अपनी गलतकारी के चेहरे पर
हुकूमत मंदिर और मस्जिद का पर्दा डाल देती है
हुकूमत मुंहभराई के हुनर से खूब वाकिफ है
ये हर कुत्ते के आगे शाही टुकडा डाल देती है
कहां की हिजरतें कैसा सफर कैसा जुदा होना
किसी की चाह पैरों पर दुपट्टा डाल देती है
ये चिडिया भी मेरी बेटी से कितनी मिलती जुलती है
कहीं भी शाखे गुल देखे तो झूला डाल देती है
भटकती है हवस दिन रात सोने की दुकानों में
गरीबी कान छिदवाती है तिनका डाल देती है
जिसे दुश्मन समझता हूँ वही अपना निकलता है
जिसे दुश्मन समझता हूँ वही अपना निकलता है
हर एक पत्थर से मेरे सर का कुछ रिश्ता निकलता है
डरा -धमका के तुम हमसे वफ़ा करने को कहते हो
कहीं तलवार से भी पाँव का काँटा निकलता है?
ज़रा-सा झुटपुटा होते ही छुप जाता है सूरज भी
मगर इक चाँद है जो शब में भी तन्हा निकलता है
किसी के पास आते हैं तो दरिया सूख जाते हैं
किसी की एड़ियों से रेत में चश्मा निकलता है
फ़ज़ा में घोल दीं हैं नफ़रतें अहले-सियासत ने
मगर पानी कुएँ से आज तक मीठा निकलता है
जिसे भी जुर्मे-ग़द्दारी में तुम सब क़त्ल करते हो
उसी की जेब से क्यों मुल्क का झंडा निकलता है
दुआएँ माँ की पहुँचाने को मीलों-मील आती हैं
कि जब परदेस जाने के लिए बेटा निकलता है.
मियाँ मैं शेर हूँ शेरों की गुर्राहट नहीं जाती
मियाँ मैं शेर हूँ शेरों की गुर्राहट नहीं जाती
मैं लहजा नर्म भी कर लूँ तो झुँझलाहट नहीं जाती
मैं इक दिन बेख़याली में कहीं सच बोल बैठा था
मैं कोशिश कर चुका हूँ मुँह की कड़ुवाहट नहीं जाती
जहाँ मैं हूँ वहीं आवाज़ देना जुर्म ठहरा है
जहाँ वो है वहाँ तक पाँव की आहट नहीं जाती
मोहब्बत का ये जज़बा जब ख़ुदा क्जी देन है भाई
तो मेरे रास्ते से क्यों ये दुनिया हट नहीं जाती
वो मुझसे बेतकल्लुफ़ हो के मिलता है मगर ‘राना’
न जाने क्यों मेरे चेहरे से घबराहट नहीं जाती.
हम कुछ ऐसे तेरे दीदार में खो जाते हैं
हम कुछ ऐसे तेरे दीदार में खो जाते हैं
जैसे बच्चे भरे बाज़ार में खो जाते हैं
नये कमरों में अब चीजें पुरानी कौन रखता है
परिंदों के लिए शहरों में पानी कौन रखता है
मोहाजिरो यही तारीख है मकानों की
बनाने वाला हमेशा बरामदों में रहा
तुझसे बिछड़ा तो पसंद आ गयी बे-तरतीबी
इससे पहले मेरा कमरा भी ग़ज़ल जैसा था
किसी भी मोड़ पर तुमसे वफ़ा-दारी नहीं होगी
हमें मालूम है तुमको यह बीमारी नहीं होगी
तुझे अकेले पढूँ कोई हम-सबक न रहे
में चाहता हूँ कि तुझ पर किसी का हक न रहे
तलवार तो क्या मेरी नज़र तक नहीं उठी
उस शख्स के बच्चों की तरफ देख लिया था
फ़रिश्ते आके उनके जिस्म पर खुश्बू लगाते हैं
वो बच्चे रेल के डिब्बे में जो झाडू लगाते हैं
किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दूकान आई
में घर में सबसे छोटा था मेरी हिस्से में माँ आई
सिरफिरे लोग हमें दुश्मन-ए-जां कहते हैं
हम जो इस मुल्क की मिट्टी को भी माँ कहते हैं
वो महफ़िल में नहीं खुलता है तनहाई में खुलता है
वो महफ़िल में नहीं खुलता है तनहाई में खुलता है
समुन्दर कितना गहरा है ये गहराई में खुलता है
जब उससे गुफ़्तगू कर ली तो फिर शजरा नहीं पूछा
हुनर बखियागरी का एक तुरपाई में खुलता है
हमारे साथ रहता है वो दिन भर अजनबी बन कर
हमेशा चांद हमसे शब की तनहाई में खुलता है
मेरी आँखें जहाँ पर भी खुलें वो पास होते हैं
ये दरवाज़ा हमेशा उसकी अँगनाई में खुलता है
मेरी तौबा खड़ी रहती है सहमी लड़कियों जैसी
भरम तक़वे का उसकी एक अँगड़ाई में खुलता है
फ़क़त ज़ख़्मों से तक़लीफ़ें कहाँ मालूम होती हैं
पुरानी कितनी चोटें हैं ये पुरवाई में खुलता है
पैरों को मेरे दीदा-ए-तर बाँधे हुए है
पैरों को मेरे दीदा-ए-तर बाँधे हुए है
ज़ंजीर की सूरत मुझे घर बाँधे हुए है
हर चेहरे में आता है नज़र एक ही चेहरा
लगता है कोई मेरी नज़र बाँधे हुए है
बिछड़ेंगे तो मर जायेंगे हम दोनों बिछड़कर
इक डोर में हमको यही डर बाँधे हुए है
परवाज़ की ताक़त भी नहीं बाक़ी है लेकिन
सैयाद अभी तक मेरे पर बाँधे हुए है
आँखें तो उसे घर से निकलने नहीं देतीं
आँसू हैं कि सामान-ए-सफ़र बाँधे हुए है
हम हैं कि कभी ज़ब्त का दामन नहीं छोड़ा
दिल है कि धड़कने पे कमर बाँधे हुए है
फेंकी न ‘मुनव्वर’ ने बुज़ुर्गों की निशानी
दस्तार पुरानी है मगर बाँधे हुए है
वह मुझे जुरअत-ए-इज़हार से पहचानता है
वोह मुझे जुर्रत-ए-इज़हार से पहचानता है
मेरा दुश्मन भी मुझे वार से पहचानता है
शहर वाक़िफ़ है मेरे फ़न की बदौलत मुझसे
आपको जुब्बा-ओ-दस्तार से पहचानता है
फिर कबूतर की वफ़ादारी पे शक मत करना
वह तो घर को इसी मीनार से पहचानता है
कोई दुखी हो कभी कहना नहीं पड़ता उससे
वो ज़रूरत को तलबगार से पहचानता है
उसको ख़ुश्बू के परखने का सलीक़ा ही नहीं
फूल को क़ीमत-ए- बाज़ार से पहचानता है
नुमाइश के लिए गुलकारियाँ दोनों तरफ़ से हैं
नुमाइश के लिए गुलकारियाँ दोनों तरफ़ से हैं
लड़ाई की मगर तैयारियाँ दोनों तरफ़ से हैं
मुलाक़ातों पे हँसते बोलते हैं मुस्कराते हैं
तबीयत में मगर बेज़ारियाँ दोनों तरफ़ से हैं
खुले रखते हैं दरवाज़े दिलों के रात दिन दोनों
मगर सरहद पे पहरेदारियाँ दोनों तरफ़ से हैं
उसे हालात ने रोका मुझे मेरे मसायल ने
वफ़ा की राह में दुश्वारियाँ दोनों तरफ़ से हैं
मेरा दुश्मन मुझे तकता है मैं दुश्मन को तकता हूँ
कि हायल राह में किलकारियाँ दोनों तरफ़ से हैं
मुझे घर भी बचाना है वतन को भी बचाना है
मिरे कांधे पे ज़िम्मेदारियाँ दोनों तरफ़ से हैं
मसायल=समस्याओं; हायल=बाधक
कोई चेहरा किसी को उम्र भर अच्छा नहीं लगता
कोई चेहरा किसी को उम्र भर अच्छा नहीं लगता
हसीं है चाँद भी, शब भर अच्छा नहीं लगता
अगर स्कूल में बच्चे हों घर अच्छा नहीं लगता
परिन्दों के न होने से शजर अच्छा नहीं लगता
कभी चाहत पे शक करते हुए यह भी नहीं सोचा
तुम्हारे साथ क्यों रहते अगर अच्छा नहीं लगता
ज़रूरत मुझको समझौते पे आमादा तो करती है
मुझे हाथों को फैलाते मगर अच्छा नहीं लगता
मुझे इतना सताया है मेरे अपने अज़ीज़ों ने
कि अब जंगल भला लगता है घर अच्छा नहीं लगता
मेरा दुश्मन कहीं मिल जाए तो इतना बता देना
मेरी तलवार को काँधों पे सर अच्छा नहीं लगता
किताब-ए-जिस्म पर इफ़लास की दीमक का क़ब्ज़ा है
किताब-ए-जिस्म पर इफ़लास की दीमक का क़ब्ज़ा है
जो चेहरा चाँद जैसा था वहाँ चेचक का क़ब्ज़ा है
बहुत दिन हो गए तुमने पुकारा था मुझे लेकिन
अभी तक दिल के दरवाज़े पे उस दस्तक का क़ब्ज़ा है
तेरा ग़म हुक़्मरानी कर रहा है इन दिनों दिल पर
मेरे जागीर पर मेरे ही लैपालक का क़ब्ज़ा है
मेरे जैसे बहुत -से सिरफिरों ने जान तक दे दी
मगर उर्दू ग़ज़ल पर आज भी ढोलक का क़ब्ज़ा है
ग़रीबों पर तो मौसम भी हुक़ूमत करते रहते हैं
कभी बारिश, कभी गर्मी, कभी ठंडक का क़ब्ज़ा है
इसी गली में वो भूखा किसान रहता है
इसी गली में वो भूखा किसान रहता है
ये वो ज़मीन है जहाँ आसमान रहता है
मैं डर रहा हूँ हवा से ये पेड़ गिर न पड़े
कि इस पे चिडियों का इक ख़ानदान रहता है
सड़क पे घूमते पागल की तरह दिल है मेरा
हमेशा चोट का ताज़ा निशान रहता है
तुम्हारे ख़्वाबों से आँखें महकती रहती हैं
तुम्हारी याद से दिल जाफ़रान रहता है
हमें हरीफ़ों की तादाद क्यों बताते हो
हमारे साथ भी बेटा जवान रहता है
सजाये जाते हैं मक़तल मेरे लिये ‘राना’
वतन में रोज़ मेरा इम्तहान रहता है
मैं उसको छोड़ न पाया बुरी लतों की तरह
मैं उसको छोड़ न पाया बुरी लतों की तरह
वो मेरे साथ है बचपन की आदतों की तरह
मुझे सँभालने वाला कहाँ से आएगा
मैं गिर रहा हूँ पुरानी इमारतों की तरह
हँसा-हँसा के रुलाती है रात-दिन दुनिया
सुलूक इसका है अय्याश औरतों की तरह
वफ़ा की राह मिलेगी, इसी तमना में
भटक रही है मोहब्बत भी उम्मतों की तरह
मताए-दर्द-लूटी तो लुटी ये दिल भी कहीं
न डूब जाए गरीबों की उजरतों की तरह
खुदा करे कि उमीदों के हाथ पीले हों
अभी तलक तो गुज़ारी है इद्दतों की तरह
यहीं पे दफ़्न हैं मासूम चाहतें ‘राना’
हमारा दिल भी है बच्चों की तुरबतों की तरह.
बहुत हसीन-सा इक बाग़ घर के नीचे है
बहुत हसीन-सा इक बाग़ घर के नीचे है
मगर सुकून पुराने शजर के नीचे है
मुझे कढ़े हुए तकियों की क्या ज़रूरत है
किसी का हाथ अभी मेरे सर के नीचे है
ये हौसला है जो मुझसे उख़ाब डरते हैं
नहीं तो गोश्त कहाँ बाल-ओ-पर के नीचे है
उभरती डूबती मौजें हमें बताती हैं
कि पुर सुकूत समन्दर भँवर के नीचे है
बिलख रहे हैं ज़मीनों पे भूख से बच्चे
मेरे बुज़ुर्गों की दौलत खण्डर के नीचे है
अब इससे बढ़ के मोहब्बत का कुछ सुबूत नहीं
कि आज तक तेरी तस्वीर सर के नीचे है
मुझे ख़बर नहीं जन्नत बड़ी कि माँ, लेकिन
बुज़ुर्ग कहते हैं जन्नत बशर के नीचे है
बजाए इसके कि संसद दिखाई देने लगे
बजाए इसके कि संसद दिखाई देने लगे
ख़ुदा करे तुझे गुंबद दिखाई देने लगे
वतन से दूर भी यारब वहीं पे दम निकले
जहाँ से मुल्क की सरहद दिखाई देने लगे
शिकारियों से कहो सर्दियों का मौसम है
परिन्दे झील पे बेहद दिखाई देने लगे
मेरे ख़ुदा मेरी आँखों से रौशनी ले ले
कि भीख माँगये सय्यद दिखाई देने लगे
हैं ख़ानाजंगी के आसार मुल्क में ‘राना’
कि हर तरफ़ जहाँ नारद दिखाई देने लगे
नाकामियों के बाद भी हिम्मत वही रही
नाकामियों की बाद भी हिम्मत वही रही
ऊपर का दूध पी के भी ताक़त वही रही
शायद ये नेकियाँ हैं हमारी कि हर जगह
दस्तार के बग़ैर भी इज़्ज़त वही रही
मैं सर झुका के शहर में चलने लगा मगर
मेरे मुख़ालिफ़ीन में दहशत वही रही
जो कुछ मिला था माल-ए-ग़नीमत में लुट गया
मेहनत से जो कमाई थी दौलत वही रही
क़दमों में ला के डाल दीं सब नेमतें मगर
सौतेली माँ को बच्चों से नफ़रत वही रही
खाने की चीज़ें माँ ने जो भेजी हैं गाँव से
बासी भी हो गई हैं तो लज़्ज़त वही रही
हालाँकि हमें लौट के जाना भी नहीं है
हालाँकि हमें लौट के जाना भी नहीं है
कश्ती मगर इस बार जलाना भी नहीं है
तलवार न छूने की कसम खाई है लेकिन
दुश्मन को कलेजे से लगाना भी नहीं है
यह देख के मक़तल में हँसी आती है मुझको
सच्चा मेरे दुश्मन का निशाना भी नहीं है
मैं हूँ मेरी बच्चा है, खिलौनों की दुकाँ है
अब कोई मेरे पास बहाना भी नहीं है
पहले की तरह आज भी हैं तीन ही शायर
यह राज़ मगर सब को बताना भी नहीं है
कभी ख़ुशी से ख़ुशी की तरफ़ नहीं देखा
कभी ख़ुशी से खुशी की तरफ़ नहीं देखा
तुम्हारे बाद किसी की तरफ़ नहीं देखा
ये सोचकर कि तेरा इन्तज़ार लाज़िम है
तमाम उम्र घड़ी की तरफ़ नहीं देखा
यहाँ तो जो भी है आब-ए-रवाँ का आशिक़ है
किसी ने ख़ुश्क नदी की तरफ़ नहीं देखा
वि जिन के वास्ते परदेस जारहा हूँ मैं
बिछड़ते वक़्त उसी की तरफ़ नहीं देखा
न रोक ले हमें रोता हुआ कोई चेहरा
चले तो मुड़ के गली की तरफ़ नहीं देखा
रविश बुज़ुर्गों की शामिल है मेरी घुट्टी में
ज़रूरतन भी सख़ी की तरफ़ नहीं देखा
हम पर अब इस लिए ख़ंजर नहीं फैंका जाता
हम पर अब इस लिए ख़ंजर नहीं फेंका जाता
ख़ुश तालाब में कंकर नहीं फेंका जाता
उसने रक्खा है हिफ़ाज़त से हमारे ग़म को
औरतों से कभी ज़ेवर नहीं फेंका जाता
मेरे अजदाद ने रोके हैं समन्दर सारे
मुझसे तूफ़ान में लंगर नहीं फेंका जाता
लिपटी रहती है तेरी याद हमेशा हमसे
कोई मौसम हो ये मफ़लर नहीं फेंका जाता
जो छिपा लेता हो दीवार की उरयानी को
दोस्तो, ऐसा कलंडर नहीं फेंका जाता
गुफ़्तगू फ़ोन पे हो जाती है साहिब
अब किसी छत पे कबूतर नहीं फेंका जाता
मेरे कमरे में अँधेरा नहीं रहने देता
मेरे कमरे में अँधेरा नहीं रहने देता
आपकाग़म मुझे तन्हा नहीं रहने देता
वो तो ये कहिये कि शमशीरज़नी आती थी
वर्ना दुश्मन हमें ज़िन्दा नहीं रहने देता
मुफ़लिसी घर में ठहरने नहीं देता हमको
और परदेस में बेटा नहीं रहने देता
तिश्नगी मेरा मुक़द्दर है इसी से शायद
मैं परिन्दों को भी प्यासा नहीं रहने देता
रेत पर खेलते बच्चों को अभी क्या मालूम
कोई सैलाब घरौंदा नहीं रहने देता
ग़म से लछमन के तरह भाई का रिश्ता है मेरा
मुझको जंगल में अकेला नहीं रहने देता
जिस्म का बरसों पुराना ये खँडर गिर जाएगा
जिस्म का बरसों पुराना ये खँडर गिर जाएगा
आँधियों का ज़ोर कहता है शजर गिर जाएगा
हम तवक़्क़ो से ज़ियादा सख़्त-जाँ साबित हुए
वो समझता था कि पत्थर से समर गिर जाएगा
अब मुनासिब है कि तुम काँटों को दामन सौंप दो
फूल तो ख़ुद ही किसी दिन सूखकर गिर जाएगा
मेरी गुड़िया-सी बहन को ख़ुदकुशी करनी पड़ी
क्या ख़बर थी दोस्त मेरा इस क़दर गिर जाएगा
इसलिये मैंने बुज़ुर्गों की ज़मीनें छोड़ दीं
मेरा घर जिस दिन बसेगा तेरा घर गिर जाएगा
हँसते हुए माँ-बाप की गाली नहीं खाते
हँसते हुए माँ-बाप की गाली नहीं खाते
बच्चे हैं तो क्यों शौक़ से मिट्टी नहीं खाते
तुमसे नहीं मिलने का इरादा तो है लेकिन
तुमसे न मिलेंगे ये क़सम भी नहीं खाते
सो जाते हैं फुटपाथ पे अख़बार बिछा कर
मज़दूर् कभी नींद की गोली नहीं खाते
बच्चे भी ग़रीबी को समझने लगे शायद
अब जाग भी जाते हैं तो सहरी नहीं खाते
दावत तो बड़ी चीज़ है हम जैसे क़लंदर
हर एक के पैसों की दवा भी नहीं खाते
अल्लाह ग़रीबों का मददगार है ‘राना’
हम लोगों के बच्चे कभी सर्दी नहीं खाते
दश्त-ओ-सहरा में कभी उजड़े सफ़र में रहना
दश्त-ओ- सहरा में कभी उजड़े सफ़र में रहना
उम्र भर कोई न चाहेगा सफ़र में रहना
ऐ ख़ुदा फूल-से बच्चों की हिफ़ाज़त करना
मुफ़लिसी चाह रही है मेरे घर में रहना
इस लिये बैठी हैं दहलीज़ पे मेरी बहनें
फल नहीं चाहते ता-उम्र शजर में रहना
मुद्दतों बाद कोई शख़्स है आने वाला
ऐ मेरे आँसुओ, तुम दीद-ए-तर में रहना
किसको ये फ़िक्र कि हालात कहाँ आ पहुँचे
लोग तो चाहते हैं सिर्फ़ ख़बर में रहना
मौत लगती है मुझे अपने मकाँ की मानिंद
ज़िंदगी जैसे किसी और के घर में रहना.
मुफ़लिसी पास-ए-शराफ़त नहीं रहने देगी
मुफ़लिसी पास-ए-शराफ़त नहीं रहने देगी
ये हवा पेड़ सलामत नहीं रहने देगी
शहर के शोर से घबरा के अगर भागोगे
फिर तो जंगल में भी वहशत नहीं रहने देगी
कुछ नहीं होगा तो आँचल में छुपा लेगी मुझे
माँ कभी सर पे खुली छत नहीं रहने देगी
आपके पास ज़माना नहीं रहने देगा
आपसे दूर मोहब्बत नहीं रहने देगी
शहर के लोग बहुत अच्छे हैं लेकिन मुझको
‘मीर’ जैसी ये तबीयत नहीं रहने देगी
रास्ता अब भी बदल दीजिये ‘राना’ साहब
शायरी आपकी इज़्ज़त नहीं अहने देगी
तू हर परिन्दे को छत पर उतार लेता है
तू हर परिन्दे को छत पर उतार लेता है
ये शौक़ वो है जो ज़ेवर उतार लेता है
मैम आसमाँ की बुलन्दी पे बारहा पहुँचा
मगर नसीब ज़मीं पर उतार लेता है
अमीर-ए-शहर की हमदर्दियों से बच के रहो
ये सर से बोझ नहीं सर उतार लेता है
उसी को मिलता है एज़ाज़ भी ज़माने में
बहन के सर से जो चादर उतार लेता है
उठा है हाथ तो फिर वार भी ज़रूरी है
कि साँप आँखों में मंज़र उतार लेता है
धँसती हुई क़ब्रों की तरफ़ देख लिया था
धँसती हुई क़ब्रों की तरफ़ देख लिया था
माँ-बाप के चेहरों की तरफ़ देख लिया था
दौलत से मुहब्बत तो नहीं थी मुझे लेकिन
बच्चों ने खिलौनों की तरफ़ देख लिया था
उस दिन से बहुत तेज़ हवा चलने लगी है
बस मैंने चरागों की तरफ़ देख लिया था
अब तुमको बुलन्दी कभी अच्छी न लगेगी
क्यों ख़ाकनशीनों की तरफ़ देख लिया था
तलवार तो क्या मेरी नज़र तक नही उट्ठीं
उस शख़्स के बच्चों की तरफ़ देख लिया था
फ़रिश्ते आके उनके जिस्म पर ख़ुश्बू लगाते हैं
फ़रिश्ते आके उनके जिस्म पर ख़ुश्बू लगाते हैं
वो बच्चे रेल के डिब्बों में जो झाड़ू लगाते हैं
अँधेरी रात में अक्सर सुनहरी मिशअलें ले कर
परिन्दों की मुसीबत का पता जुगनू लगाते हैं
दिलों का हाल आसानी से कब मालूम होता है
कि पेशानी पे चन्दन तो सभी साधू लगाते हैं
ये माना आपको शोले बुझाने में महारत है
मगर वो आग जो मज़लूम के आँसू लगाते हैं
किसी के पाँव की आहट से दिल ऐसा उछलता है
छलाँगें जंगलों में जिस तरह आहू लगाते हैं
बहुत मुमकिन है अब मेरा चमन वीरान हो जाए
सियासत के शजर पर घोंसले उल्लू लगाते हैं
ख़त कापियों में छोड़ आए
जो उसने लिक्खे थे ख़त कापियों में छोड़ आए
हम आज उसको बड़ी उलझनों में छोड़ आए
अगर हरीफ़ों में हता तो बच भी सकता था
ग़लत किया जो उसे दोस्तों में छोड़ आए
सफ़र का शौक़ भी कितना अजीब होता है
वो चेहरा भीगा हुआ आँसों में छोड़ आए
फिर उसके बाद वो आँखें कभी नहीं रोयीं
हम उनको ऐसी ग़लतफ़हमियों में छोड़ आए
महाज़-ए-जंग पे जाना बहुत ज़रूरी था
बिलखते बच्चे हम अपने घरों में छोड़ आए
जब एक वाक़्या बचपन का हमको याद आया
हम उन परिन्दों को फिर घोंसलों में छोड़ आए
गौतम की तरह घर से निकल
गौतम की तरह घर से निकल कर नहीं जाते
हम रात में छुपकर कहीं बाहर नहीं जाते
बचपन में किसी बात पर हम रूठ गए थे
उस दिन से इसी शहर में है घर नहीं जाते
एक उम्र यूँ ही काट दी फ़ुटपाथ पे रहकर
हम ऐसे परिन्दे हैं जो उड़कर नहीं जाते
उस वक़्त भी अक्सर तुझे हम ढूँढने निकले
जिस धूप में मज़दूर भी छत पर नहीं जाते
हम वार अकेले ही सहा करते हैं ‘राना’
हम साथ में लेकर कहीं लश्कर नहीं जाते
साथ अपने रौनक़ें शायद उठा ले जायेंगे
साथ अपने रौनक़ें शायद उठा ले जायेंगे
जब कभी कालेज से कुछ लड़के निकाले जायेंगे
हो सके तो दूसरी कोई जगह दे दीजिये
आँख का काजल तो चन्द आँसू बहा ले जायेंगे
कच्ची सड़कों पर लिपट कर बैलगाड़ी रो पड़ी
ग़ालिबन परदेस को कुछ गाँव वाले जायेंगे
हम तो एक अखबार से काटी हुई तसवीर हैं
जिसको काग़ज़ चुनने वाले कल उठा ले जायेंगे
हादसों की गर्द से ख़ुद को बचाने के लिये
माँ, हम अपने साथ बस तेरी दुआ ले जायेंगे
आँखों में कोई ख़्वाब सुनहरा नहीं आता
आँखों में कोई ख़्वाब सुनहरा नहीं आता
इस झील पे अब कोई परिन्दा नहीं आता
हालात ने चेहरे की चमक देख ली वरना
दो-चार बरस में तो बुढ़ापा नहीं आता
मुद्दत से तमन्नएँ सजी बैठी हैं दिल में
इस घर में बड़े लोगों का रिश्ता नहीं आता
इस दर्ज़ा मसायल के जहन्नुम में जला हूँ
अब कोई भी मौसम हो पसीना नहीं आता
मैं रेल में बैठा हुआ यह सोच रहा हूँ
इस दैर में आसानी से पैसा नहीं आता
अब क़ौम की तक़दीर बदलने को उठे हैं
जिन लोगों को बचपन ही कलमा नहीं आता
बस तेरी मुहब्बत में चला आया हूँ वर्ना
यूँ सब के बुला लेने से ‘राना’ नहीं आता
शनिवार, मई 16, 2009
अजब दुनिया है नाशायर यहाँ पर सर उठाते हैं /
अजब दुनिया है नाशायर यहाँ पर सर उठाते हैं
जो शायर हैं वो महफ़िल में दरी- चादर उठाते हैं
तुम्हारे शहर में मय्यत को सब काँधा नहीं देते
हमारे गाँव में छप्पर भी सब मिल कर उठाते हैं
इन्हें फ़िरक़ापरस्ती मत सिखा देना कि ये बच्चे
ज़मीं से चूमकर तितली के टूटे पर उठाते हैं
समुन्दर के सफ़र से वापसी का क्या भरोसा है
तो ऐ साहिल, ख़ुदा हाफ़िज़ कि हम लंगर उठाते हैं
ग़ज़ल हम तेरे आशिक़ हैं मगर इस पेट की ख़ातिर
क़लम किस पर उठाना था क़लम किसपर उठाते हैं
बुरे चेहरों की जानिब देखने की हद भी होती है
सँभलना आईनाख़ानो, कि हम पत्थर उठाते हैं
बस इतनी बात पर उसने हमें बलवाई लिक्खा है
बस इतनी बात पर उसने हमें बलवाई लिक्खा है
हमारे घर के बरतन पे आई.एस.आई लिक्खा है
यह मुमकिन ही नहीं छेड़ूँ न तुझको रास्ता चलते
तुझे ऐ मौत मैंने उम्र भर भौजाई लिक्खा है
मियाँ मसनद नशीनी मुफ़्त में कब हाथ आती है
दही को दूध लिक्खा दूध को बालाई लिक्खा है
कई दिन हो गए सल्फ़ास खा कर मरने वाली को
मगर उसकी हथेली पर अभी शहनाई लिक्खा है
हमारे मुल्क में इन्सान अब घर में नहीं रहते
कहीं हिन्दू कहीं मुस्लिम कहीं ईसाई लिक्खा है
यह दुख शायद हमारी ज़िन्दगी के साथ जाएगा
कि जो दिल पर लगा है तीर उसपर भाई लिक्खा है
एक-न-एक रोज़ तो होना है ये जब हो जाये
एक न इक रोज़ तो होना है ये जब हो जाये
इश्क़ का कोई भरोसा नहीं कब हो जाये
हममें अजदाद की बू-बास नहीं है वरना
हम जहाँ सर को झुका दें वो अरब हो जाये
वो तो कहिये कि रवादारियाँ बाक़ी हैं अभी
वरना जो कु नहीं होता है वो सब हो जाये
ईद में यूँ तो कई रोज़ हैं बाक़ी लेकिन
तुम अगर छत पे चले जाओ ग़ज़ब हो जाये
सारे बीमार चले जाते हैं तेरी जानिब
रफ़्ता रफ़्ता तेरा घर भी न मतब हो जाये
सरफ़िरे लोग हमें दुश्मन-ए-जाँ कहते हैं
सरफिरे लोग हमें दुश्मन-ए-जाँ कहते हैं
हम जो इस मुल्क की मिट्टी को भी माँ कहते हैं
हम पे जो बीत चुकी है वो कहाँ लिक्खा है
हम पे जो बीत रही है वो कहाँ कहते हैं
वैसे ये बात बताने की नहीं है लेकिन
हम तेरे इश्क़ में बरबाद हैं हाँ कहते हैं
तुझको ऐ ख़ाक-ए-वतन मेरे तयम्मुम की क़सम
तू बता दे जो ये सजदों के निशाँ कहते हैं
आपने खुल के मुहब्बत नहीं की है हमसे
आप भाई नहीं कहते हैं मियाँ कहते हैं
शायरी भी मेरी रुस्वाई पे आमादा है
मैं ग़ज़ल कहता हूँ सब मर्सिया-ख़्वाँ कहते हैं
ऐ अँधेरे देख ले मुँह तेरा काला हो गया
ऐ अँधेरे देख ले मुँह तेरा काला हो गया
माँ ने आँखें खोल दीं घर में उजाला हो गया
राई के दाने बराबर भी न था जिसका वजूद
नफ़रतों के बीच रह कर वह हिमाला हो गया
एक आँगन की तरह यह शहर था कल तक मगर
नफ़रतों से टूटकर मोती की माला हो गया
शहर को जंगल बना देने में जो मशहूर था
आजकल सुनते हैं वो अल्लाह वाला हो गया
हम ग़रीबों में चले आए बहुत अच्छा किया
आज थोड़ी देर को घर में उजाला हो गया
नहीं होती अगर बारिश तो पत्थर हो गये होते
नहीं होती अगर बारिश तो पत्थर हो गए होते
ये सारे लहलहाते खेत बंजर हो गए होते
तेरे दामन से सारी शहर को सैलाब से रोका
नहीं तो मैरे ये आँसू समन्दर हो गए होते
तुम्हें अहले सियासत ने कहीं का भी नहीं रक्खा
हमारे साथ रहते तो सुख़नवर हो गए होते
अगर आदाब कर लेते तो मसनद मिल गई होती
अगर लहजा बदल लेते गवर्नर हो गए होते
चिराग़े-ए-दिल बुझाना चाहता था
चिराग़-ए-दिल बुझाना चाहता था
वो मुझको भूल जाना चाहता था
मुझे वो छोड़ जाना चाहता था
मगर कोई बहाना चाहता था
सफ़ेदी आ गई बालों पे उसके
वो बाइज़्ज़त घराना चाहता था
उसे नफ़रत थी अपने आपसे भी
मगर उसको ज़माना चाहता था
तमन्ना दिल की जानिब बढ़ रही थी
परिन्दा आशियाना चाहता था
बहुत ज़ख्मी थे उसके होंठ लेकिन
वो बच्चा मुस्कुराना चाहता था
ज़बाँ ख़ामोश थी उसकी मगर वो
मुझे वापस बुलाना चाहता था
जहाँ पर कारख़ाने लग गए हैं
मैं एक बस्ती बसाना चाहता था
उधर क़िस्मत में वीरानी लिखी थी
इधर मैं घर बसाना चाहता था
वो सब कुछ याद रखना चाहता था
मैं सब कुछ भूल जाना चाहता था
न जाने कैसा मौसम हो दुशाला ले लिया जाये
न जाने कैसा मौसम हो दुशाला ले लिया जाये
उजाला मिल रहा है तो उजाला ले लिया जाये
चलो कुछ देर बैठें दोस्तों में ग़म जरूरी है
ग़ज़ल के वास्ते थोड़ा मसाला ले लिया जाये
बड़ी होने लगी हैं मूरतें आँगन में मिट्टी की
बहुत-से काम बाक़ी हैं सँभाला ले लिया जाये
सुना है इन दिनों बाज़ार में हर चीज़ मिलती है
किसी नक़्क़ाद से कोई मकाला ले लिया जाये
नुमाइश में जब आये हैं तो कुछ लेना ज़रूरी है
चलो कोई मुहब्बत करने वाला ले लिया जाये
सारा शबाब क़ैस ने सहरा को दे दिया
सारा शबाब क़ैस ने सहरा को दे दिया
जो कुछ बचा हुआ था वो लैला को दे दिया
मुझ पर किसी का क़र्ज़ नहीं रह गया है अब
दुनिया से जो मिला था वो दुनिया को दे दिया
अब मेरे पास तेरी निशानी नहीं कोई
एक ख़त बचा हुआ था वो दरिया को दे दिया
दुनिया हमारा हक़ भी हमें दे नहीं सकी
पोटा भी हमसे छीन के राजा को दे दिया
फ़िरक़ा परस्त लोग हुकूमत में आ गये
बिल्ली के मुँह में आपने चिड़िया को दे दिया
घरों को तोड़ता है ज़ेहन में नक़्शा बनाता है
घरों को तोड़ता है ज़ेहन में नक़्शा बनाता है
कोई फिर ज़िद की ख़ातिर शहर को सहरा बनाता है
ख़ुदा जब चाहता है रेत को दरिया बनाता है
फिर उस दरिया में मूसा के लिए रस्ता बनाता है
जो कल तक अपनी कश्ती पर हमेशा अम्न लिखता था
वो बच्चा रेत पर अब जंग का नक़्शा बनाता है
मगर दुनिया इसी बच्चे को दहशतगर्द लिक्खेगी
अभी जो रेत पर माँ-बाप का चेहरा बनाता है
कहानीकार बैठा लिख रहा है आसमानों पर
ये कल मालूम होगा किसको अब वो क्या बनाता है
कहानी को मुसन्निफ़ मोड़ देने के लिए अकसर
तुझे पत्थर बनाता है मुझे शीशा बनाता है
गले मिलने को आपस में दुआएँ रोज़ आती हैं
सरफिरे लोग हमें दुश्मने-जाँ कहते हैं
हम जो इस मुल्क की मिट्टी को भी माँ कहते हैं
हम पे जो बीत चुकी है वो कहाँ लिक्खा है
हम जो बीत रही है वो कहाँ कहते हैं
वैसे यह बात बताने की नहीं है लेकिन
हम तेरे इश्क़ में बरबाद हैं हाँ कहते हैं
तुझको ऐ ख़ाक-एवतन मेरे तयम्मुम की क़सम
तू बता दे जो ये सजदों के निशाँ कहते हैं
आपने खुल के मुहब्बत नहीं की है हमसे
आप भाई नहीं नहीं कहते हैं मियाँ कहते हैं
शायरी भी मेरी रुसवाई पे आमादा है
मैं ग़ज़ल कहता हूँ सब मर्सिया-ख़्वाँ कहते हैं
कुछ मेरी वफ़ादारी का इनआम दिया जाए
कुछ मेरी वफ़ादारी का इनआम दिया जाये
इल्ज़ाम ही देना है तो इल्ज़ाम दिया जाये
ये आपकी महफ़िल है तो फिर कुफ़्र है इनकार
ये आपकी ख़्वाहिश है तो फिर जाम दिया जाये
तिरशूल कि तक्सीम अगर जुर्म नहीं है
तिरशूल बनाने का हमें काम दिया जाये
कुछ फ़िरक़ापरस्तों के गले बैठ रहे हैं
सरकार ! इन्हें रोग़ने- बादाम दिया जाये.
हाँ इजाज़त है अगर कोई कहानी और है
हाँ इजाज़त है अगर कोई कहानी और है
इन कटोरों में अभी थोड़ा सा पानी और है
मज़हबी मज़दूर सब बैठे हैं इनको काम दो
इक इमारत शहर में काफी पुरानी और है
ख़ामुशी कब चीख़ बन जाये किसे मालूम है
ज़ुल्म कर लो जब तलक ये बेज़बानी और है
ख़ुश्क पत्ते आँख में चुभते हैं काँटों की तरह
दश्त में फिरना अलग है बाग़बानी और है
फिर वही उकताहटें होंगी बदन चौपाल में
उम्र के क़िस्से में थोड़ी-सी जवानी और है
बस इसी अहसास की शिद्दत ने बूढ़ा कर दिया
टूटे-फूटे घर में इक लड़की सयानी और है
इस पेड़ में एक बार तो आ जायें समर भी
इस पेड़ में इक बार तो आ जाए समर भी
जो अग इधर है कभी लग जाए उधर भी
कुछ मेरी अना भी मुझे झुकने नहीं देती
कुछ इसकी इजाज़त नहीं देती है कमर भी
पहले मुझे बाज़ार में मिल जाती थी अकसर
रुसवाई ने अब देख लिया है है मेरा घर भी
इस वास्ते जी भर के उसे देख न पाए
सुनते हैं कि लग जाती है अपनों की नज़र भी
कुछ उसकी तवज्जो भी नहीम होता है मुझपर
इस खेल से कुछ लगने लगा है मुझे डर भी
उस शहर में जीने की सज़ा काट रहा हूँ
महफ़ूज़ नहीं है जहाँ अल्लाह का घर भी
मर्ज़ी-ए-मौला मौला जाने
मर्ज़ी-ए-मौला मौला जाने
मैं क्या जानूँ रब्बा जाने
डूबे कितने अल्ला जाने
पानी कितना दरिया जाने
आँगन की तक़सीम का क़िस्सा
मैं जानूँ या बाबा जाने
पढ़ने वाले पढ़ ले चेहरा
दिल का हाल तो अल्ला
क़ीमत पीतल के घुंघरू की
शहर का सारा सोना जाने
हिजरत करने वालों का ग़म
दरवाज़े का ताला जाने
गुलशन पर क्या बीत रही है
तोता जाने मैना जाने
रोने में एक ख़तरा है तालाब नदी हो जाते हैं
रोने में इक ख़तरा है तालाब नदी हो जाते हैं
हंसना भी आसान नहीं है लब ज़ख़्मी हो जाते हैं
इस्टेसन से वापस आकर बूढ़ी आँखें सोचती हैं
पत्ते देहाती रहते हैं फल शहरी हो जाते हैं
बोझ उठाना शौक कहाँ है मजबूरी का सौदा है
रहते - रहते इस्टेशन पर लोग कुली हो जाते हैं
सबसे हंसकर मिलिये-जुलिये लेकिन इतना ध्यान रहे
सबसे हंसकर मिलने वाले रुसवा भी हो जाते हैं
अपनी अना को बेच के अक्सर लुक़्म-ए-तर की चाहत में
कैसे-कैसे सच्चे शाइर दरबारी हो जाते हैं
तू कभी देख तो रोते हुए आकर मुझको
तू कभी देख तो रोते हुए आकर मुझको
रोकना पड़ता है आँखों से समुन्दर मुझको
इसमे आवारा मिज़ाजी का कोई दख़्ल नहीं
दश्त-ओ-सहरा में फिराता है मुक़द्दर मुझको
एक टूटी हुई कश्ती का मुसाफ़िर हूँ मैं
हाँ निगल जाएगा एक रोज़ समुन्दर मुझको
इससे बढ़कर मेरी तौहीन -ए-अना क्या होगी
अब गदागर भी समझते हैं गदागर मुझको
ज़ख़्म चेहरे पे, लहू आँखों में, सीना छलनी,
ज़िन्दगी अब तो ओढ़ा दे कोई चादर मुझको
मेरी आँखों को वो बीनाई अता कर मौला
एक आँसू भी नज़र आए समुन्दर मुझको
कोई इस बात को माने कि न माने लेकिन
चाँद लगता है तेरे माथे का झूमर मुझको
दुख तो ये है मेरा दुश्मन ही नहीं है कोई
ये मेरी भाई हैं कहते हैं जो बाबर मुझको
मुझसे आँगन का अँधेरा भी नहीं मिट पाया
और दुनिया है कि कहती है ‘मुनव्वर’ मुझको
दामन को आँसुओं से शराबोर कर दिया
दामन को आँसुओं से शराबोर कर दिया
उसने मेरे इरादे को कमज़ोर कर दिया
बारिश हुए तो झूम के स नाचने लगे
मौसम ने पेड़-पौधों को भी मोर कर दिया
मैं वो दिया हूँ जिससे लरज़ती है अब हवा
आँधी ने छेड़-छेड़ के मुँहज़ोर कर दिया
इज़हार-ए-इश्क़ ग़ैर-ज़रूरी था , आपने
तशरीह कर के शेर को कमज़ोर कर दिया
उसके हसब-नसब पे कोई शक़ नहीं मगर
उसको मुशायरों ने ग़ज़ल-चोर कर दिया
उसने भी मुझको क़िस्से की सूरत भुला दिया
मैंने भी आरज़ूओं को दरगोर कर दिया
मुख़ालिफ़ सफ़ भी ख़ुश होती है लोहा मान लेती है
मुखालिफ़ सफ़ भी ख़ुश होती है लोहा मान लेती है
ग़ज़ल का शेर अच्छा हो तो दुनिया मान लेती है
शरीफ़ औरत तो फूलों को भी गहना मान लेती है
मगर दुनिया इसे भी एक तमाशा मान लेती है
ये संसद है यहाँ आदाब थोड़े मुख़तलिफ़ होंगे
यहाँ जम्हूरियत झूठे को सच्चामान लेती है
फिर उसको मर के भी ख़ुद से जुदा होने नहीं देता
ये मिट्टी जब किसी को अपना बेटा मान लेती है
मुहब्बत करते जाओ बस यही सच्ची इबादत है
मुहब्बत माँ को भी मक्का-मदीना मान लेती है
अमीर-ए-शहर का रिश्ते में कोई कुछ नहीं लगता
ग़रीबी चाँद को भी अपना मामा मान लेती है
मुझको हर हाल में बख़्शेगा उजाला अपना
मुझको हर हाल में बख़्शेगा उजाला अपना
चाँद रिश्ते में तो लगता नहीं मामा अपना
मैंने रोते हुए पोंछे थे किसी दिन आँसू
मुद्दतों माँ ने नहीं धोया दुपट्टा अपना
हम परिन्दों की तरह उड़ के तो जाने से रहे
इस जनम में तो न बदलेंगे ठिकाना अपना
धूप से मिल गए हैं पेड़ हमारे घर के
हम समझते थे कि काम आएगा बेटा अपना
सच बता दूँ तो ये बाज़ार-ए-मुहब्बत गिर जाए
मैंने जिस दाम में बेचा है ये मलबा अपना
आइनाख़ाने में रहने का ये इनआम मिला
एक मुद्दत से नहीं देखा है चेहरा अपना
तेज़ आँधी में बदल जाते हैं सारे मंज़र
भूल जाते हैं परिन्दे भी ठिकाना अपना
मियाँ रुसवाई दौलत के तआवुन से नहीं जाती
मियाँ रुसवाई दौलत के तआवुन से नहीं जाती
यह कालिख उम्र भर रहती है साबुन से नहीं जाती
शकर फ़िरकापरस्ती की तरह रहती है नस्लों तक
ये बीमारी करेले और जामुन से नहीं जाती
वो सन्दल के बने कमरे में भी रहने लगा लेकिन
महक मेरे लहू की उसके नाख़ुन से नहीं जाती
इधर भी सारे अपने हैं उधर भी सारे अपने थे
ख़बर भी जीत की भिजवाई अर्जुन से नहीं जाती
मुहब्बत की कहानी मुख़्तसर होती तो है लेकिन
कही मुझसे नहीं जाती सुनी उनसे नहीं जाती
हमारी बेबसी देखो उन्हें हमदर्द कहते हैं
हमारी बेबसी देखो उन्हें हमदर्द कहते हैं,
जो उर्दू बोलने वालों को दहशतगर्द कहते हैं
मदीने तक में हमने मुल्क की ख़ातिर दुआ मांगी
किसी से पूछ ले इसको वतन का दर्द कहते हैं
किसी भी रंग को पहचानना मुश्किल नहीं होता
मेरे बच्चों की सूरत देख इसको ज़र्द कहते हैं
अगर दंगाइयों पर तेरा कोई बस नहीं चलता
तो फिर सुन ले हुकूमत हम तुझे नामर्द कहते हैं
वो अपने आपको सच बोलने से किस तरह रोकें
वज़ारत को जो अपनी जूतियों की गर्द कहते हैं
बाज़ारी पेटीकोट की सूरत हूँ इन दिनों
बाज़ारी पेटीकोट की सूरत हूँ इन दिनों
मैं सिर्फ़ एक रिमोट की सूरत हूँ इन दिनों
ज़ालिम के हक़ में मेरी गवाही है मोतबर
मैं झुग्गियों के वोट की सूरत हूँ इन दिनों
मुँह का मज़ा बदलने को सुनते हैं वो ग़ज़ल
टेबुल पे दालमोंट की सूरत हो इन दिनों
हर श्ख़्स देखने लगा शक की निगाह से
मैं पाँच-सौ के नोट की सूरत हूँ इन दिनों
हर शख़्स है निशाने पे मुझको लिए हुए
कैरम की लाल गोट की सूरत हूँ इन दिनों
घर में भी कोई ख़ुश न हुआ मुझको देखकर
यानी मैं एक चोट की सूरत हूँ इन दिनों
मौसम भी अब उड़ाने लगा है मेरी हँसी
इतने पुराने कोट की सूरत हूँ इन दिनों